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सरकार किसानों की हालत में कैसे सुधार करेगी?

       नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल की पहली कैबिनेट मीटिंग में यह फैसला किया है कि किसान सम्मान निधि योजना के तहत अब सभी किसानों को सालाना 6,000 रुपये मिलेंगे। साथ ही किसानों के लिए पेंशन योजना का ऐलान भी किया गया है।
बीजेपी ने अपने चुनाव संकल्प पत्र में इस योजना में सभी किसानों को शामिल करने का वादा किया था, जिस पर पहली ही कैबिनेट मीटिंग में मुहर लगाई गई, लेकिन क्या इससे किसानों की मौजूदा स्थिति में सुधार हो जाएगा? कृषि संकट का समाधान, किसानों की पैदावार और उनके आर्थिक हालात को बेहतर बनाना मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है।
अपने दूसरे कार्यकाल में उसे इस पर बहुत गंभीरता के साथ ध्यान देना होगा। विशेषज्ञों की राय है कि कृषि संकट इतना विकराल रूप धारण कर चुका है कि उसमें सुधार के लिए सरकार को तुरंत उपाय सोचने होंगे। कृषि मामलों के विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा कहते हैं, नीति आयोग ने भी माना है कि पिछले दो साल यानी 2017-18 में किसानों की आय में वास्तविक बढ़ोतरी लगभग शून्य हुई है. उसके पिछले पाँच सालों में देखें तो नीति आयोग का मानना है कि उस दौरान किसानों की आय में हर साल आधा प्रतिशत से भी कम बढ़ोतरी हुई है। यानी सात सालों से किसानों की आय में वृद्धि न के बराबर हुई है। तो इसका मतलब खेती का संकट बहुत गहरा है।

जल संकट सबसे बड़ी समस्या

कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि देश में किसानों की स्थिति सुधारने के लिए सबसे बड़ी जरूरत है कि इंफ्रास्ट्रक्चर में खर्च किया जाना चाहिए। पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन कहते हैं कि नए कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी कि पानी की समस्या का समाधान कैसे किया जाए।
हुसैन कहते हैं, पानी की कमी पर ध्यान देने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि वे लॉन्ग टर्म योजनाएँ बनाए। पानी बचाने, उसके बेहतर उपयोग करने और साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश करना जरूरी है। किसानों के पास पानी कितना पहुँचा है इसका डेटा रिलीज किया जाना चाहिए। इससे ज्यादा लोग रिसर्च कर सकेंगे और इससे सरकार की नीतियां बेहतर हो सकेंगी। सिंचाई के अलावा कृषि सुधारों की दिशा में वर्ष 1995 में लागू किए गए आवश्यक वस्तु अधिनियम में आमूल संशोधन की जरूरत है. बाजार में कोल्ड स्टोरेज में निवेश की जरूरत है।
वे कहते हैं, यदि मुझसे यह पूछा जाये कि सबसे बड़े तीन सुधार कौन से होने चाहिए तो मैं कहूँगा पानी-पानी और पानी। पानी की समस्या कितनी विकराल रूप ले रही है इस पर छत्तीसगढ़ में किसानी कर रहे आशुतोष कहते हैं, जल संकट सबसे बड़ी समस्या है। फसल को पानी चाहिए लेकिन इसकी उपलब्धता मॉनसून पर निर्भर है। बीज कब बोएँं इसकी निर्भरता मानसून पर है। तमाम दावों के बावजूद अभी तक सिंचाई की वैसी व्यवस्था नहीं हो सकी है जैसा कि एक किसान को चाहिए। फसल को जिस दिन पानी की जरूरत है वह उस दिन उसे उपलब्ध नहीं हो पाती। जमीन में पानी का स्तर (वाटर लेवल) बहुत नीचे जा रहा है. समुचित पानी नहीं मिल पाने से किसान की पैदावार पर और उसकी कमाई पर इसका असर दिखता है।

