सब्ज़ बुर्ज से कई बार हुमायूँ के मक़बरे तक खामोश रास्तों पर हम कभी कभी युहीं पैदल ही निकल जाते थे निजामुद्दीन की हवा में एक खुमार सा है जिसे लफ़्ज़ों में बयां करना मुश्किल है एक अजीब सी कशिश, एक खुशबू शायद उस नीली नदी की जो कभी पास से गुज़रा करती थी … Continue reading
Related Articles
This post first appeared on Spinning A Yarn Of Life | I Am A Nocturnal Echo H, please read the originial post: here