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हर कोई किसी गिरोह में है फिर कैसे कहें आजादी के बाद सोच भी आज आजाद हो गयी है


आजादी 
चुनने की
एक आजाद सोच

पहेली नहीं हो गयी है 

सोचने की बात है 


सोच
आज क्यों
विरुद्ध
सामूहिक
कर्म/कुकर्म
हो गयी है ।

बर्फी के ऊपर
चढ़ाई गयी
चाँदी का
सुनहरा
वर्क हो गयी है

स्वर्ग हो गयी है
का विज्ञापन है
मगर बेशरम
नर्क हो गयी है

अपोहन
की खबर कौन दे

किसे सुननी है

व्यस्त चुनावों में
गुलाम नर्स हो गयी है

मरेगी भी नहीं

जिंदा भी नहीं
रहने दिया जायेगा

बिस्तरे में पड़ी
बेड़ा गर्क हो गयी है

गहन
चिकित्सा केंद्र में
है भी तो भी

कौन सी किस के लिये
शर्म हो गयी है 

ठंडे हो गये
ज्यादा लोगों
के देश में

सिर्फ दो लोगों
के लिये
हर खबर
गर्म हो गयी है 

पूजा पाठ
नमाज समाज

सोचने वालों के लिये
फाल्तू का
एक कर्म हो गयी है

मन्दिर
के साथ मसजिद
की बात करना

सबसे बड़ा
अंधेर है
अधर्म हो गयी है 

नंगा होना
नंगई करना

करने धरने
वालों की सूची में
आने की शर्त हो गयी है

लोक भी है
तंत्र भी है
लोकतंत्र की बात

फिर करनी क्यों
बात ही व्यर्थ हो गयी है 

जीतना
उसी को है

आज चुनाव
करवाने की बात भी

फालतू सा
एक खर्च हो गयी है 

मर जायेंगे
लुटेरे
घर मोहल्ले के

हार पर
बात कहना भी

खाने में
तीखी मिर्च हो गयी है 

क्या
लिखता है
क्या सोच है
‘उलूक’ तेरी

समझनी भी
किसे हैं

बातें सारी
अनर्थ हो गयी हैं

लूट में
हिस्सेदारी
 लेने वाली

सारी जनता
को देखता
भी नहीं है

आज सबसे
समर्थ हो गयी है । 

चित्र साभार: https://www.clipartmax.com





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