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आम आदमी को गुस्सा क्यों नहीं आता?

देश के युवा सांसद और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को आम आदमी की बदहाली गुस्सा आता है, भाजपा की फायर ब्रांड नेता उमा भारती रिटेल सेक्टर में एफडीआई पर सरकार के निर्णय से इतनी गुस्सा हो जाती हैं कि वो अपने हाथों वालमॉर्ट के स्टोर में आग लगाने की बात करती हैं, ऐसे में प्रतिक्रिया स्वरूप यह सवाल उठता है कि राहुल गाधीं, उमा भारती और तमाम दूसरे नेताओं को जिस आम आदमी की बदहाली और दुर्दशा पर गुस्सा आता है, आखिरकर खुद उस आम आदमी को अपनी बदहाली पर गुस्सा क्यों नहीं आता है?

गौरतलब है कि नेता के कर्मां का कुफल ही देशवासी गुजरे छह दशकों से भोग रहे हैं, और उस पर तुर्रा यह है कि गुस्सा भी उन्हीं नेतोओं को ही आ रहा है। देश की जनता का ध्यान मुख्य समस्याओं और अपने कुकर्मों से बंटाने के लिए नेता जनता को भाषा, धर्म, जात, बिरादरी और दूसरे तमाम तरह के मसलों में उलझाए रखने की साजिषें रचने वाले तथाकथित नेता और प्रतिनिधि अपने कर्मों पर शर्मिन्दा होने की बजाए गुस्से का नाटक कर आम आदमी से क्रूर मजाक ही तो कर रहे हैं।

असल में ये सवाल तो जनता की ओर से उछलना चाहिए था लेकिन राजनीति ने आम आदमी से उसका ये सवाल भी बड़ी चालाकी से छीन लिया। देश का आम आदमी आजादी के 64 सालों बाद भी षिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, स्वच्छ पेयजल और षौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। आजादी से अब तक अगर घोटालों, कांडों और सरकारी खजाने की लूट का हिसाब जोड़ा जाए तो उतने पैसे से सुविधासंपन्न और विकसित एक नया भारत बसाया जा सकता था, लेकिन विडबंना यह है कि इस देश में भुखमरी, बदहाली, शोषण का शिकार जो वर्ग है उसे पिछले 64 सालों एकाध बार ही हल्का-फुल्का गुस्सा आया है। और इस पर भी गुस्सा आने का अभिनय वो जमात कर रही है जो जनता की बदहाली, भुखमरी और विकास को जाम करने की असली गुनाहगार है।
आखिरकर आम आदमी को गुस्सा क्यों नहीं आता है, ये सवाल सोचने पर मजबूर करता है। क्या जनता इन हालातों से समझौता कर बदहाली में जीने के आदी हो चुकी हैं? क्या वर्तमान हालातों को जनता अपनी नियति मान बैठी हैं? क्या हमारे मन में यह धारणा गहरे पैठ चुकी हैं कि शक्तिषाली सत्ता के समक्ष हम कमजोर, अक्षम और बौने हैं? क्या हम यह समझने लगे हैं कि संविधान ने वोट देने के अलावा कोई दूसरी बड़ी ताकत या अधिकार हमे नहीं दिया है? क्या हम यह मान बैठे हैं कि हम इस कुटिल, भ्रष्ट और चालाक व्यवस्था से जीत नहीं पाएंगे? क्या हम यह मानने लगे हैं कि हमारे चिल्लाने, धरना-प्रदर्शन और विरोध का कुछ भी असर बेशर्म और मोटी चमड़ी वाली व्यवस्था पर नहीं होगा? क्या हमें यह लगता है कि हम अपने चुने हुए प्रतिनिधियों, तथाकथित नेताओं और मंत्रियों से कुछ पूछने के हकदार नहीं हैं? कहीं न कहीं कुछ न कुछ समस्या तो जरूर है जो इतनी दुर्गति और बदहाली के बाद भी जनता चुप है और उसे सरकार की बेशर्मी, बेईमानी और जनविरोधी नीतियों पर गलती से भी गुस्सा नहीं आता है।

