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सवाल : हम आपदाओं में फेल क्यों? जवाब में यह हकीकत पढि़ए


राजस्थान के एक हिस्से में बाढ़ का कहर है और लोग आपदा से घिरे हैं। प्रशासनिक अमला इतना असहाय नजर आ रहा है। आपदाएं हमेशा आती है और सरकारी तंत्र लाचार नजर आता है। क्यों? प्रश्न सभी का यही है। मेरा भी। परन्तु जवाब नहीं मिलता। मेरा एक अनुभव है जो आज लम्बे समय बाद ब्लॉग पर आपसे शेयर करना चाहता हूं। मामला देश का है, लेकिन पीड़ा व्यक्तिगत है।

आपदा क्या होती है, यह तब जाना जब मैं सिर्फ 11 साल का था। मैं आपको उस दृश्य से जोडऩा चाहता हूं। जो मैंने अखबारों में पढ़ा। मैं सातवीं कक्षा में पढ़ा करता था। लोगों ने कई-कई दिन तक कई-कई बार खबरें पढ़ी। मैंने अपने जीवन में समाचार पत्र पढ़कर लोगों की आंखों से आंसू निकलते पहली बार देखे। बाद में इसी आपदा पर एक कविता (आओ सुनाता हूं तुम्हे एक बस की कहानी...) हमारे आदरणीय पुस्तकालयाध्यक्ष और कवि दलपतसिंह राजपुरोहित साहब ने कवि सम्मेलन में पढ़ी थी तो जनता रो पड़ी और तत्कालीन विधायक ने कवि के पांव पकड़कर उन्हें बिठाया।
उस आपदा की हकीकत कुछ इस तरह है...।
पाली के जैतपुर से गढ़वाड़ा जाती एक बस बांडी नदी में बहते पानी में फंस गई थी।  प्रशासन और तत्कालीन पत्रकार मौके पर पहुंचे। करीब साठ यात्री थे। गढ़वाड़ा के हिम्मती लोगों ने 40 जिंदगियां करीब तीन घंटे में बचा ली थी। तभी वहां तत्कालीन कलक्टर-एसपी-एसडीएम जो कि आजकल राजस्थान सरकार में एक बड़े पद पर हैं, वहां पहुंचे। गांव के लोगों की हिम्मत देखिए कि गांव के कई जवान इस रेस्क्यू में बह गए थे, लेकिन लोग फिर भी जुटे हुए थे। अब कलक्टर ने आदेश दिया कि कोई पानी में नहीं उतरेगा। गांव वाले कहते रहे, साहब हमारे बच्चे बहुत अच्छे तैराक है, वे नहीं डूबेंगे। यदि बचाते हुए डूब भी गए तो कोई बात नहीं। हमारे गांव पर कलंक लग जाएगा कि यहां नदी में इतने लोग मर गए। परन्तु साहेबी जिद कायम रही और रेस्क्यू नहीं करने दिया गया। तीन घंटे और अफसरों के सामने लोग एक-एक करके बहते रहे। जालोर के महेश दवे ने अपने परिवार को पत्नी की साड़ी से बांधा और रपट पर खड़े अफसरों को आखिरी प्रणाम कहकर पानी में कूद गया। परिवार के सात सदस्यों की लाश तीन दिन बाद मिली। अपने बेटे विक्रम को पहले बाहर निकाल दिया लेकिन आशापुरा गांव की बुजुर्ग माताजी पानी का काल बन गईं। उनका शव कई दिन बाद मिला। एक बच्ची अपने हाथ में पकड़ा बीस का नोट दिखाकर चिल्ला रही थी। अंकल मेरे पास से यह सारे पैसे ले लो, नानी ने दिए थे। परन्तु आप मुझे बचा लो...। परन्तु किसी की हिम्मत नहीं थी। तत्कालीन एसपी और पूरा पुलिस महकमा वहां मौजूद था। तहसीलदार जो अब दिवंगत हो गए, वे आर्मी से रिटायर थे, लेकिन हिम्मत और प्लान उनके पास भी