नमस्कार दोस्तों। ठण्ड बहुत है और इस ठण्ड में अगर मैं पानी की बात करने लगूं तो थोडा अटपटा ज़रूर लगेगा मगर क्या करू पिछले 10 दिनों से समय के आभाव से बयां नहीं कर पा रहा जो करना चाहता हूँ। सो आज समय मिला तो सोचा की दिल का ये बोझ हल्का कर ही डालूं।
आपने फव्वारे तो बहुत देखे होंगे। चाणक्य टावर के सामने, पटना जैविक उधान में, संसद भवन, पुरानी इमारतों के बाहर, अंग्रेजों के ज़माने की फव्वारे, आज़ादी के बाद बने फव्वारे, लखनऊ ,कानपुर, दिल्ली, मेरठ , पुणे मुंबई, नागपुर, रांची,भोपाल, और भी न जाने कितने महानगरों में और कितने ज़मींदारों और रसूखदारों के बरामदे की शान में इजाफा करते हुए ये फव्वारे।
मज़े की बात तो ये है की ये रोज़गार देने का एक जरिया भी है। बिजली पे चलने वाले मोटर से पानी उड़ाते ये फव्वारे हमारी शान और छाती दोनों चौड़ी कर देते हैं। रसूखदारों की छाती भी चौड़ी हो गयी और एक रख रखाव करने वाले गरीब के दाने पानी का इंतजाम भी हो गया।
अब मतलब की बात पे आते हैं। बताने वाली बात ये है की हमने फव्वारे तो बढ़ा लिए मगर आज भी देश के लाखों लाख लोगों को साफ़ पानी मयस्सर नहीं है। अजी साहब साफ़ तो दूर की बात है, पीने का पानी नहीं है। तकलीफ होती है ये देख कर जब किसी गरीब को नाली के पानी का इस्तमाल करते हुए देखता हूँ। तकलीफ होती है जब अखबारों के पन्ने गरम किये जाते हैं प्यास से हुई मौतों की खबर से।
जल विभाग है हर जिले में मगर समझ नहीं आता की पीने का पानी हर घर तक क्यों नहीं पहुंचा 70 सालों में??
अगर हर दिन एक नल लगाया गया होता तो भी शायद आधी आबादी को हम साफ़ पानी पहुंचा पाते। आज कोका-कोला और पेप्सी जैसी MNCs जब हमारे हर जिले, मोहल्ले में अपनी पहुँच और पकड़ बनाये हुए हैं, तब शक होता है हमारे लोगों की काबिलियत पे और उनकी दूरदर्शिता पे।
तो अब क्या किया जाये? प्रदर्शन,धरना, भूख हड़ताल, मोर्चा, पार्टी गठन या कोसा जाये हमारे लोगों को जिन्हें हमने साल दर साल के लिए चुना-देखा-बदला-चुना?
सोचने वाली बात है। ज़रा सोचियेगा। बदलाव का भारत है ये। एक झटके में तो नहीं मगर बदलेगा ये। आशा नहीं यकीन है। क्यूंकि गाँधी का देश है ये। 1947 हो या 2047, खून जमा नहीं है अभी तक। धुंध छटेगी और इंसानियत और भारतीयता का झंडा बुलंद होगा।
जय हिन्द।।