नहीं मिलती फसल की सही कीमत

ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट की रिपोर्ट के मुताबिक 2000-2017 के बीच में किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ क्योंकि उन्हें उनकी फसलों का समुचित मूल्य नहीं मिला।
छत्तीसगढ़ में किसानी कर रहे आशुतोष कहते हैं, एक किसान के रूप में अच्छे बाजार की जरूरत होती है। किसान को उसकी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पाता। 
देवेंद्र शर्मा कहते हैं, ये किसान इतने दशकों से कैसे गुजारा करते होंगे, क्या हम इसे समझ सकते हैं।
वे कहते हैं कि कई दशकों से वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की आर्थिक सोच के मुताबिक हम अपनी आर्थिक नीतियाँ बनाते रहे और उन नीतियों को व्यावहारिक बनाने के लिए कृषि को हाशिये पर रखा जा रहा था।
उनका कहना है, आर्थिक सुधार तभी व्यावहारिक बने रहेंगे जब हम किसानों को उनका हक न दें। उसके दो कारण हैं-महँगाई को नियंत्रण में रखना और उद्योग को कच्चा माल सस्ते में उपलब्ध कराना। तो इन दो कारणों को पाने के लिए किसानों को जानबूझ कर गरीब रखा गया. कहीं भी हमारे देश में यह नहीं सोचा गया कि उसके हक के हिसाब से उसकी आय बढ़नी चाहिए। किसान कर्ज लेता है और उसके बोझ तले दब जाता है, आत्महत्या के लिए मजबूर होता है। इस आर्थिक डिजाइन को तोड़ना पड़ेगा।
ग्रामीण सड़क योजना के तहत हो रहे सड़क निर्माण में बरती जा रही कथित अनियमितता की शिकायतें की जा रही हैं।