नहीं था। न तो किसी के पास साधन थे और न ही किसी में हिम्मत। बदहाली का आलम था कि एक जज्बे वाले गांव की हिम्मत उन्होंने तोड़ दी। वह गांव अपने मीठे खरबूजों के लिए जाना जाता था, लेकिन उस हादसे के बाद वहां की खेती प्रदूषण से बर्बाद हो गई। आसपास जनता प्रदूषण से कई बीमारियों का दंश झेल रही है। शायद उन बीस लोगों का हाय लगी हो। परन्तु बीस लोगों से भरी बस तीन घंटे तक उन अफसरों के आगे जिंदगी की भीख मांगते हुए मौत का शिकार हो गई। इस जलसमाधि के दस मिनट बाद हैलीकॉप्टर पहुंचा। आक्रोशित जनता ने पथराव किया। कलक्टर और एसपी जान बचाकर निकले। कई-कई दिनों बाद लाशें मिलीं। पाली जिला बंद रहा। बाद में प्रेस वार्ता कर कलक्टर ने सफाई देनी चाही, लेकिन पत्रकारों के आक्रोश के सामने जिलाधीश की रुलाई फूट पड़ीं और बीस लोगों को खा जाने का बयान दे डाला। वह अखबारों की सुर्खियों में रहा। कुछ समय बाद ही सरकार ने उन्हें ट्रेनिंग का तोहफा देते हुए विदेश भेज दिया।
हमारी कहानी यहीं खत्म नहीं होती। मुद्दा था कि हम आपदा में फेल क्यों होते हैं। यह पहली आपदा थी मेरे जीवन की, जो अवचेतन मन में गहरे कई बैठ गई। इसके बाद मैंने आपदा प्रबंधन में एक कोर्स किया और बिगड़े हालातों प्रबंधित कैसे करें इस पर समझ बढ़ाई।
जिस अफसरों की सदारत में यह हादसा हुआ और बीस लोग मारे गए। उनकी पोस्टिंग, प्रमोशन और शाबाशियों में फर्क नहीं पड़ा। कुछ को तो अवार्ड-पदक भी मिले। परन्तु सबसे बड़ी मूर्खता का काम वह हुआ कि वह अफसर जो बीस लोगों को न तो बचा पाए और न किसी को बचाने दिया। उसे इस देश के आपदा प्रबंधन का 2013 में सलाहकार नियुक्त किया गया। तीन साल तक दिल्ली में वह इस पद पर काबिज रहे। उनकी सदारत में पाली ही की तरह पूरे देश ने उत्तराखण्ड, कश्मीर समेत अन्य आपदाएं उनकी सदारत में एक बार फिर से झेली और प्रबंधन में फेल रहे। यदि भारतीय सेना नहीं होती तो ये इलाके आज भी उन आपदाओं से उबर नहीं बाते।
इस बात को रखने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि ऐसे अधिकारियों का चयन करने वाली यूपीएससी, उन्हें पोस्टिंग, प्रमोशन और अवार्ड देने वाली सरकार, शह देने वाले नेता और वे खुद सभी मिलकर इस देश का बैण्ड बजा रहे हैं। हम यह समझ नहीं पा रहे कि बैण्ड की धुन मातमी है या एंजोय करने वाली। उसमें जब भी आपदा आती है। व्हाइट कपड़े पहनकर  फोटो खिंचाने वाले पिल पड़ते हैं। जनता के जख़्म आधार हो गए हैं लोगों की राजनीति चमकाने के। अफसरों के फेल रहने पर उन्हें क्यों नहीं नेताओं की तरह पांच साल में हटा दिया जाए। सवाल कई है, लेकिन जवाब नहीं आते। यह बात अंधेरे में दबी थी, इसलिए इस पर एक प्रदीप जला है। आप हकीकत जानो और कमेंट करो। क्या होना चाहिए?
प्रदीप




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