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द्रोणाचार्य और कर्ण के प्रति सहानुभूति क्यों रहनी चाहिए? Terrorism Supporters, Direct, Indirect, Pakistan, Hindi Article



पाकिस्तान-सिंध के सहवान में लाल शहबाज कलंदर सूफी दरगाह पर आईएसआईएस के आत्मघाती हमले के बाद फेसबुक पर मेरे एक मित्र ने कुछ यूं अपने विचार प्रकट किये-
"अभी पाकिस्तान में हुए बम धमाकों पर खुश होने और मरने वालों के लिए जन्नत व हूरों का तंज कसने वालों, धमाके के बाद की स्थिति में आप में और धमाका करवाने वालों में क्या अंतर है? अभी उधर वो भी खुश होंगे, इधर आप भी खुश हैं. अपने मुँह से मानवता का नाम मत लिजिएगा, गाली जैसा लगता है. मेरे लिए दुनिया के किसी भी कोने में मरने वाले बेकसूरों के लिए एक ही समान दर्द है."
Terrorism Supporters, Direct, Indirect, Pakistan, Hindi Article, Pic: wishesh.com
देखा जाए तो उपरोक्त 'पोस्ट' में सीधे तौर पर कुछ गलती भी नज़र नहीं आती, किन्तु बात इससे आगे बढ़कर है. इसी पोस्ट पर हुई चर्चा में किसी ने आगे लिखा कि-
"मैं इस मामले में आप लोगों से अलग राय रखता हूं. अगर आप का बेटा कलेक्टर हो जाएगा तो उसको प्राप्त सुख-सुविधा का आनंद आप और आप का पूरा परिवार लेगा ही, किन्तु अगर वही डाकू बन जायेगा तो उसका खामियाजा भी तो आपको भुगतना चाहिए. इसलिए इंसानियत के नाम पर राजनैतिक भाषा नहीं बोली जानी चाहिए."
इस मसले पर लोगबाग अक्सर कंफ्यूज रहते हैं, किन्तु समझा जाना चाहिए कि क्या वाकई 'अपराध' या 'आतंकवाद' हवा में उत्पन्न हो जाते हैं? 
बहुत पुरानी एक कहानी याद आती है, जिसमें एक हत्यारे डाकू को उसके अपराध की सजा के रूप में 'मृत्युदंड' दिया गया. जब उस डाकू से उसकी अंतिम इच्छा पूछी गयी तब उसने अपनी माँ से मिलने और उसके कान में कोई 'सीक्रेट' बात कहने की इच्छा व्यक्त की. तब जज महोदय ने उसकी माँ को अदालत में बुलवाया और अपनी माँ के कान में कुछ कहने के बहाने उस डकैत ने माँ के कान को ज़ोर से काट लिया!उससे पूछा गया कि उसने ऐसा क्यों किया?तब उसका जवाब बड़ा दिलचस्प था कि जब मैं पहली बार स्कूल से पेंसिल चुरा कर लाया था, तब मेरी माँ ने कुछ नहीं कहा था.थोड़ा बड़ा होने पर जब पड़ोसी के घर में चोरी की, तब भी मेरी माँ ने कुछ नहीं कहा...जब मोहल्ले में मेरी चोरी, डकैती के किस्से कुख्यात होने लगे, फिर भी मेरी माँ चुप ही रही.हद तो तब हो गयी, जब मैंने किसी का मर्डर किया और मेरी माँ चुप रही. आज इसी के कारण मैं फांसी पर चढ़ रहा हूँ, इसलिए इसका दोष क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
सिर्फ यही कहानी क्यों, इतिहास में कुख्यात औरंगज़ेब के रूप में जाने जाने वाले बादशाह को जब आखिरी समय में महसूस हुआ कि उसने इस्लाम के प्रचार के नाम पर सिर्फ 'मानवता' का ही रक्त बहाया है, तो उसे बेहद ग्लानि हुई थी. कहते हैं, तब अपने 'मौलवी', जिसने औरंगज़ेब को इस्लाम के नाम पर मानवता का गला घोंटने की तालीम दी थी, उसे बादशाह ने खूब धिक्कारा!


