बचपन में हमारे एक मित्र हुआ करते थे। विज्ञान और साहित्य में बहुत रूचि थी उनकी। लालटेन की धीमी लौ पे भी किताब नहीं बंद करते थे। उनके लिए विज्ञान सिर्फ और सिर्फ अनोखी दुनिया थी। जहा हर कुछ जादू जैसा अनोखा था। गर्मियों की छुट्टियों में जब हम खुले आसमान में खाट पे बैठ कर गप्पे हांका करते थे। वो भाई साहब तारों की दुनिया में मग्न रहते थे। हमारे यहाँ तो कोई लाइब्रेरी थी नहीं, न ही कोई प्रयोगशाला जहा वे खुद को तराश पाते। मन मार कर रह जाते थे। कभी कोई पटना आता जाता रहता तो पैसे जोड़ कर "विज्ञान प्रग्रति" जैसी किताबें मंगवा लेते। वो ही पढ़ कर खुश रहते। सोचते। लिखते।खुद में मग्न रहते।हम उन्हें अक्सर बोला करते थे। "यार हमें तो स्कूल की किताबें नहीं समझ आती? आप इतना कैसे समझ लेते हो। वो मुस्कुरा कर टाल देते।कभी कभी अपने सपने बांटा करते। बोलते मुझे बहत बड़ा वैज्ञानिक बनना है। हमारे यहाँ नासा जैसी प्रयोगशाला बनानी है। हम भी उनके सपनो की दुनिया में खो जाते। लगता की शायद हमारे साथी भी एडिसन या न्यूटन की औलाद निकल जाएँ। कुछ देश का भला हो जाये। कुछ हमारा हो जाये। जब हमने 10वी पास की तो उनके पिताजी का देहांत हो गया। घर की मजबूरियों ने घेर लिया। बच्चो को पढ़ाने लगे। एक छोटा भाई था उनका सो उसको बाहर भेज दिया पढने को। खुद सारी जिम्मेदारियों का बोझ ले लिया। खुद को परिवार और विज्ञानं को समर्पित कर दिया। मगर कुछ कर न सके। ग्रेजुएशन किया और सरकारी टीचर बन गये।
सोचने वाली बात है की ऐसे लाखो बच्चे , जो बिहार ही नहीं बल्कि पुरे देश में अपने सपनो का गला घोंटते हैं, क्यूंकि हमारे जिलों में प्रयोगशालाएं नहीं पहुंची, पुस्तकालय नहीं हैं। शायद वो बच्चा कुछ नया और अच्छा करता, शायद नहीं करता। मगर उस बच्चे को क्या कहेंगे जो बेचारा शर्ट की टूटी हुई बटन और बहते हुए नाक के बावजूद स्कूल सिर्फ इसलिए जाता है की उसने कल रात जो सपना देखा उसकी नीव रख पाए। उस बच्चे को क्या जवाब देंगे जिससे परिवार वालो ने ये उम्मीद की कि बेटा इंजिनियर या फिर डॉक्टर बनेगा। जिस इंजीनियरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए डोनेशन जैसी कटोरी में लाखों डालने पड़े, उन से और क्या उम्मीद करें?
जय हिन्द।