इंफ्रास्ट्रक्चर गांव से पलायन रोकने में कारगर

इकोनॉमिक स्टेटस की बात करें तो ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि 73 फीसदी दौलत देश के 1 फीसदी लोगों के पास है। यानी स्थिति यह है कि अमीर और अमीर जबकि गरीब और गरीब होता जा रहा है।
वहीं 2016 के आर्थिक सर्वे में किसान परिवार की 17 राज्यों में आय 20 हजार रुपये सालाना से कम है यानी 1,700 रुपये मासिक या लगभग 50 रुपये दैनिक. सवाल है कि इस आय में कोई परिवार कैसे पलता होगा?
देवेंद्र शर्मा कहते हैं, आर्थिक डिजाइन की सोच यह कहती है कि किसानों को खेती से बेदखल किया जाये और शहर में लाया जाये क्योंकि शहरों में सस्ते मजदूरों या दिहाड़ी मजदूरों की जरूरत है। यदि इकोनॉमिक डिजाइन यह कहता है कि किसानों को गाँव से निकाला जाए और शहर लाया जाए।
लेकिन सिराज हुसैन उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं, कृषि पर जरूरत से ज्यादा आबादी निर्भर है लेकिन ज्यादातर किसान खुद खेती नहीं करते हैं। इससे कृषि की लागत बढ़ रही है, तो कृषि के अलावा जिन क्षेत्रों में रोजगार मिल रहा है वे उस ओर जा रहे हैं तो इसमें बुराई नहीं है. लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान दें, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा पर खर्च करें तो पलायन कम होंगे। देश में केरल के राज्य से कम पलायन होता है जबकि यूपी जैसे राज्यों से पलायन आम है।
छत्तीसगढ़ के शिक्षित किसान आशुतोष भी कहते हैं, छोटे किसानों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर का अभाव भी एक बहुत बड़ी समस्या है। गाँव तक जो सड़क की पहुँच बहुत अच्छी नहीं होती है। जैसे कि अपने खेत से फसल निकालना है और बारिश हो गयी तो आप उस दिन उसे नहीं निकाल सकते।
बेरोजगारी बड़ा संकट
एनएसएसओ की लीक हुई रिपोर्ट को सरकार ने गलत बताया था, लेकिन अब सरकार ने खुद मान लिया है कि जॉब क्रिएशन अपने निम्नतम स्तर पर आ गयी है यानी नई नौकरियां न के बराबर आ रही हैं।
देवेंद्र शर्मा कहते हैं, उस रिपोर्ट के मुताबिक 2011-12 से 2017-18 के बीच में गाँव के तकरीबन सवा तीन करोड़ अनियमित मजदूर अपनी नौकरियाँ खो चुके थे और इनमें से तीन करोड़ खेतिहर मजदूर थे। यानी खेतिहर मजदूरों में 40 फीसदी गिरावट आयी है। कुछ आर्थिक विशेषज्ञों ने शोध किया और देखा कि 2011-12 से 2015-16 के बीच में उत्पादन के सेक्टर में भी नौकरियों में कमी आयी है। वहाँ इस दौरान नौकरियों में करीब एक करोड़ की कमी आयी है।
रोजगार के अवसर पैदा हों, इसकी जरूरत है। अर्थव्यवस्था में वृद्धि होगी तो माँग बढ़ेगी, माँग होगी तो क्षमताओं का उपयोग होगा और उद्योग का लाभ बढ़ेगा। इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना आसान नहीं होता।
वहीं देवेंद्र शर्मा कहते हैं, खेती में पैसा नहीं है, उसके मजदूरों के पास काम नहीं है। चुनाव के नतीजे आने के बाद से देश में एक माहौल सा बनाया जा रहा है कि सरकार आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करेगी क्योंकि जीडीपी ग्रोथ 6 प्रतिशत से भी कम पर आ गई है। निवेश बढ़ाये जाने की बात चल रही है। कहा जा रहा है कि जीडीपी ग्रोथ को आगे बढ़ाने से रोजगार बढ़ेगा। निवेश निजी क्षेत्र में आना चाहिए। वही सब जो पूरी दुनिया में विफल रहा है उसकी बात एक बार फिर की जा रही है, जैसे कि देश के सामने कोई विकल्प नहीं है।
भारत में करीब 3 करोड़ किसान गन्ने की खेती करते हैं
सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास कृषि संकट से उबरने के लिए क्या किया जाना चाहिए। इस पर देवेंद्र शर्मा कहते हैं, मेरे विचार से प्रधानमंत्री ने जो कहा है कि सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास ही एक रास्ता है।
वे कहते हैं कि, नोबेल विजेता जोसेफ स्टिग्लिज ने कुछ दिन पहले कहा है कि नियोलिब्रलिज्म पूरी दुनिया में विफल रहा है। न्यूजीलैंड ने आर्थिक वृद्धि को लेकर अपनी राजनैतिक प्राथमिकता को बजट में दरकिनार करते हुए सुखी समाज को वरीयता दी है। न्यूजीलैंड एक विकसित देश है। चीन ने कई साल पहले उनके हाई ग्रोथ रेट को छोड़ देने का संकल्प लिया था। उन्होंने 7 फीसदी के आसपास अपनी ग्रोथ को बनाए रखने की बात कही थी क्योंकि जिस ग्रोथ रेट पर वे जा रहे थे उससे पर्यावरण का इतना नुकसान हुआ कि चीन को उसका खामियाजा दिखना शुरू हो गया था।
वे कहते हैं कि, हम चीन के मॉडल को लेकर चलते हैं, लेकिन चीन की सरकार 2018 में अपने 70 लाख लोगों को गाँव में लेकर गई उनमें से 60 फीसदी लोग वहीं रह गए अब वे ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार को मजबूत बनाने में लगे हैं। हर साल यूनिवर्सिटी के छात्रों को गाँव में लेकर जाने पर करोड़ों रुपये खर्च कर रहे हैं। चीन इस बात को समझ रहा है। दुनिया में जो हो रहा है हम उससे 10 साल पीछे चल रहे हैं।
देवेंद्र शर्मा कहते हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आर्थिक लॉबी से निकलना होगा। सबका साथ, सबका विकास कैसे हो यह देखना जरूरी होगा। कृषि में निवेश चाहिए, लेकिन किसानों के पास बाजार नहीं है। किसान अपने उत्पाद लेकर जाएँ तो कहाँ। उसे वह सड़कों पर फेंकता है। टमाटर, आलू, प्याज को सड़कों पर फेंकने की घटना हम सब देखते आये हैं। तो निवेश कृषि में क्यों नहीं जाता है?
रिजर्व बैंक का आँकड़ा कहता है कि 2005-06 और 2015-16 के बीच कृषि में निवेश जीडीपी का 0.3 और 0.5 फीसदी के बीच हुआ है। कृषि क्षेत्र में 60 करोड़ लोग खेती से सीधे या परोक्ष रूप से जुड़े हैं। भाजपा के घोषणा-पत्र में अगले पाँच साल में 25 लाख करोड़ निवेश की बात की गई है।
इस पर देवेंद्र शर्मा का कहना है कि सरकार गंभीर हो कर 5 लाख करोड़ रुपये हर साल कृषि क्षेत्र में लगाए। वे कहते हैं, कृषि उपज मंडी समिति (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी यानी एपीएमसी) के मुताबिक देश में इस वक्त 7,600 मंडिया हैं। जबकि यदि हम हर पांच किलोमीटर के दायरे में एक किसान को मंडी उपलब्ध कराना चाहते हैं तो जरूरत 42 हजार मंडियों की है। यह निवेश मंडियों को बढ़ाने में किया जाना चाहिए। गोदाम बनाएँं ताकि उत्पाद बेकार न हों।