महाभारत काल का किस्सा ही देख लीजिये. द्रोणाचार्य या कर्ण के वध पर कई लोग आंसू बहाते हैं कि वह बेहद विद्वान और वीर योद्धा थे. कई सद्कर्म भी करते रहते थे, किन्तु तमाम अच्छाइयों के बावजूद वह थे तो 'अधर्म के ही पक्ष में'? मुझे यह मानने में रत्ती भर भी संकोच नहीं है कि खुद पाकिस्तान की बहुतायत आवाम 'आतंकवाद' की पक्षधर है. कारण चाहे जो हो, किन्तु अगर पाकिस्तान आतंकवाद का गढ़ बना हुआ है तो वहां की आवाम को 'क्लीनचीट' कतई नहीं दी जा सकती है. 'भारत-विरोध' के नाम पर तमाम पाकिस्तानी अपनी सोच में 'आतंक की गंध' लिए फिरते हैं. अन्यथा वह सड़कों पर होती और जनता की इच्छा के विरुद्ध आतंक की क्या मजाल? ऐसे में विचारणीय तथ्य यही है कि वह चाहे द्रोणाचार्य हों, कर्ण हो या फिर पाकिस्तानी आवाम ही क्यों न हो, उसे सहानुभूति क्यों मिलनी चाहिए?
ऐसा ही कुछ हाल कश्मीर के कुछ भटके हुए लोगों का है, जिसका विरोध करने पर भारत के आर्मी प्रमुख के बयान पर राजनीति की जा रही है. आर्मी प्रमुख ने आखिर क्या गलत कहा है कि "मुठभेड़ के दौरान जो लोग सुरक्षाबलों के लिए अवरोध उत्पन्न करेंगे और उनकी मदद करेंगे उन्हें चरमपंथियों का समर्थक माना जाएगा"? जाहिर तौर पर कश्मीर में आतंकवाद रोधी अभियानों के दौरान बाधा डालने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की ही जानी चाहिए. इसमें 'मानवता' का व्यर्थ प्रलाप आखिर क्यों किया जाना चाहिए?
अभी हाल ही में कश्मीर के बांदीपुरा और कुपवाड़ा जिले में आतंकियों और सुरक्षाबलों के बीच हुई मुठभेड़ में चार आतंकवादी मारे गये, जबकि मेजर एस दहिया समेत चार जवान भी शहीद हो गये थे. वहीं, सीआरपीएफ की 45वीं बटालियन के कमांडिंग अफसर चेतन कुमार चीता समेत 10 जवान जख्मी भी हुए हैं. ज़रा गौर कीजिये कि हर बार की तरह इस बार भी भटके कश्मीरी लोगों द्वारा पत्थर फेंक कर आतंकवादियों को भागने में मदद की जा रही थी. 

Terrorism Supporters, Direct, Indirect, Pakistan, Hindi Article, Pic: countercurrents.org
मतलब सेना के जवान अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए जान देते रहे तो ठीक, किन्तु दुश्मनों पर कोई कार्रवाई कर दी तो फिर 'मानवता' खतरे में पड़ जाती है? वैसे, ये कोई नयी बात नहीं है जब कश्मीर में अस्थिरता पैदा कर रहे आतंकवादियों के खिलाफ अभियानों में अवरोध उत्पन्न किया जा रहा हो. आपको याद होगा पिछले साल जुलाई में हिजबुल के आतंकवादी 'बुरहान वानी' के एनकाउंटर के बाद कैसी भयंकर पत्थरबाजी हुयी थी. एक आतंकवादी की मौत के विरोध में महीनों तक जम्मू -कश्मीर में कर्फ्यू लगा रहा और नतीजा ये हुआ कि वहां की जनता को ही सर्वाधिक परेशानियों का सामना करना पड़ा. स्कूल - कॉलेज बंद होने से बच्चों की पढ़ाई बाधित हुयी, वहीं मरीजों को भी दवाईयों की किल्लत का सामना करना पड़ा. 
अगर इन सभी कड़ियों को हम जोड़ें तो साफ़ समझ जायेंगे कि कश्मीर में 'आतंकवाद' को स्पांसर करने के जिम्मेदार लोगों में कहीं न कहीं पाकिस्तानी आवाम भी है! अब वो क्या कहते हैं कि कुत्ते को काटना सिखाओगे तो वह कभी न कभी आपको ही काटेगा... 
तो फिर अगर पाकिस्तान भर में आतंकवादी हमले हो रहे हैं तो उसे क्यों छटपटाना चाहिए? इसके साथ अगर मानवता की रक्षा हेतु कुछ लोगों को इतनी ही चुलबुली मचती है तो फिर उन्हें पाकिस्तान की जनता को धिक्कारना चाहिए, जो हाफीज़ सईद ज़िंदाबाद के नारे लगाती है और उसकी सभाओं में जाती है. निंदा हर उस 'द्रोणाचार्य' और 'कर्ण' की करनी चाहिए, जिसके बल पर दुर्योधन जैसा दुर्बुद्धि युद्ध की हिम्मत जुटा पाता है, अधर्म करने का बल अर्जित करता है. अन्यथा मानवता का व्यर्थ प्रलाप करने वालों को चुप्पी मारकर बैठ जाना चाहिए.

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.



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