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वरदराज की कहानी - story of varadraj

प्राचीन काल में छात्र गुरुकुल में ही रह कर पढ़ा करते थे . अब की तरह कान्वेंट school का चलन नहीं था . छात्र यज्ञोपवित संस्कार के बाद शिक्षा ग्रहण के लिए गुरुकुल में चले जाते थे . गुरुकुल में गुरु के समीप रह कर आश्रम की देख भाल किया करते थे और अध्ययन भी किया करते थे .

वरदराज एक ऐसा ही छात्र था . यज्ञोपवित संस्कार होने के बाद उसको भी गुरुकुल में भेज दिया गया . वरदराज आश्रम में जाकर अपने सहपाठियों के साथ घुलने मिलने लगा . आश्रम के छात्रों और सहपाठियों से उसके मित्रवत सम्बन्ध थे . वरदराज व्यावहारिक तो बहुत था लेकिन था जड़ मति का . जहा गुरु जी द्वारा दी गयी शिक्षा  को दुसरे छात्र आसानी से समझ जाते वहीँ वरदराज को काफी मेहनत करना पड़ता और वो समझ नहीं पाता .
गुरु जी वरदराज को आगे की पंक्ति में बैठाकर  विशेष ध्यान देने लगे . लेकिन फिर भी उसपर कोई असर नहीं पड़ता दिख रहा था . गुरूजी को वरदराज के अशिक्षा से बहुत दुःख होता गुरूजी उसके लिए विशेष प्रयत्न करते जाते . वरदराज के वर्ग के सारे साथी उच्च वर्ग में चले गए लेकिन वरदराज उसी वर्ग में पड़ा रहा . वरदराज के प्रति अपने सारे प्रयासों से थक कर गुरु जी उसे जड़मति मानकर एक दिन आश्रम से निकाल दिए .

अपने साथियों से अलग होता हुआ वरदराज भारी मन से गुरुकुल आश्रम से विदा होंने लगा . दुःख तो बहुत हो रहा था उसे इस वियोग का लेकिन वो कुछ कर नहीं सकता था .

अवसाद से उसके मुख सूखे जा रहे थे . वह पानी की तलाश में कोई जलाशय ढूढने लगा . मार्ग में कुछ दूर चलने पर उसे एक कुआं दिखाई दिया . कुवें के जगत पर चिंतामग्न जा कर बैठ गया .
वहां वह देखता है की कुए से एक चरखी लगी है जिसकें  सहारे एक मिटटी का पात्र बंधा है . कुए के जगत पर एक शिला पड़ी है जिसपर मिट्टी के बर्तन का गहरा निशान पड़ा है .
वरदराज के दिमाग में यह बात कौंध गयी . वह सोचने लगा . कैसे मिटटी का एक कमजोर पात्र(" क्षण क्षण जिसके टूटने का डर बना रहता है वह") एक कठोर पत्थर पर इतना बड़ा दाग बना दिया है ?
अवश्य ही मटके का यह निरंतर प्रयास है जिसके कारण यह संभव हुआ है .

जब के मिटटी का पात्र  बार बार के प्रयास से ऐसा कर सकता है तो मैं क्यों नहीं . वह वापस आश्रम की वोर लौट गया . कहा जाता है वरदराज को आश्रम से उस कुए तक आने में जो समय लगा था उससे आधे समय में वह आश्रम वापस आ गया और गुरु जी के चरणों में लिपट गया .

गुरु जी ने उसे वापस आने का कारन पूछा तो वरदराज ने कुए के समीप में अपनी सारी आपबीती सुना दी . गुरु जी को वरदराज के मुख अब नया आत्मविश्वास दिखाई दे रहा था . उन्होंने उसे फिर से पढ़ाना शुरू किया .

अब वरदराज बदल चूका था . निरंतर अभ्यास से उसने जटिल से जटिल सूत्रों को समझ लिया . वह अपने साथियों को पाणिनि के व्याकरण सूत्रों को भाष्य कर समझाने लगा . आगे चलकर यही वरदराज लघुसिद्धांत 
कौमुदी नामक किताब लिखा .

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