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पत्थर

इन्हीं पत्थरों में उड़ना सीखा मैंने -
कईं बार गिरा भी,
डैने भी ज़ख़्मी हुए.
नर्म हरी दूब,
या कोमल गीली रेत
कहाँ से लाता,
इन पत्थरों के बीच?

ये चट्टानें, जो धुप में पिघलती हैं,
और दिन ढले
बर्फ़ -सी जकड़ती हैं.
यहीं सीखा मैंने उड़ना.

गिरने पर ये ज़ख्मों को,
सहानूभूति से सहलाती नहीं,
जैसे हरी दूब ,
या गीली रेत सहलाती हैं.
बल्कि अट्टाहस ले
उछाल देती हैं
दूसरी शिला की ओर.
जब तक कि तुम
सीख न जाओ
उड़ना,
या बन जाओ इन्हीं पत्थरों के समान।

मैंने भी इन्हीं पत्थरों में उड़ना सीखा।
कदम डगमगाए,
पंख निष्प्राण हुए,
कुछ नुकीले पाहन चुभे भी,
जिनके ज़ख्म आज भी ताज़ा हैं.....

अब मुझे इनसे खौफ नहीं लगता,
उड़ना जो सीख गया हूँ मैं.
अब कभी-कभार जाता हूँ,
इनसे दुआ-सलाम के बहाने,
और छोड़ आता हूँ चुपके से
कुछ बीज इन पाषाणों की दरारों में.
और जानते हो -
अब वहाँ नईं कोपलें
फूटने लगी हैं.




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पत्थर

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