राजा दिलीप सूर्य वंश के बहूत बड़े प्रतापी राजा हुए । वे महाराज राम चंद्र के पूर्वज भी थे ।दुर्भाग्यवश उन्हें कोई संतान नही हो रहा था ।राजा इस बात से बहुत चिंतित थे । इसी चिंता से वे अपने गुरु के आश्रम में इसका समाधान जानने गये । उन्होंने गुरुदेव से अपनी सारी व्यथा बतायी और गुरु जी से संतानहीनता का कारण तथा इसका निवारण पूछा ।
गुरु जी राजा के बात को सुनकर ध्यान लगाकर अपने दिव्य शक्तियों से राजा के कर्मों का अवलोकन कर लिया ।ध्यान से वापस आने पर गुरु जी ने महाराज दिलीप को बताया की आपने स्वर्ग लोक में कामधेनु गाय का अपमान किया है। इसी दोष से आपकी संतान की कामना फलवती नहीँ होती ।
इसपर राजा दिलीप ने गुरु जी से पूछा महर्षि मैंने तो अपने जाने में ऐसा कोई अपराध नहीँ किया है । कृपया मेरा अपराध समझाने का कष्ट करें । गुरुदेव ने कहा कि आप स्वर्ग लोक में गये थे तो आप वहाँ के ऐश्वर्य और सौन्दर्य में इतना खो गये थे की आप ने कल्प तरु के नीचे बैठी कामधेनु गाय को नमस्कार नहीँ किया । जिससे आपको कामधेनु के अपमान का दोष लग गया। राजा दिलीप ने पूछा महाराज मैंने तो अपने जानकारी में कामधेनु गाय का कोई अपमान नहीं किया फिर ये शाप मुझे कैसे लगा। इसपर उनके कुलगुरु ने उन्हें विस्तार से सारी बात बताई। गुरु जी ने कहा की-- राजन एक बार आप स्वर्ग लोक में इंद्र के निमंत्रण पर गए थे। वहाँ जाकर आपने स्वर्ग के सौंदर्य और वैभव को देखा। इस सौंदर्य वैभव में आप खो गए और कल्पतरु के पास बैठी कामधेनु गाय को आपने नमस्कार नहीं किया। इस अपमान से आपको कामधेनु का शाप लग गया। समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनु के उसी शाप के कारण आप संतान सुख से अबतक बंचित हैं.
महाराजा दिलीप ने गुरु से अपने इस शाप से उबरने का उपाय पूछा। गुरु जी ने कहा - राजन इस अभिशाप से बचने का यही उपाय है की आप कामधेनु गाय की सेवा कर प्रसन्न करें लेकिन कामधेनु को धरती पर लाना असम्भव है। इसके विकल्प के रूप में आप नंदनी गाय की सेवा कर सकते है जो महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में है। आप उनसे नंदनी गाय की सेवा करने की लिए याचना करें।
अपने गुरु की आज्ञा पाकर राजा दिलीप महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में में गए और उनसे विनती कर सेवार्थ नंदनी गाय अपने यहाँ लाये. राजा दिलीप तन मन से नंदनी गाय कि सेवा करते . गौ के पीछे पीछे उसकी रक्षा में धनुष पर बाण चढ़ाये चलते . इसप्रकार गौ सेवा में राजा दिलीप नंदनी गाय का अनुगमन करते . इसी तरह काफी दिन बीत गए . एक दिन गाय चरते चरते घने जंगल में चली गयी . उस दिन गाय के सामने एक सिह आ गया . सिंह ने दीर्घ स्वर में गाय को आवाज लगाकर रोका . सिंह ने कहा तुमने मेरे उपवन के देवदारु के वृक्ष को खाया है . मैं इस उपवन कि रखवाली करता हूँ . इसके दंड स्वरुप मैं तुम्हे खाऊंगा . सिंह के मुख से इसप्रकार बचन सुनकर रजा दिलीप क्रोधित हो गए और अपने धनुष बाण सँभालते हुए बोले जबतक सूर्य वंशीयों के शारीर में प्राण है तबतक उनके किसी सरनार्थी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता . हे वनराज तुम अपनी खैर मानवों कि तुम मेरे बाण के प्रहार से पहले कितना देर और जीवित रह सकते हो . इसपर सिंह ने कहा हे राजन तुम बीच में न आवो ये मेरे और इस गौ के बीच का विवाद है . मैं भगवान शिव द्वारा नियुक्त इस उपवन का रक्षक हूँ और इस उपवन को नुकसान पहुचने वाले को दंड देना मेरा कर्त्तव्य और विधान है .
