श्रीमती कमला सकलेचा ज्ञान मंदिर मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले के भानपुरा गाँव में स्थित है। साल 2016 में इस स्कूल में मेरा तीसरा प्रवास पूरा हुआ। आईआईटी की तैयारी के लिए मशहूर कोटा शहर से डेढ़ घंटे की दूरी पर स्थित होने के बावजूद चम्बल नदी के किनारे बसा भानपुरा और आस पास के गाँव काफी पिछड़े हुए हैं। मार्च की गर्मी में सुबह की प्रार्थना के समय स्कूल की छात्राओं को सिर चकराकर गिरते देख महसूस होता है कि स्वास्थ्य और पोषण के मामले में ये ज़रा पीछे छूट गए हैं। मेरे बचपन की सहपाठी लड़कियाँ इनसे काफी सेहतमंद हुआ करती थीं।
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बहरहाल, ज्ञान मंदिर इस प्रान्त के अँधेरे से लड़ता एक विलक्षण स्कूल है। यहाँ के शिक्षकों से लेकर, पुस्तकालय और कंप्यूटर लैब तक शहरों के स्कूल को मात देने की क्षमता रखते हैं। मुंबई के एक उद्योगपति इस स्कूल को अपने गाँव में चलाते हैं, और आस पास के कई गांवों के बच्चों के लिए कम खर्चे में स्तरीय शिक्षा की आशा की लौ जलाए रखते हैं। इतना ही नहीं, इस स्कूल के बच्चों को हर साल ये कार्यशालाओं के माध्यम से देश भर के प्रतिभाशाली समाजकर्मी, रंगकर्मी, साहित्यकार, कलाकार, संगीतज्ञ, खिलाड़ी इत्यादि से प्रशिक्षण दिलवाते हैं, ताकि ये बच्चे केवल डॉक्टर, इंजीनियर बनने की होड़ से आगे निकल अपने जीवन की दिशा खुद तय कर सकें।
पिछले साल यहाँ कविता की कार्यशाला लेने के बाद से ही मैं यहाँ के कुछ बच्चों के साथ रचनात्मक और भावात्मक रूप से जुड़ गया था। इस साल की कार्यशाला और उनसे निकली 11 से 16 की उम्र के बच्चों की कविताओं ने इस गाँठ को पहले से अधिक मज़बूत ही किया है। चार दिनों तक चली इस कार्यशाला में इनके साथ न केवल हिंदी, बल्कि अंग्रेज़ी और अन्य भाषाओं की कविताओं से भी हम मुखातिब हुए। निराला और सर्वेश्वर से लेकर नेरुदा और शिम्बोर्स्का तक की कविताओं से इन बच्चों को जोड़ने का अनुभव मेरे लिए भी बेहद सुखद रहा।
इस कार्यशाला के दौरान मेरे द्वारा प्रस्तुत की गई अलग-अलग चुनौतियों पर इन बच्चों ने अपनी कविताएँ भी प्रस्तुत की। इनमें से कई कविताएँ इनके जीवन, संघर्षों, और विचारों की परिपक्वता दर्शाती हैं। इन्हीं कविताओं में से कुछ आपके समक्ष प्रस्तुत हैं –
मेरा घर
– नानक वाधवा, 13 साल
मेरे घर के बारे में क्या कहूँ?
