एक निर्जन, असहाय भोर का सिरा
अँधियारी और अमानुषिक रात का छोर लिए
उदित हो रहा है,
एक उजली पहाड़ी की ओट लिए कुछ भेड़िये
एक आम आदमी की आत्मा का गोश्त नोच रहें हैं
एक क्षीण,जर्जर ,निढाल सी आत्मा थी वह
थोड़ी खुशी,कुछ सपने और जरा सी स्फूर्ति लिए
चाहती थी कि इन अवशेषों से
पुनरुज्जीवित होने का वह प्रयत्न करे
पर भेड़िये तो भेड़िये ठहरे
सूंघ लिया उस अंतर्मन को
और पुनरुज्जीवित करने का लोभ जगा
विनिमय कर लिया उन अवशेषों का
ये कंक्रीट के जंगलों के भेड़िये हैं
मानवता ,सुकून और शांति को नोंचकर
ये अँधेरे का प्रवाह करते हैं
अलग-अलग मजहबों,व्यक्तित्वों और चरित्रों को ओढ़कर
ये खुली धूप में निडर विचरते है
जारी है ...