"तुम पागल हो क्या? बस कुछ ही दिन बचे हैं दिसम्बर में और तुम्हें अपनी नींद की पड़ी है? ज़ुकाम की चिन्ता है? शर्म आनी चाहिए तुम्हें..." कह कर उसनें गुस्से में फोन काट दिया.
मैं भी इधर गुस्से में रजाई तान कर फिर से सो गया. सुबह-सुबह उस बेवकूफ लड़की ने जगा दिया था ये कह कर कि आज फ़ॉगी मोर्निंग है तो हम घूमेंगे. दो दिन से बुखार और सर्दी ने तबाही मचा रखी है, और उसे ये पता भी है लेकिन फिर भी इस मौसम में उसे घूमने की पड़ी है. रात में इसी बात को लेकर लम्बी बहस हुई थी उससे और मैंने साफ़ कह दिया था कि अभी दो दिनों तक मुझे आराम करना है, घर पर ही रहूँगा. लेकिन वो तो अपने जिद पर अड़ी थी. सुबह से दूसरी बार उसनें कॉल कर के मेरी नींद ख़राब की थी.
मतलब कि हद है..किसी भी सेंसिबल इंसान से इस लड़की की ऐसी जिद के बारे में कहूँगा तो उसकी राय यही होगी कि ऐसी लड़की को फ़ौरन से पेश्तर दिमागी अस्पताल में दाखिल करवा देना चाहिए. दिसम्बर की कंकपाती ठंड और सुबह कोहरे में कौन घूमता है भला?
बहुत ज्यादा गुस्सा आया था उसपर. अच्छी खासी नींद की उसने बैंड बजा दी थी. सोने का मूड तो एकदम बिगड़ गया था, मैं गुस्से में बिस्तर से उठ कर तैयार होने लगा. उसे एक टेक्स्ट कर दिया कि एक घंटे में उसके घर पहुँच रहा हूँ. जवाब में उसने सिर्फ "लव यू" लिख कर भेज दिया.
भयंकर ट्रिकबाज थी वो लड़की. हर तरह के ट्रिक वो जानती थी. उसे पता था कि चाहे मैं कितने भी गुस्से में रहूँ, उसके ये दो शब्द मेरे सारे गुस्से को बहा ले जाते हैं और मेरा मूड इन्स्टन्ट्ली ठीक हो जाता है. वो हमेशा इस ट्रिक का सफलतापूर्वक इस्तेमाल करती थी. उस दिन भी उसके उस जवाब से मेरे चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी थी.
घर से निकलते वक़्त माँ ने पूछा कि इतनी ठंड में अचानक कहाँ निकल रहे हो? मैंने भी जल्दबाजी में कह दिया कि एक इंटरव्यू है, शाम तक आऊँगा. शुक्र था कि माँ ने ये नहीं पूछा कि टी-शर्ट, जीन्स और जैकेट पहन कर कौन सा इंटरव्यू दिया जाता है?
बाइक पर पूरे रास्ते मेरी हालत ख़राब रही. हल्का बुखार अब भी था, और मैं बुरी तरह काँप रहा था. पूरे रास्ते मैं उसको कोस रहा था. खुद पर भी थोड़ा गुस्सा आ रहा था. कब तक उसकी ऐसी सनकी ज़िद और इलॉजिकल बातों के साथ मैं भी बहकते रहूँगा.
लेकिन वो वक़्त भी कुछ ऐसा ही था कि जब ये सब करना अच्छा लगता था. गुस्सा होने, इरिटेट होने के बावजूद सुबह के कोहरे में कंपकपाते हुए चाय पीने में भी एक एडवेंचर महसूस होता था. एक अजीब तरह का सम्मोहन जैसा कुछ था. उसे भी ये पता था कि मैं चाहे कितना भी गुस्सा करूँ, सुबह उसके साथ घूमना मुझे भी पसंद था. वो अक्सर कहती थी कि तुम चाहे जितना कोस लो मुझे, पर मैं जब नहीं रहूँगी, तब तुम ये दिन याद करोगे और मेरी इस सनक को मिस करोगे.