न गैलरी
न हॉल
न छत
मेरे घर में है एक छोटी सी रसोई
और दो छोटे कमरे
शब्दकोष
– दीपाली भटनागर, 15 साल
यह लोगों का मेला है
लोग अलग हैं जिसमें।
भावनाएँ अलग हैं सबकी,
फिर भी साथ में बांधे जाते हैं।
कुछ अलग से भारी हैं,
कुछ हलके से लगते हैं।
विचार अलग हैं सबके,
फिर भी साथ में बांधे जाते हैं।
कभी एक दूजे से लड़ते हैं,
कभी साथ–साथ रहते हैं।
ख्वाहिशें अलग हैं सबकी,
फिर भी साथ में बांधे जाते हैं।
नए रिश्ते बन जाते हैं,
जब ये क्रम में जोड़े जाते हैं।
अर्थ अलग हैं इनके,
फिर भी साथ में बांधे जाते हैं।
गुड़िया
– जेसिका रेथुदिया, 13 साल
बच्चे मुझे बाज़ार से खरीद कर हैं लाते
मुझसे खेलते और बहुत खुश भी होते।
पर बच्चे खेलते–खेलते कभी मेरी आँख तोड़ते
कभी मेरा हाथ, तो कभी मेरा पांव
मुझे बहुत दुख होता
पर मैं कुछ नही बोल सकती।
फिर जब मैं पुरानी हो जाती,
तो रोड पर या कचरे के डिब्बे मे फेंकी जाती।
बहुत इंतज़ार करती, पर आता नही मुझे कोई लेने।
वहीं मुझे लोग कचरे के साथ जला देते।
बिना पत्ती का पेड़
– अश्प्रीत वाधवा, 11 साल
बिना पत्ती का पेड़ हूँ मैं
बिना रंग का चित्र हूँ मैं
न वर्षा ला पाऊंगा
ना ही हवा कर पाऊंगा
न ही लगता है मुझे कुछ अच्छा
न आएगा मौसम पतझड़ का
बिना सूरज का दिन हूँ मैं
बिना पत्ती का पेड़ हूँ मैं।
नदी से छोटा सागर
– पियूष विक्रम, 13 साल
सागर नदी से छोटा है, मगर फिर भी नदियाँ आकर सागर में आ मिलती हैं। सागर सोचता है, वह नदियों को कैसे संभालेगा? इतना सा होकर वह कैसे बचाए रखेगा अपना नमक? बड़ी–बड़ी नदियाँ आकर उसके पानी को मीठा कर देंगी। सागर सोचता रहा और नदियों का पानी उसके अन्दर तीव्र गति से भरता जा रहा था।
अगर मैं तितली होती
– पंखुरी गुप्ता, 12 साल
अगर मैं तितली होती
खुले आसमान में मैं भी उड़ती
फूलों पर मैं भी मंडराती
अगर मैं तितली होती
सब मुझे पकड़ते
पर किसी के हाथ न आती
बहुत ऊंचा मैं उड़ जाती
अगर मैं तितली होती
पंख फैलाए उड़ जाती
सब से बेखबर, बेपरवाह होती
मेरी अपनी अलग दुनिया होती
अगर मैं तितली होती।
यादों से भरा घर
– दीपाली भटनागर, 15 साल
वह एक पुराना घर
न जाने किस ज़माने का
छोटे छोटे दरवाज़े
और बड़ी बड़ी खिड़कियाँ।
जो झुक के न चले
तो दरवाज़े से सिर टकरा जाता था
घुमावदार सीढ़ियों पर तेज़ी से उतरने में
अलग ही मज़ा आता था।
घर की मंदिर से आती थी
घंटी की आवाज़
मानों भंवरा गुनगुना रहा हो कानों में।
लय में आरती गाती दादी
किसी से कम नहीं थी वो लय
लगता था मशहूर गायक
पधारा हो घर में।
दादा जी की थाली से
रोटी का टुकड़ा तोड़ लेना
बरामदे में रखे संदूक के पीछे जा छिपना…
कोरी रोटी भी
कितनी स्वादिष्ट लगती थी
दूसरा कौर खिलाने में
माँ की मेहनत लगती थी।
कैरी का अचार
और माँ की पायल की आवाज़
एक ही जैसी
होती थी।
क्योंकि पता नहीं क्यों
मैं उन्हें बिना देखे ही
पहचान लेती थी।
भंडारघर में रखे डिब्बे
जिनके पीछे बिल्ली छिपा करती थी
उसे भगाने के लिए
हमारी टोलियाँ पीछा करती थीं।
भाइयों के साथ जब
आँख मिचोली खेलती थी
कभी गिरती, कभी रोती
कभी चोरी से उन्हें पकड़ लेती थी।
और कभी उन्हीं भाइयों से
झगड़ा भी कर बैठती थी।
थोड़ा इंतज़ार करें
– अंशुल कोतवाल, 13 साल
थोड़ा इंतज़ार करें –
मैं बनूँगा प्राणियों का जीवन
दूंगा में सबको फल–फूल
पक्षी बनाएँगे मुझ पर घोंसला
दूंगा मैं जड़ी बूटियाँ
मैं बनूँगा परोपकार की छाया
बीज सौंपूंगा धरती को
आपसे है मेरी यही विनती
थोड़ा इंतज़ार करें –
मत काटो आप मुझे।
आँख
– अंशुमती चौहान, 12 साल
देखा सारी दुनिया को
देखा प्यारे बच्चों को, देखा मन के सच्चों को
देखें हैं मैंने लाखों सपनों को
प्यारे–प्यारे अरमानों को
