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माई की महिमा और स्वामी विवेकानंद

माई की महिमा और स्वामी विवेकानंद

ऐसे माँ की महिमा से कौन अपरिचित होगा ? इस चराचर जगत में पशु-पक्षी समेत सभी जीवजंतु व पादप अपने वाचिक व सांकेतिक क्रियाकलापों द्वारा अपने जननी के प्रति प्रेम का उद्गार करते हैं। मेरे मतानुसार माँ की महिमा को शाब्दिक वर्णन में बांधने की असफल कोशिश से बेहतर हैं कि महसूस किया जाय।

आज गूगल सर्च बॉक्स पर माँ की महिमा (maa ki mahima) टाइप कर सर्च आरम्भ किया। देवी-दुर्गा माई से लेकर वैष्णो माता तक के हिंदी-भोजपुरी भजनों की एक बृहत् सूची स्क्रीन पर प्रदर्शित हुई। अगले पृष्ट पर, ऐसे तो अनेको सम्बंधित आलेखों के लिंक थे, पर मेरी जीजीस्वा को संतोष मिला नवभारत के रीडर्स ब्लॉग पर। राजेंद्र ऋषि जी ने माँ की महिमा से संबंधित एक प्रेरक प्रसंग के वर्णन में लिखते है:-

एक बार स्वामी विवेकानंद जी से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया कि- माँ की महिमा संसार में इतनी ज्यादा क्यों गाई जाती है?
स्वामी जी उस व्यक्ति से बोले कि- इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए पांच किलो वजन का एक पत्थर ले आओ।

स्वामी विवेकानंद जी के आज्ञानुसार जब वह व्यक्ति पांच किलो वजन का पत्थर ले के स्वामी जी के आया तो वो बोले कि- अब इस पत्थर को किसी कपडे में लपेटकर अपने पेट पर बांध लो और चौबीस घंटे बाद मेरे पास आओ, तब मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा।

स्वामीजी के आदेशानुसार उसने पत्थर अपने पेट पर बांध लिया और चला गया। पेट पर पत्थर बांधे हुए वो कुछ घंटे तक काम करता रहा, परन्तु शीघ्र ही उसे परेशानी और थकान महसूस होने लगी। शाम होते-होते पेट पर पत्थर का बोझ संभाले हुए काम करना तो दूर चलना फिरना तक दूभर हो गया। शाम को ही थका मांदा वो व्यक्ति कराहते हुए स्वामी जी के पास पहुँच कर हाँफते हुए बोला कि- हे स्वामी, मैं इस पत्थर को अब और अधिक देर तक अपने पेट पर बांध के नहीं रख सकता। एक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मैं इतनी बड़ी सजा नहीं भुगत सकता।

स्वामी विवेकानंद जी मुस्कुराते हुए बोले- पेट पर इस पत्थर का बोझ तुसे कुछ घंटे भी नहीं उठाया गया, जबकि माँ अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को नौ माह तक ढोती है और घर गृहस्थी का सारा काम भी करती है. इस संसार में माँ के जैसा कोई धैर्यवान और सहनशील नहीं है।




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