कितनी सही थी वो...
मैंने दूर से ही उसे देख लिया था, और उसे देखते ही मेरी हँसी छूट गयी थी. दिसम्बर की सुबह, कोहरा और कड़ाके की ठंड में वो पागल लड़की काले रंग की साड़ी और मैचिंग शाल पहन कर मिलने आई थी. दिल तो किया कि पूछ लूँ, यश चोपड़ा की किसी फिल्म का ऑडिशन देना है क्या?
मैंने जब जानना चाहा कि सुबह के कडकडाती ठंड में साड़ी पहनने की क्या वजह है? तो उसने बस दो शब्द का बेतुका सा जवाब दिया..."इट्स रोमांटिक.."
मैंने आगे और कोई सवाल नहीं पूछा. फ़िल्मी भूत चढ़ा हुआ था उसपर. उसे रोमांटिक फिल्मों की हर बात अच्छी लगती थी. हमेशा उन्हीं फिल्मों की नक़ल वो असल ज़िन्दगी में करती थी. मैंने खुद ही अंदाज़ा लगा लिया कि हो सकता है रात में इसनें फिर से 'चाँदनी' देख ली हो जिसमें श्रीदेवी साड़ी पहने स्विट्ज़रलैंड की वादियों में रोमांटिक गाने गाती है और इसी बात से इसने समझ लिया हो कि ठंड में साड़ी पहनना रोमांटिक होता है.
जो भी हो, आज इतने सालों के बाद सोचता हूँ तो लगता है कि उस सुबह ठंड में साड़ी पहन कर पार्क में टहलना उस लड़की की सनक हो सकती है, लेकिन मुझे उसका साथ उस सुबह बड़ा अच्छा लग रहा था. साड़ी में वो बेहद खूबसूरत दिख रही थी. हल्का कोहरा, ठंड, दिसम्बर और वो मेरे साथ...इससे बेहतर सुबह और नहीं हो सकती.
वो मेरे साथ चलते हुए पार्क के पीछे वाले गेट के पास आ गयी थी. उससे जब पूछा कि इधर क्यों आई हो, तो उसने सिर्फ इतना कहा, "तुम्हें कुछ दिखाना है..."
हम पार्क के पिछले गेट से निकल कर सड़क पर आ गए थे. उसने सड़क के आखिरी छोर की तरफ इशारा करते हुए कहा, "हम उस मंदिर में जा रहे हैं." पहले तो मुझे लगा कि वो मजाक कर रही है. मेरी जानकारी में इस सड़क पर कोई मंदिर था ही नहीं, लेकिन कुछ दूर जाते ही मुझे एक मंदिर जैसा कुछ दिखने लगा.
जब पास आया तो मैं हैरान था. उस सड़क पर वाकई एक छोटा, लेकिन खूबसूरत मंदिर था, जिसके अस्तित्व के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी. उस सप्ताह मेरे मोहल्ले की ये तीसरी ऐसी चीज़ थी जिसके अस्तित्व के बारे में मुझे उससे पता चला था.
"तुम आजकल मेरे मोहल्ले की तहकीकात कर रही हो क्या? तुम्हें कैसे पता इस मंदिर के बारे में?" मैंने उससे सवाल किया.
वो हँसने लगी, "ढूँढने जाओ तो भगवान खुद भी मिल जाते हैं दोस्त...तो ये तो सिर्फ उनका घर ही है"
भयंकर फ़िल्मी डायलॉग मारा था उसने, जिसे काउंटर करने में उस वक़्त मेरी ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी.