देखा है मैंने सारे सुख–दुख को
खुशी–खुशी सहा है मैने गम को और खुशी को
प्यारी–प्यारी नन्ही सी हूँ
देखूंगी सारे जग को
देखा है लोगों ने मुझे
देखूंगी मैं लोगों को
देखा है मित्रता ने मुझे
देखा है शत्रु ने मुझे
सच्चाई ने देखा है मुझे
देखा है झूठ ने मुझे
प्यारी–प्यारी नन्ही सी हूँ
देखूंगी सारे जग को
बचपन की यादें
– रानू मंडिल्य, 12 साल
जब जाती हूँ रसोई में
आती है याद बचपन की
कभी छिपकर माँ के पीछे
करते थे धमाचौकड़ी
जब जाती हूँ स्टोर रूम में
आती है याद पुरानी चीज़ों की
एक खिलौना था जो टूट गया
वो गाता था, मैं हंसती थी
जब जाती हूँ स्टडी रूम में मैं
घुस जाती हूँ कहानियों की किताबों में
जैसे जीने की वजह
कुछ और नहीं बस यही है
बगीचे में जाती हूँ
तो ऐसा लगता है कि
खेल कूद के अलावा
दुनिया में कुछ नहीं
जब मैं सोती हूँ
तो मीठे मीठे सपने
नाना नानी की
याद दिलाते हैं
खिड़की के बाहर
नीले आसमान जब देखती हूँ
मन करता है कि
ऊंचे बादलों को छू लूं
एक पागल कुत्ता
– दीपाली भटनागर, 15 साल
एक था पागल कुत्ता
जो काट चुका था
इंसान को
इंसान के गुण
कुत्ते में आए
कुत्ते के गुणों ने
प्रवेश किया था इंसान में
अब पकड़ने के लिए उसे
पीछे पड़े हैं लोग
पर वो है कि
पकड़ में ही नहीं आता
वो घूमता है दर दर भटकता हुआ
कोई मारता है डंडे से
तो कोई पागल जानकर
उससे बचता हुआ
कोई भी जानवर उससे
दोस्ती नहीं कर रहा
न जाने क्यों
यह सोच वह बिखर रहा
सोचा उसने बनाऊंगा
अलग से अपना ठिकाना
पर न किसी ने अपनाया उसे
न किसी ने दिया खाना
थक कर मान ली हार उसने
वो तो आखिर एक इंसान ही था
जो कर रहा था कोशिश
एक पागल कुत्ते के नज़रिए से
दुनिया को देखने की
क्रिकेट मैच
– आफरीन शेख, 14 साल
मैच था घर में
क्रिकेट था घर में
उद्धम मचा रखी थी सबने
इधर से चौका
उधर से छक्का
धूम मचा रखी थी सबने
कोई कहता ऐसे मारो
कोई कहता वैसे मारो
कभी बॉल किचन में जाती
कभी बॉल कमरे में जाती
बॉल के पीछे भागते हुए
हम दादा जी के कमरे में जाते
कमरे में धमाचौकड़ी तोड़–फोड़
डांट पड़ती,
और पूछा जाता –
‘कितने रन बनाए बेटा?’
सब जोर से हँसते
और वापस खेलने लग जाते
जाकर देखा किचन में तो
बॉल ने मचा दिया था उद्धम
तोड़ दिया था जार अचार का
और बैठी थी चुपचाप, बिना डरे, बिना घबराए
बॉल फिर उछली !
और लौट गई अपने बैट के पास
एक बार फिर मैच हुआ चालू
और फ़ैल गई घर भर में अचार की खुशबू।
चिड़िया
– आयुषी मान्डिल्य, 16 साल
चिड़िया उड़ती है घर भर में
न है उसका कोई ठिकाना
वह बालकनी की हवा समेट कर
देखती है संसार को
कभी जाती है हॉल में
वहां बैठे रहते हैं घर के सभी लोग
चिड़िया को पसंद हैं घर के लोग
जो चहकते हैं शाम को चिड़िया की तरह
कभी जाती है वह रसोई घर
वहां जाकर वह चुनती है तिनका
और उंनसे करती है चिड़िया तिनके
अपने घोंसले की तैयारी
कभी जाती है दादाजी के कमरे में
नहीं पसंद उन्हें कोई भी आवाज़
उड़ा देते हैं चिड़िया को वे
ज़ोर से हाथ झटककर
कभी जाती है वह भण्डार घर
वहां रखे जाते हैं बेकार के सामान
मगर चिड़िया को यह कमरा है सबसे अधिक पसंद
यह है उसके छुपने का स्थान
चिड़िया जाती है अतिथि कक्ष
कमरा अलग थलग सा है पूरे घर में
सुनसान, यहाँ नहीं आता कोई भी मेहमान
यहाँ चिड़िया अपना घोंसला बनाती है।
जूता
– कृष्ण कला, 13 साल
जब उस ज़िन्दगी से छुटकारा चाहिए
तो कोई मतलब नहीं है जीने का
मैं हर वक़्त बस लोगों के लिए देता हूँ कुर्बानी
फिर भी लोग मुझे कूड़ेदान में फेंककर
कहते हैं बर्बादी
लोगों के लिए सहता हूँ सब कुछ
चाहे कीचड़ हो या हो कांटे
कमल खिलता है कीचड़ में
फिर भी वह है राष्ट्रीय फूल
फिर क्यों नहीं हूँ मैं ‘राष्ट्रीय वस्तु’?
