|अपने खेत में पक आए गेहूं से सुनहरा व मादक कुछ नहीं होता.
दिनों के पास ऐसी कोई कुल्हाड़ी नहीं है जो रातों को एक बिलांत छोटा कर दे और रातों के झोले की कोई आरी दिनों से दुपहरों को काट कर अलग नहीं कर सकती. जीना यूं ही होता है.. सुबह, दुपहरी, शाम और रात. बताते हैं कि प्रकृति को किसी तरह की कतरब्योंत पसंद नहीं थी इसलिए उसने काम खत्म होने के बाद सारे कारीगरों के कान में फूंक मार दी कि वे आला दर्जे के दर्जी हैं. पेरिस में हुए जलवायु समझौते का ब्यौरा अखबार में 12वें पन्ने पर छपा है. पढ़ लो, मैं तो बस ये कह रहा हूं कि वैशाख के बाद जेठ आएगा. देख लेना!
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दूसरी बात, दूसरी बात यह कि अपने खेत में पक आए गेहूं से सुनहरा व मादक कुछ नहीं होता. कि आंधियों के हरावल दस्ते फिर मेरे देस की माटी से जूझने आ रहे हैं लेकिन अभी उन्हें वैशाख के बाकी बचे कुछ दिनों तक इंतजार करना होगा. क्योंकि यही दिन हैं जब हम खेतों की मादक खूशबू को ढलती, चांदनी भरी रातों में तूड़ी (चारे) के रूप में बैलगाड़ियों, ट्रालियों में भरकर घर ले आते हैं. यह खुशबू किसी साळ (कमरे) या कुप्प में बंधी और नशीली होती जाती और पशुधन का साल भर काम चल जाता.
देर रात मैसेंजर पर एक दोस्त बताता है कि वह खेत से तूड़ी ढो रहा है. यानी दोस्त लोग हाड़ी की बची खुची खुशबू को घर ला रहे हैं. कि कणक निकाल ली गई है, हाड़ी का काम सिमटने वाला है. चने के बाद ग्वार-ग्वारी भी आ रही है. एक फसल पककर सही सलामत खेतों से खलिहानों, खलिहानों से घरों या मंडियों तक पहुंच जाए खेती बाड़ी करने वाले के लिए इससे बड़ा उत्सव क्या हो सकता है? तो यह उत्सव का समय है.
देश का एक बड़ा हिस्सा जब पीने के पानी के लिए जद्दोजहद कर रहा है और जलवायु परिवर्तन को लेकर सौदेबाजी लगभग सिरे चढ़ चुकी तो इस साल अच्छी बारिशों के अनुमानों से भरे खत खेतों को भेजे जा रहे हैं. मुझे कोमोरेबी शब्द याद आता है. कोमोरेबी… जापान में पेड़ों की घनी पत्तियों से छनकर आने वाली सूरज की रोशनी को कोमोरेबी कहा जाता है. मैं बारिशों से भरी इन्हीं उम्मीदों को कोमोरेबी नाम देता हूं. कि धूप तो हमें विरासत में मिली है, मेरे खेतों को इन बारिशों की जरूरत होगी.
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