दुनिया में सबसे अधिक चीनी भारत में ही बनती है

कॉरपोरेट सेक्टर में सब्सिडी सबसे अधिक लेकिन माहौल कुछ और...देवेंद्र शर्मा कहते हैं, एक माहौल बनाया गया है कि कृषि क्षेत्र आर्थिक गतिविधि नहीं है। यह पूछा जाता है कि कृषि में लगाने के लिए पैसे कहां से आएँगे। यह कहा जाता है कि कॉरपोरेट जब तक विकास नहीं करेंगे और उनसे टैक्स नहीं मिलेगा तब तक हम कृषि में पैसा कहाँ से लगाएँंगे। आज तक हमारा सबसे अधिक सब्सिडी वाला क्षेत्र कॉरपोरेट सेक्टर रहा है।
वे कहते हैं, 2005 से अब तक उन्हें 50 लाख करोड़ रुपये से अधिक की टैक्स में छूट मिल चुकी है। एक अध्ययन के मुताबिक अगर एलपीजी की सब्सिडी खत्म कर दी जाए तो 48 हजार करोड़ रुपये बचते हैं और इससे एक साल की गरीबी मिट सकती है। अगर कॉरपोरेट सेक्टर से इन 50 लाख करोड़ रुपये के टैक्स लिये गए होते तो इस हिसाब से हम 100 साल की गरीबी मिटा सकते थे। पिछले 10 सालों में बैंकों का 7 लाख करोड़ रुपये माफ किया गया तो किसी ने ये सवाल किया कि इससे राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा। यदि इनमें से आधा भी कृषि क्षेत्र में लगाएँ तो विकास की गति बहुत तेजी से आगे बढ़ेगी।

क्या करने की जरूरत है?

देवेंद्र शर्मा कहते हैं, दो चीजें करने की जरूरत है। लोगों को गाँव से निकाल कर शहर में लाना यह विकास का मॉडल नहीं है। हमें उन्हें संपन्न करने की जरूरत है। इससे माँग पैदा होगी। इससे उद्योग या एफएमसीजी उत्पादों की माँग बढ़ती है इससे उद्योग का पहिया स्वतः चल पड़ेगा। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को उद्योग के लिए बूस्टर डोज बताया जा रहा है लेकिन यदि गांव पर ध्यान दिया गया तो वह ग्रोथ का रॉकेट डोज होगा क्योंकि उससे इतनी माँग बढ़ेगी कि हमारी इकोनॉमी बहुत तेजी से दौड़ेगी। अभी हम 7 फीसदी के आसपास हैं, वैसा करने से हम 14 फीसदी तक भी पहुंच सकते हैं।
फरवरी में अंतरिम बजट पेश करते हुए रेहड़ी-पटरी वाले, रिक्शा चालक, कूड़ा बीनने वाले, खेती कामगार, बीड़ी बनाने वाले जैसे असगंठित क्षेत्र से जुड़े कामगारों को 60 साल की उम्र के बाद तीन हजार रुपये प्रति महीने की पेंशन देने का ऐलान किया गया था. शपथग्रहण के एक दिन बाद ही शुक्रवार को एक टीवी चौनल को श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने बताया कि मोदी सरकार ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को तीन हजार रुपये की मासिक पेंशन देने की फाइल पर साइन कर दिए है। 
देवेंद्र शर्मा कहते हैं कि पीएम-किसान पेंशन योजना को और सुदृढ़ किए जाने की जरूरत है। वे कहते हैं, इंडस्ट्री के लिए ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की बात की जाती है, लेकिन किसानों के लिए ईज ऑफ डूइंग फार्मिंग की बात क्यों नहीं की जाती है। मंडी हो, उत्पादन हो या पीएम फसल योजना में मुआवजा ही लेना हो किसानों को हर कदम पर दिक्कतें आती हैं। किसानों की ये समस्याएं खत्म हो जाएँगी तो इकोनॉमी दौड़ेगी।
यानी कृषि को संकट से उबारने के लिए सरकार को इस क्षेत्र में निवेश, जल संकट, इंफ्रास्ट्रक्चर केम साथ ही शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म कई बड़े फैसले लेने पड़ेंगे। कुल मिलाकर कृषि में सुधार का रास्ता गांव के रास्ते ही जाएगा।
-अभिजीत श्रीवास्तव
-साभार


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