हर पल रहता हूँ इंसान के साथ
फिर क्यों वे बना देते हैं मुझे अपना दास?
लोगों से है विनती मेरी
मत छोड़ो मेरा साथ
रहूँगा हर पल साथ तुम्हारे
बस बना दो मुझे थोडा ख़ास।
पेड़
– भूमि नाहर, 11 साल
हवा देने वाला पेड़
फल देने वाला पेड़
फूल देने वाला पेड़
जन्म देने वाला पेड़
हर तरफ हरियाली कर दे
हरा रंग दुनिया में भर दे
खुद का न सोच हमारी सोचे
जो मांगूं वो मिलता मुझको
सबकुछ सहने वाला पेड़
खड़ा रहने वाला पेड़
कठोर पेड़ निराला पेड़
छाया देने वाला पेड़।
ट्रेन
– आयुषी मान्डिल्य, 16 साल
ट्रेन बस चलती जाती है
रुकावटें बहुत आती हैं
मुसाफिरी जैसी यादें हैं
सबकी अलग मंज़िलें हैं।
सामान मानो बोझ है
दूसरे मुसाफिर मित्र हैं
हॉर्न है किस्मत का ताला
इंजन जैसे बचपन सारा
कोई आता है, फिर चला जाता है
घाव गहरे छोड़ जाता है
टकरा जाए अगर किसी से तो
ज़िन्दगी का सिलसिला टूट जाता है।
क्या हो गई सुबह?
– अश्प्रीत वाधवा, 11 साल
नींद से उठी मैं
देखा सूरज सामने
खड़ी हुई बिस्तर से जब
देखा उल्लू बाग़ में
सोच रही थी सुबह हुई या रह गई रात?
बाईं ओर देखा तो चाँद भी दिख गया साथ
इधर भी देखा उधर भी देखा
कोई न दिखा अपना
तभी लगा शायद यह है
मेरा अजीब सपना
न थी मेरे पास कोई पहचानने की वजह
सतरंगी आसमान के ओर ताकती
बस बैठे–बैठे सोचती रही मैं –
क्या हो गई सुबह?
रोड
– कार्तिक गुप्ता, 13 साल
मैं हूँ एक रोड
फैला हूँ पूरे विश्व में
गुज़रते है लोग मुझपर
मैं हूँ एक रोड
सब चाहते हैं मुझे
कि मैं रहूँ हर जगह
बातें करता मैं गाड़ियों से
पूछता – कहाँ जा रहे हो?
स्वर्ण मंदिर
– नानक वधवा, 10 साल
मैं स्वर्ण मंदिर हूँ
मेरे अंदर गुरूनानक का निवास है।
मेरे अंदर सुबह शाम गुरू ग्रन्थ साहिब का पाठ होता है।
मेरे अंदर कई लोग मत्था टेकने के लिए आते है।
मै सोने का बना हूँ।
मै स्वर्ण मंदिर हूँ।
बरतन
– दीपाली भटनागर, 15 साल
कुछ खट–पट हुई है,
कुछ शोर मचा है।
लगता है जैसे घर में
तूफ़ान मचा है।
पड़ोसी घर से बहार निकले,
पूछ रहे हैं – क्या हुआ यह?
क्या कबाड़ वाला फिसल गया है,
या घर के लोग लड़ रहे?
कैसी है यह धड़ाम–धूम,
कुछ ज़ोर से बज रहा है।
अरे!
यह तो घर के बरतन हैं,
उन्हीं का यह शोर मचा है।
माँ के हाथ के खाने का,
हमसे पहले कोई स्वाद चख लेता है।
वो घर के बरतन ही तो हैं,
जिसमें, पकवान परोसे जाते हैं।
आज वही थाली उलटी गिरी है,
कटोरी थोड़ी टेढ़ी हुई।
गिलास लोट रहा है ज़मीन पर,
चम्मच शायद, कहीं छिप गयी।
आज शायद रसोई में,
माँ नहीं कोई और है।
वरना माँ घर के बरतन,
आसानी से संभाल लेती।
कार्यशाला की कुछ तस्वीरें –