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भीड़


खादिमों की है न सरदारों की भीड़
अब कबीले में है बीमारों की भीड़
हुमा कानपुरी
हुमा कानपुरी उर्दू हिंदी के सशक्त शायर है। ग़ज़ल विधा के माहिर हैं। प्रस्तुत ग़ज़ल के मत्ले में शायर फरमाते हैं। आजकल सेवक [स्वयं सेवक] कहीं दिखाई नहीं देते। उसी तरह सेवा कार्यों की अगवाई करनवाले [सरदार] भी दिखाई नहीं देते। सिर्फ 'बीमार' लोग दिखाई देते हैं। सच्चे मन से निस्वार्थ भाव से सेवा कार्य करने में किसी की रूचि नहीं

है। सेवा के बहाने हर कथित सेवक स्वार्थ साधने में लगा है। इसी तरह से निस्वार्थ भाव से सेवा कार्यों की की स्ग्वानी करनेवाले या आर्थिक मदद करनेवाले भी जैसे लुप्त हो गए हैं। कभी कोई हिम्मत करता भी हैं तो स्वार्थी लोग करने नहीं देते। उसें भी अपनी तरह 'कीचड़' में सराबोर करने के लिए तत्पर रहते हैं। या उस के कन्धों पर अपनी बंदूक फोड़ लेते हैं।

यहाँ बीमार शब्द काबिले गौर है। शायर ने अपनी तरफ से बीमारी का खुलासा नहीं किया। पर आज जहाँ देखो जिसे देखो। बीमार नजर आता है।कोई मानसिक तौर नपर तो कोई शारीरिक तौर पर, कोई आर्थिक तो कोई प्रादेशिकता की बीमारी से ग्रसित है। इस शेर मे३ प्रयोग किये गए कबीले शब्द का अर्थ भी विस्तृत है। आज जब पृथ्वी को ग्लोबल विलेज कहा जा रहा है तो कबीले का अर्थ भी वैश्विक है।



सख्तियाँ कुछ कम हुईं तो देखना
बढती जाएगी गुनाहगारों की भीड़
कानून के पालन के जब जब नरमी आती है। गुनाहगारों के हौसले में बढ़ोतरी होती है। कानून का शासन व पालन कभी ढीले नहीं होने चाहिए। सच कहिये क्या आपको नहीं लग रहा कि संसद और ताज होटल पर के हमलों के आरोपियों को सजा देने में देर हो रही है? और इसी देर के कारण पडोशी देश में बैठे हमले करवानेवालों के हौसले बढ़ रहे हैं। अगर शुरू से सख्ती कि जाती तो आज ये नौबत न आती। यहाँ मुझे अहमदाबाद के स्थापक अहमदशाह बादशाह के साथ जुडी कथा याद आरही है। कहा जाता है कि उस के बत्तीस साल के शासन के दौरान सिर्फ दो खून हुए। दोनों कातिल पकडे गए। उस में एक बादशाह का दामाद था। बादशाह ने उसे भी फाँसी कि सजा दी। ये भी कहा जाता है कि उसे फाँसी देने के बाद दो दिन तक लाश उतारी नहीं गई। वो इसलिए कि प्रजाजनों में यह सन्देश जाये कि बादशाह न्यायप्रिय है। गुनाहगार चाहे कोई भी ही उसे बक्शा नहीं जायेगा। दूसरी और आज के दामाद क्या क्या प्राप्त कर सकते हैं? आप जानते हैं।


पांव धरने को जमीं है ही कहाँ?
हर जगह है हम से बंजारों को भीड़
विचरती जाती के लोग बंजारे कहलाते हैं। हिंदी में बंजारा और गुजराती में वणजारा शब्द है। बंजारे एक स्थान पर ज्यादा समय टिककर नहीं रहते। स्थान बदलते रहते हैं। हालाँकि आज कल इस तरह का स्थानांतरण कम होता है।

शायर ने उच्च श्रेणी का विचार पेश किया है। इस जगत, इस पृथ्वी पर आत्मा रूपी बंजारे आते है चले जाते हैं। कोई बंजारा कुछ घटे तो कोई बरसों तक यहाँ निवास करता है। आत्मा रूपी बंजारा एक शरीर से दूसरा शरीर, दूसरे से तीसरा यूँ स्थान परिवर्तन करता रहता है। पृथ्वी पर बंजारों का आवागमन जारी है। बंजारे आते हैं जाते हैं फिर भी भीड़ बढ़ रही है। क्यों? शायद इसलिए कि बंजारों को बसने के लिए मानव देह सब से ज्यादा उपयुक्त लगता है अन्य जीवों का नहीं।


जाइएगा अब  कहाँ बचकर 'हुमा'
हर कदम पर है सितमगरों कि भीड़
कदम कदम पर जब सितमगर मौजूद हो तो कोई कहाँ तक बच सकता है? यूँ समझो कि सौ नहीं हजार नहीं बल्कि लाख में निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यावे जुल्मी हो तो बाकि बचा एक शख्स कहाँ तक बचेगा?
कुमार अहमदाबादी
 
ता.09/09/2012 के दिन गुजराती अख़बार 'जयहिंद' में मेरी कोलम 'अर्ज़ करते हैं' में छपे लेख का हिंदी भावानुवाद
मैं 'अभण अमदावादी' के नाम से कोलम लिखता हूँ
 



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