सिंह से ऐसा सुनकर राजा दिलीप ने कहा आप भगवन शिव के सेवक हैं तो हमारे भी आदरणीय है मैं आपपर शस्त्र तो नहीं उठा सकता लेकिन इस अपराध के बदले आप मुझे दंड दें . ये गाय मेरे द्वारा रक्षित है अतः इसका अपराध भी नियमतः मेरा ही माना जाएगा . अतः आप इस गाय के अपराध के बदले मुझे दंड दीजिये और मुझे मारकर खा जाईये . सिंह ने रजा दिलीप को समझाते हुए कहा . हे राजन तुम इस देश के एक कुशल राजा हो तुम्हारे मरने से इस देश को बहुत हानि होगी . मुझे इस गाय को मरकर खा जाने दो . सिंह के लाख बहकावे के बाद भी जब राजा दिलीप नहीं माने और आँख मुदकर सिंह के आहार के लिए उसके सामने लेट गए तो, कुछ देर बाद उन्हें विस्मय करने वाला एक आवाज सुनाई दिया . राजा ने आँख खोलकर देखा तो वहां से सिंह गायब था . नंदी गाय ने बोला - राजन ये सब मेरी माया थी , मैं तुम्हारे सेवा से प्रसन्न हुई . मेरे कृपा से तुझे बहुत तेजश्वी संतान प्राप्त होगी . नंदनी गाय के आशीर्वाद से राजा दिलीप को पुत्र कि प्राप्ति हुई जिसका नाम रघु रखा गया . रघु सूर्य वंश के बहुत बड़े प्रतापी रजा हुए उनके नाम पर उनके कुल का नाम रघुवंश पड़ा .
गुरु जी राजा के बात को सुनकर ध्यान लगाकर अपने दिव्य शक्तियों से राजा के कर्मों का अवलोकन कर लिया ।ध्यान से वापस आने पर गुरु जी ने महाराज दिलीप को बताया की आपने स्वर्ग लोक में कामधेनु गाय का अपमान किया है। इसी दोष से आपकी संतान की कामना फलवती नहीँ होती ।
इसपर राजा दिलीप ने गुरु जी से पूछा महर्षि मैंने तो अपने जाने में ऐसा कोई अपराध नहीँ किया है । कृपया मेरा अपराध समझाने का कष्ट करें । गुरुदेव ने कहा कि आप स्वर्ग लोक में गये थे तो आप वहाँ के ऐश्वर्य और सौन्दर्य में इतना खो गये थे की आप ने कल्प तरु के नीचे बैठी कामधेनु गाय को नमस्कार नहीँ किया । जिससे आपको कामधेनु के अपमान का दोष लग गया। राजा दिलीप ने पूछा महाराज मैंने तो अपने जानकारी में कामधेनु गाय का कोई अपमान नहीं किया फिर ये शाप मुझे कैसे लगा। इसपर उनके कुलगुरु ने उन्हें विस्तार से सारी बात बताई। गुरु जी ने कहा की-- राजन एक बार आप स्वर्ग लोक में इंद्र के निमंत्रण पर गए थे। वहाँ जाकर आपने स्वर्ग के सौंदर्य और वैभव को देखा। इस सौंदर्य वैभव में आप खो गए और कल्पतरु के पास बैठी कामधेनु गाय को आपने नमस्कार नहीं किया। इस अपमान से आपको कामधेनु का शाप लग गया। समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनु के उसी शाप के कारण आप संतान सुख से अबतक बंचित हैं.