आजादी के पूर्व हम जिन आदर्शों की बात करते थे, आजादी के बाद उनका पालन करन तो दूर उन्हें भुला ही बैठे। मूल्यों के क्षरण के चरण की शुरूआत ने राजनीति का अपराधीकरण या यूं कहें कि अपराध का राजनीतिकरण कर दिया। जनतंत्र माखौल बनकर रह गया। जनतंत्र में जनता ही सबसे अधिक उपेक्षित हो गई। जनहितों की अनेदेखी की जाने लगी एवं नौकरषाही लालफीताषाही बढ़ती गई। आजादी के बाद सबसे बड़ी त्रासदी यह रही कि हमने औपनिवेषिक कानूनों-कायदों के ढांचे का अनुसरण किया, उसे जनता पर लादा। बदले हालातों एवं जरूरतों के हिसाब से कानून-कायदों का भारतीय माडल तैयार नहीं किया गया।  यानी सूरत तो बदली, मगर सीरत नहीं। भारतीय पुलिस का बर्बर चेहरा हुकूमत-ए-बर्तानिया की पुलिस को भी मात दे रहा है। विधायिका, न्यायापालिका और कार्यपालिका ने मिलकर देश में ऐसा वातावरण बना दिया है कि देश का आम आदमी सरकार और सरकारी मषीनरी के सामने अपने अधिकारों और बुनियादी सुविधाओं के लिए ऐड़िया घिसटता दिखाई देता हैं। चुनाव के समय मुंह दिखाने के बाद अगले पांच साल तक नेता ये जानने की जहमत नहीं उठाते हैं कि जिस जनता की वोट से वो इतने ताकतवर बने है वो जनता किस हाल में जीवन बसर कर रही है।

सरकारी कागजों में विकास के आंकड़ें और सुनहरे सपने साकार होने के करीब हैं, लेकिन जमीनी हकीकत इतनी भयावह और विषम है कि जिसे देख-सुनकर आपका कलेजा बैठ जाएगा। आजादी के बाद इस देश के आम आदमी को आष्वासनों के लालीपॉप के अलावा कुछ खास हासिल नहीं हुआ है। गांव, किसान और खेतीबाड़ी की दुर्दषा किसी से छिपी नहीं है। मजदूर दो जून की रोटी के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं। खेती-बाड़ी के प्रति सरकार की उदासीनता से किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और बेरोजगार जुर्म और जरायम की दुनिया की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। महिलाओं के प्रति अपराध, हिंसा, भू्रण हत्या का पारा ऊपर चढ़ता दिख रहा है। लेकिन तमाम परेषानियों और समस्याओं के बाद देश की जनता की चुप्पी और अपनी बदहाली पर गुस्सा न करना ये सोचने को मजबूर करता है कि आखिरकर देश की जनता को गुस्सा क्यों नहीं आता है ?

वहीं आजादी से लेकर आज तक आम आदमी के दुःख-दर्दे और समस्याओं को खुद जनता बजाए राजनीतिक दलों ने अपने वोट बैंक की मजबूती, राजनीतिक गुणा-भाग और विरोधियों को घेरने के लिए एक हथियार की तरह प्रयोग किया। असल बात यह है कि जनता को खुद-ब-खुद अपनी बदहाली तब तक पता नहीं चलती जब तक कोई नेता, पत्रकार य समाजसेवी उसे उसके बारे में नही बताता। जन लोकपाल बिल, भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ अन्ना और रामदेव की पहल ने बरसों से सो रही जनता को जगाने का नेक काम किया, लेकिन कोई कब तक हमें हमारे ही दुख-दर्दे और बदहाली के बारे में बताएगा। असलियत यह है कि देश का आम आदमी मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से त्रस्त है। तस्वीर का सुंदर स्वरूप तभी सामने आएगा जब जनता खुद सरकार की गलत, जन और देश विरोधी नीतियों और निर्णयों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करेगी, उसी दिन लोकतंत्र की वास्तविक संकल्पना और अवधारणा साकार होगी।


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