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माल रोड इंडिया

दार्जिलिंग का जो विख्यात चौरस्ता है वहां नेपाल के आदि कवि भानुभक्त की आदमकद प्रतिमा लगी है। पहाड़ी की सबसे उंची जगह पर यह चौरस्ता अपने आप में एक छोटा सा स्टेडियम है जहां एक ओपन थिएटर है और चारों और गोल घेरे में बैंच लगी हैं। ओपन थियेटर के पास बड़ी स्क्रीन है जिस पर फुटबाल के मैच चलते हैं और लोग धूप सेंकते हुए पहाड़ों से उतरी ठंड को देखते हैं। भानुभक्त की प्रतिमा के बायीं ओर जो रैलिंग है वहां खंबे पर एक पोस्टर लगा है। ममता बनर्जी का। यह पोस्टर अपने आप में एक राजनीतिक बयान है। गोरखालैंड आंदोलन का केंद्र रहे दार्जिलिंग में इस तरह के पोस्टर नहीं दिखते। न ही लोग लगाते हैं और न ही लगाने दिए जाते हैं। सामने की बैंच पर औसत दर्ज की चाय पीते हुए राय साहब इस पोस्टर की ओर इशारा करते हुए कहते हैं- हवा बदल रही है।

खैर इसी पोस्टर वाली रैलिंग के साथ एक सड़क नीचे जाती है जो यहां की माल रोड है। यह माल रोड ठीक वैसी है जैसे दिल्ली का जनपथ या सरोजनी मार्केट या शिमला, मनाली, कानपुर, दिल्ली, लुधियाना, डजहौजी, आगरा व नैनीताल.. की माल रोड जैसी ही। जहां एक जैसी ही ब्रांडेड दिखने वाली सस्ती चीजें मिलती हैं। इनमें से ज्यादातर कपड़े या बाकी आइटम कहां से आते हैं, कैसे बनते हैं हम सभी जानते हैं लेकिन फिर भी भीड़ उमड़ी रहती है। आपत्ति न तो सस्ते आइटमों पर है न इनकी सहज सरल उपलब्धता पर, चिंता आस्वाद की उस भिन्नता की है जो इस देश को रंग देता है। ये रंग किसी देश के भारी उत्पादन वाले कारखानों में सस्ते लेबर ने नहीं सहेजे बल्कि उन रंगरेजों की पीढ़ियों की मेहनत व हुनर का परिणाम है जिनके कड़ाहों की बोली लगाने बाजार के कबाड़ी हमारे दरवाजे तक आ पहुंचे हैं।

एक हिलटॉप पर अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा ऊन परखने में बिताने वाले जंपा तेनजिन कहते हैं कि ऊन की परख उसके रंग और चमक से नहीं की जा सकती इसके लिए उसे चखना पड़ता है। उसकी कड़वाहट को जीभ पर रखना पड़ता है। कि यह जहर चखे बिना ऊन का पारखी नहीं हुआ जाता। जिंदगी इतनी आसानी से किसी को भी पारखी नहीं बना देती। तो 140 शब्दों के ज्ञान पर खायी अघायी पीढ़ी से आप इतिहास की किन पोथियों को सहेजने की उम्मीद करेंगे। और क्या उम्मीद करेंगे भविष्य ग्रंथ रचे जाने की?

कि हाट से माल, माल से माल रोड और माल रोड से मॉल। यह तो व्यवस्था हमारे बड़े शहरों से रिसती हुई छोटे शहरों व कस्बों में आ रही है वह कहीं उधार के रंग तो नहीं हैं जिन्हें हम बिना मोल भाव किए ही अपने सपनों में भरे जा रहे हैं? रामस्वरूप किसान ने अपने एक नयी कहानी में बड़ी मार्के की बात कही है- उधार में किसका और कैसा मोलभाव। यानी जो बाजार देगा वहीं हमें लेना है और उसी कीमत पर लेना है। कोई मोलभाव, आनकानी नहीं। देखिए कि हमारे कितने शहरों में माल रोड है, सोचिए कि हमारे सारे शहरों में मॉल है। उन मॉल में किसी और का माल है और हम सिर्फ और सिर्फ ग्राहक हैं। हमारा अपना कोई ब्रांड नहीं। हमारे जुलाहों की मेहनत, कारीगरों की कारीगरी, रंगरेजों के रंग जैसा कुछ भी नहीं। सबसे बड़े बाजार का जो झुनझुना विश्व व्यापार व्यवस्था ने हमें पकड़ाया उसी को लेकर नाचते हुए हम मेड इन इंडिया तो कभी मेक इन इंडिया खेल रहे हैं।

कि कॉल सेंटरों में अपनी रातें काली करने वाली पीढ़ी ने सुनहरे दिन सोकर निकाल दिए।

ऊन को चखकर उसकी गुणवत्ता बताने वाली पीढियां पहाड़ों, पत्थरों, जंगलों और रेगिस्तानों में सिमट गई हैं। हमारे हिस्से में जो बचा है वह मॉल रोड है और मॉलों की भ्रमित करने वाली चकाचौंध और लुभाने वाले ब्रांड। हम इस बाजार के हरकारे हैं और शायद हमारे लिए लिखा गया  पता है माल रोड इंडिया।


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