महाराजा दिलीप ने गुरु से अपने इस शाप से उबरने का उपाय पूछा। गुरु जी ने कहा - राजन इस अभिशाप से बचने का यही उपाय है की आप कामधेनु गाय की सेवा कर प्रसन्न करें लेकिन कामधेनु को धरती पर लाना असम्भव है। इसके विकल्प के रूप में आप नंदनी गाय की सेवा कर सकते है जो महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में है। आप उनसे नंदनी गाय की सेवा करने की लिए याचना करें।
अपने गुरु की आज्ञा पाकर राजा दिलीप महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में में गए और उनसे विनती कर सेवार्थ नंदनी गाय अपने यहाँ लाये. राजा दिलीप तन मन से नंदनी गाय कि सेवा करते . गौ के पीछे पीछे उसकी रक्षा में धनुष पर बाण चढ़ाये चलते . इसप्रकार गौ सेवा में राजा दिलीप नंदनी गाय का अनुगमन करते . इसी तरह काफी दिन बीत गए . एक दिन गाय चरते चरते घने जंगल में चली गयी . उस दिन गाय के सामने एक सिह आ गया . सिंह ने दीर्घ स्वर में गाय को आवाज लगाकर रोका . सिंह ने कहा तुमने मेरे उपवन के देवदारु के वृक्ष को खाया है . मैं इस उपवन कि रखवाली करता हूँ . इसके दंड स्वरुप मैं तुम्हे खाऊंगा . सिंह के मुख से इसप्रकार बचन सुनकर रजा दिलीप क्रोधित हो गए और अपने धनुष बाण सँभालते हुए बोले जबतक सूर्य वंशीयों के शारीर में प्राण है तबतक उनके किसी सरनार्थी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता . हे वनराज तुम अपनी खैर मानवों कि तुम मेरे बाण के प्रहार से पहले कितना देर और जीवित रह सकते हो . इसपर सिंह ने कहा हे राजन तुम बीच में न आवो ये मेरे और इस गौ के बीच का विवाद है . मैं भगवान शिव द्वारा नियुक्त इस उपवन का रक्षक हूँ और इस उपवन को नुकसान पहुचने वाले को दंड देना मेरा कर्त्तव्य और विधान है .
सिंह से ऐसा सुनकर राजा दिलीप ने कहा आप भगवन शिव के सेवक हैं तो हमारे भी आदरणीय है मैं आपपर शस्त्र तो नहीं उठा सकता लेकिन इस अपराध के बदले आप मुझे दंड दें . ये गाय मेरे द्वारा रक्षित है अतः इसका अपराध भी नियमतः मेरा ही माना जाएगा . अतः आप इस गाय के अपराध के बदले मुझे दंड दीजिये और मुझे मारकर खा जाईये . सिंह ने रजा दिलीप को समझाते हुए कहा . हे राजन तुम इस देश के एक कुशल राजा हो तुम्हारे मरने से इस देश को बहुत हानि होगी . मुझे इस गाय को मरकर खा जाने दो . सिंह के लाख बहकावे के बाद भी जब राजा दिलीप नहीं माने और आँख मुदकर सिंह के आहार के लिए उसके सामने लेट गए तो, कुछ देर बाद उन्हें विस्मय करने वाला एक आवाज सुनाई दिया . राजा ने आँख खोलकर देखा तो वहां से सिंह गायब था . नंदी गाय ने बोला - राजन ये सब मेरी माया थी , मैं तुम्हारे सेवा से प्रसन्न हुई . मेरे कृपा से तुझे बहुत तेजश्वी संतान प्राप्त होगी . नंदनी गाय के आशीर्वाद से राजा दिलीप को पुत्र कि प्राप्ति हुई जिसका नाम रघु रखा गया . रघु सूर्य वंश के बहुत बड़े प्रतापी रजा हुए उनके नाम पर उनके कुल का नाम रघुवंश पड़ा .
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