उस दिन कोई भी त्यौहार, पूजा, या ख़ास दिन नहीं था लेकिन मंदिर जाकर पूजा करने की क्या वजह थी, ये मैं अब तक नहीं जान सका हूँ. कुछ ऐसी बातें हुआ करती थी, जिसकी वजह वो मुझे भी नहीं बताती थी. उसने उस दिन बाकायदा पूजा करने की ठानी थी. पास के दूकान से बीस रुपये के लड्डू उसने खरीदे, दान पात्र में ग्यारह रुपये की दक्षिणा डाली और प्रसाद चढ़ाने के पहले मंदिर के पंडित को चेताया, "सिर्फ चार लड्डू हैं, इसे चढ़ाना नहीं है... बस भगवान के चरणों में रखकर मुझे वापस दे दीजिये..."
"दो मेरे-दो तुम्हारे, इन्हें बेवजह क्यों दूँ? है न?", उसने मेरी कानों में चुपके से कहा. मैं मुस्कुराने लगा. पंडित हमें हक्का बक्का सा होकर देख रहा था.
हम वहीं मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए और लड्डू खाने लगे. मंदिर छोटा सही लेकिन बेहद खूबसूरत था, जिसकी देखभाल और साफ़ सफाई संभवतः कॉलोनी वाले करते होंगे. मंदिर के आगे एक छोटी सी बगिया बनी थी जिसे बाँस से घेरा गया था. एक कोने पर हैण्डपम्प था और वहीं थोड़ी दूर पर कुछ बच्चे खेल रहे थे.
"अच्छा सुनो, तुम्हे क्या लगता है? भगवान से कुछ माँगो तो क्या वो मन्नत पूरी होती है?" उसने पूछा.
"शायद... लेकिन यार, मैंने कभी आज तक ट्राई नहीं किया है. कुछ माँगा क्या तुमने?"
"हाँ..."
"क्या?"
"तुम न पक्का हँसोगे सुन कर. इक्स्ट्रीम्ली क्लीशे डायलॉग लगेगा तुम्हें, लेकिन आज मैंने मंदिर में भगवान से तुम्हें माँग लिया है, देखो अब पूरी होती है मेरी ये मुराद या नहीं. " लड्डू को चूहे की तरह कुतरते हुए उसने बिना मेरी ओर देखे ही जवाब दिया...पर इन सबकर बीच उसके चेहरे पर एक शरारती मुस्कान लगातार खेल रही थी.
मैं ऐसे वक़्त पर हमेशा हल्का सा ब्लश करने लगता हूँ. उस वक़्त भी मैंने उसकी उस बात पर कोई भी रिएक्शन नहीं दिया, बस मुस्कुरा कर रह गया.
हम दोनों कुछ देर तक खामोश बैठे रहे. मैं हैण्डपंप के पास बच्चों को खेलते हुए देख रहा था और वो दूर आकाश में न जाने क्या तलाश रही थी.
"देखो उधर देखो तो क्या है?" उसने मुझे झिझोड़ते हुए कहा. मेरी आँखों ने अनायास ही उसकी ऊँगली का अनुसरण किया, लेकिन उधर कुछ भी विशेष नहीं था... बस खुला आसमान था और कोहरे के छंटने के बाद दिसम्बर की धूप आकाश पर फैल आई थी.
कुछ देर तक हम दोनों आकाश की तरफ देखते रहे. मेरी तरफ देखते हुए उसने कहा, "मुझे ऐसा ही घर चाहिए, जहाँ धूप आती हो...बेशुमार... और मेरा बेडरूम ऐसा होना चाहिए जहाँ जब मेरी आँख खुले तो मुझे ये खुला आकाश दिखे...". उसकी ऊँगली अब तक आसमान में धूप से चमकते बादल के उस टुकड़े के तरफ इशारा कर रही थी जो कोहरे के बाद उभर आया था.
वो बहुत देर तक अपने उस ड्रीम हाउस के बारे में तरह-तरह की बातें बताती रही, जैसे वो एक शीशे के घर सा होगा और जहाँ से पूरा आसमान दिखता हो. रात में जब वो सोये तो उसे चाँद नज़र आये और धूप की पहली किरण से सुबह आँख खुले.
मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ कर वो मेरे साथ बहुत देर तक अपने उस सपनों के घर के बारे में बातें करती रही. उस घर को सजाती रही जो उस वक़्त था ही नहीं और जिसके होने की शायद कोई उम्मीद भी नहीं थी. अपने ड्रीम हाउस की बातें करते हुए वो थोड़ी संजीदा हो गयी थी.
हम शायद बहुत देर तक वहाँ बैठे हुए बातें करते रहते लेकिन धूप के बावजूद हवा काफी सर्द चल रही थी. वो तो इत्मिनान से बैठ कर बातें कर रही थी लेकिन बुखार और जुकाम की वजह से मुझसे बैठा नहीं जा रहा था. मैंने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा, "यार चलो कहीं किसी रेस्टुरेंट में बैठकर कॉफी पिया जाए...ये हवा तो मेरी जान ले लेगी.."
वो मेरे तरफ देखकर हँसने लगी... "इतना अच्छा मौसम है और तुम कंपकपा रहे हो? तबियत तो ठीक है न?".
उसकी इस बात पर गुस्सा आने के बजाये मेरी हँसी छूट पड़ी..."हाँ बिलकुल... तबियत एकदम बढ़िया है, बस सौ डिग्री बुखार है, सर्दी और ज़ुकाम है...बाकी सब बढ़िया..."
"अच्छा... तभी तुम्हारी नाक इतनी लाल हो रखी है? बताओ...मुझे तो लगा कि यू हैव पेंटेड योर नोज रेड...", कह कर वो जोर से हँसने लगी. वैसे तो उसके इस मजाक से मुझे गुस्सा आना चाहिए था, लेकिन जाने उस सुबह में क्या बात थी, या मंदिर का कोई असर था, कि मैं फिर हँसने लगा था.
वो मेरे बगल से उठ कर ठीक मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी. मेरी नाक को अपनी दोनों उँगलियों से पकड़ लिया..."अरे यार, तुम्हारी नाक तो एकदम अन्टार्टिका हो रही है... और तुम्हारा माथा भी तप रहा है... रुको रुको, मैं कुछ करती हूँ..." कह कर वो वहाँ खड़ी कुछ सोचने लगी..
मुझे उसकी हरकतों पर बड़ी हँसी आ रही थी, जिसे मैं नकली गम्भीरता के आवरण में छुपाए हुए था. मेरे सामने खड़े होकर वो कभी मेरी नब्ज़ देखती तो कभी मेरे कान, तो कभी मेरी आँखों का निरिक्षण करती. फिर अंत में उसने मेरे माथे पर अपना हाथ रखा और अपनी आँखें बंद कर के कुछ बुदबुदाने लगी, ठीक वैसे ही जैसे कोई तांत्रिक मंतर पढता है. बहुत देर तक वो अपने हाथों को मेरे माथे पर रखी रही, और जब उसका मंतर पढ़ना खत्म हुआ तो उसने अपनी आँखें खोली, "नाऊ यू आर कम्प्लीटली हील्ड, डॉक्टर के पैसे बच गए तुम्हारे, मुझे बस कॉफ़ी पिला देना", कह कर वो बड़ी मासूमियत से मुस्कुरा रही थी.
उसे ये नौटंकी करते देख मुझे उस समय उस पर बड़ा प्यार सा आ रहा था. एक बच्चे की तरह वो मुस्कुरा रही थी. मेरा ये भ्रम हो सकता है या शायद सच्चाई रही हो, पता नहीं लेकिन मुझे लगा कि उसका हाथ माथे पर लगते ही मेरा बुखार उतरने लगा है और मैं काफी हल्का महसूस कर रहा हूँ. हम मंदिर की सीढ़ियों से उठ खड़े हुए और कॉफ़ी के लिए एक रेस्टुरेंट की तरफ बढ़ गए. इस बार मैंने उसका हाथ पकड़ा हुआ था और मेरे ज़हन में उस वक्त एक यही पुराना शेर घूम रहा था.
"उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की"
Related Articles
This post first appeared on à¤à¤¹à¤¸à¤¾à¤¸ पà¥à¤¯à¤¾à¤° का.., please read the originial post: here