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bareli ka peda part - 5




बरेली का पेड़ा - 5 



विजय - जी मैडम 
त्रिशा - एक गुजारिश है आपसे 
विजय - बताइये 
त्रिशा - प्लीज आप मुझे मैडम ना कहे 
विजय - क्यों मैडम 
त्रिशा - देखा फिर मैडम 

विजय - नहीं मैडम वो बात ऐसी है की .... 
त्रिशा बीच में ही बात को काटते हुए 
- आपका मैडम कहना ऐसा लगता है जैसे मैं कोई बुढ़िया हो गई हूँ। 
विजय - ऐसी बात नहीं है मैडम 
त्रिशा - देखा फिर मैडम , अगर आपको लगता है की मैं बुड्ढी और खड़ूस हूँ तो आप मुझे मैडम कह सकते है। 
विजय - नहीं ऐसी बात नहीं है आप हमारी कम्पनी की मालकिन है इसीलिए मैं कहता था लेकिन अगर आप की यही इच्छा है तो ठीक है मैं आपको त्रिशा जी कहकर ही बुलाऊंगा। 
त्रिशा - अब हुई न सही बात 

विजय की नजरे झुक जाती है। 

त्रिशा  वेटर को बुलाती है और उसे टमाटर का सूप और गोभी के परांठे लाने को कहती है। 

विजय अचानक ही बोल उठता है - आपको कैसे पता की मुझे गोभी के परांठे पसंद है.
त्रिशा विजय की तरफ अचंभित नेत्रों से देखती है - अच्छा आपको भी गोभी के परांठे पसंद है मैंने तो अपनी पसंद का डिनर मंगवाया था। 

विजय मन ही मन ही मन सोचता है की इस लड़की को तो आज की लड़कियों की  तरह पिज्जा या अन्य विदेशी  व्यंजनों से लगाव होना चाहिए पर इसे तो शुद्ध देशी व्यंजन  ही पसंद है। 

विजय - जी बरेली में मां के हाथो के गोभी के परांठे मुझे हमेशा ही पसंद रहे है। 
त्रिशा - खुशनसीब है आप विजय जी जो आप की माँ आपके साथ है मैं तो बहुत छोटी थी तभी माँ का साथ छूट गया। पापा ने ही उनकी कमी पूरी करने की कोशिश की पर एक माँ की ममता तो एक माँ ही दे सकती है।कहते हुए त्रिशा भाउक हो उठती है। 

विजय त्रिशा को दुखी देख विषय बदलने की कोशिश करता है 

विजय - आप कभी बरेली आई है। 
त्रिशा - नहीं 
विजय - एक बार जरूर आइयेगा परांठे के साथ चिली पनीर भी मिलेंगे। 
त्रिशा  - अच्छा तो जनाब को ये भी पसंद है उसका भी ऑर्डर देते है माँ के हाथो का नहीं तो क्या। 
विजय - अरे त्रिशा जी मैं तो वैसे ही कह रहा था खामख्वाह आपको परेशान होने की जरुरत नहीं है। 
त्रिशा - इसमें परेशान होने की क्या बात है। कम से कम आपने अपनी पसंद तो बताई नहीं तो आप तो करेला खाने को भी तैयार थे। कहते हुए त्रिशा मुस्कुरा देती है और उसे देखकर विजय भी मुस्कुरा देता  है। 

त्रिशा बैरे को बुलाकर चिली पनीर का ऑर्डर भी दे देती है। 

बहुत दिनों बाद किताबो की गहराइयों से निकलकर त्रिशा किसी शख्स के साथ बातें कर रही थी उसे खुद नहीं पता था की जिंदगी और किताबों में कितना अंतर होता है। किताबें पढ़ना तो आसान होता है पर किसी शख्स का चेहरा पढ़ना सबसे मुश्किल। 

विजय का संकोची स्वभाव और मासूमियत  ने कही न कही अपना काम करना शुरू कर दिया था। त्रिशा भी अभी इस बात से अनजान थी। और विजय भी इससे बेखबर था। 


वेटर भोजन लेकर आता है और दोनों खाना शुरू करते है। 

पिछली कड़ी -

बरेली का पेड़ा  -4 












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