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एक क़ता : खिडकियाँ अब न खुलती किसी बात पे---

एक क़ता ----


खिड़कियाँ अब न खुलती किसी बात पर
आज इन्सानियत को ये क्या हो गया

ढूँढने मैं चला वो कि शायद मिले
आदमी ही कहीं बीच में खो गया

जब कि मंजिल क़रीब आने वाली ही थी
दरमियान-ए-सफ़र रहनुमा सो गया

तेरे दर पे उजाला न पहुँचा भले
पर खुशी है कि तेरी गली तो गया

ज़िन्दगी तुम से कोई शिकायत नहीं
प्यार से भी छुई ,मेरा दिल रो गया


-आनन्द.पाठक--

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