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आजकल अखबारों में बलात्कार बिकता है।

कहूँ कैसे कि मेरे शहर में अखबार बिकता है,
डकैती लूट हत्या और बलात्कार बिकता है।

––अभिनव अरुण

आजकल मैंने हिंदी अखबार पढ़ना लगभग बंद कर दिया हैं। भाई रहता क्या हैं, इन अखबार के पन्नों में। प्रति दिन 18 से लेकर 36 पेज वाली मोटी-पतली अखबार, स्वयं को रंग-बिरंगी विज्ञापनों में बेचकर बचें आधे से प्रथम पृष्ठ पर बलात्कार, हत्या, चोरी-लूट, छिनतई की नकारात्मक खबरें और अंतिम पन्नों पर जापानी तेल, कब्ज-गैसों की गोलियां, ववासीर का जैल, वशिकरण वाले बाबाओं के अड्डे और कई बार मैनफोर्स के उत्तेजित करने वाले विज्ञापन के सिवाय पढ़ने लायक होता ही क्या है। कई बार मुझे प्रतीत होता हैं कि हम सुबह-सवेरे कोई अखबार नहीं, पॉर्न-पत्रिका पढ़ रहे हैं, और वो भी सपरिवार।

यदि आपको लगता हैं कि बीच के पन्ने आपके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण आपसे सरोकार रखने वाली खबरों से रूबरू करवाने वाले हैं, तो जनाब आप बड़े लुल हो। सरकारी टेंडर और नोटिसों के बीच शादी के कुछ इश्तेहार मिल जाएगा, जमीन-जायदाद से लेकर नोकरी-छोकरी के लिए एक से डेढ़ पन्ना रिज़र्व हैं। जिनमें से अधिकांश झूठे व नकलची होते हैं।

फरवरी से जून-जुलाई तक प्रतिदिन विद्यार्थियों की कमी से जूझ रही प्राइवेट स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटी के रंग-बिरंगे विज्ञापन आपको ठगने के लिए प्राप्त है। 10 वी और 12 वी के रिजल्ट के अगले दिन IIT में एडमिशन के नाम पर दुकान चलाने वाले दुकानदारों की चर्चा भरी पड़ी होती हैं।

संपादकीय पढ़ा हैं, इनका। इनकी गिरी हुई क्रांतिकारी सोच इससे पूरी तरह जगजाहिर होती हैं। शुक्रिया अदा करना चाहिए इन कलमचोरो का कि इनके 90% पाठक इनके लिखे संपादकीय पृष्ठ को पढ़ते ही नहीं।

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,

वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता..!

––अकबर इलाहाबादी

अच्छा, आप मुझे बताना कि किसी भी अपराध में किसी आरोपी को अदालत से पहले ये मीडिया वाले दोषी कैसे करार सकते हैं? कोई भलमानस यदि दुर्भाग्यवश गलत परिस्थितियों में फंस आरोपी बन जाता हैं, तो इनकी आक्रामक तेवर व लोकलाज के कारण निश्चितरूपेण आत्मग्लानि से आत्मघाती कदम उठा ही लेगा। कई बार आरोप सिद्ध न हो पाने पर हमारी सम्मानित अदालते बाइज्जत बरी कर देती हैं, पर ये इज्ज़त का फालूदा बना छिछलेद करने वाली अखबारों का क्या? दुर्भाग्यवश, भारत की साक्षर जनता अखबार के पन्नों पर लकीर का फकीर हो विश्वास करती हैं।

अपने अनुसंधान में मैं इस तथ्य से अवगत हुआ कि पांच रुपए वाला अखबार बेच कर ये कॉरपोरेट अखबार कंपनिया सालाना 3.7 बिलियन तक शुद्ध कमाई सलाना कर रहे हैं। ये तो काग़जी आंकड़े बता रहे हैं, समय समय पर विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, और जातिगत एजेंडा के बदले अंडर टेबल बेईमान शौदों का यहाँ उल्लेख करना बेईमान होगी।

यदि आपको लगता हैं कि ये सिर्फ़ अखबार बेचते हैं तो गलतफहमी से बचिये जनाब। ₹5 रुपये के इस अखबार में ये अपनी विचारधारा बेंच आपकी अपने स्टैंड को प्रभावित करते हैं, जिसे सामान्य पाठक सच्चाई की लक्ष्मण लकीरें मानता हैं।

विगत दिनों एक वरिष्ठ पत्रकार से वार्तालाप का अवसर प्राप्त हुआ। विभिन्न मुद्दों पर बातचीत हुई। आखिरकार मैंने उनसे कहा सर आप मीडिया बाले तो बहुत ही ईमानदारी से समाज के मुद्दों को उठाते हैं। उनके प्रतिउत्तर से रूह कांप गयी… कह बैठे भाई आप गलतफहमी में हो। जितनी चमकदार ये काम दिखाई देता हैं न दुनिया को, ये बड़ी कुत्ती जॉब हैं। असुरक्षित प्राइवेट जॉब में एक तो कम वेतन में असुरक्षित काम करना होता हैं, ऊपर से मुख्य पत्रकार और इन्वेस्टर के एजेंडे पर अधिकतर मीडिया कंपनिया काम करती हैं। यदि अभी तुम्हारा कुछ हो जाता हैं न बाबू तो हम पहले रिपोर्ट बनाएंगे न की तुम्हारी मदद।

आज के समय हिंदी भाषा के अलोकप्रिय बनाने में एक बहुत बड़ा हिस्सा इन अखबारों का भी हैं। पाठकों आंखे बंद कर भक्त बनने से खुद को बचाइए।



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