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लडे बिना जीना मुहाल नहीं है – कविता – रवि कुमार

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है

लोग लड रहे हैं

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है
गा रही थी एक बया
घौंसला बुनते हुए

कुछ चींटियां फुसफुसा रही थीं आपस में
कि जितने लोग होते है
गोलियां अक्सर उतनी नहीं हुआ करतीं

जब-जब ठानी है हवाओं ने
गगनचुंबी क़िले ज़मींदोज़ होते रहे हैं
एक बुजुर्ग की झुर्रियों में
यह तहरीर आसानी से पढ़ी जा सकती है

लड़ कर ही आदमी यहां तक पहुंचा है
लड़ कर ही आगे जाया जा सकता है
यह अब कोई छुपाया जा सकने वाला राज़ नहीं रहा

लोग लड़ेंगे
लड़ेंगे और सीखेंगे
लड़कर ही यह सीखा जा सकता है
कि सिर्फ़ पत्तियां नोंचने से नहीं बदलती तस्वीर

लोग लड़ेंगे
और ख़ुद से सीखेंगे
झुर्रियों में तहरीर की हुई हर बात

जैसे कि
जहरीली घास को
समूल नष्ट करने के अलावा
कोई और विकल्प नहीं होता

०००००
( तहरीर – लिखावट, लिखना, लिखाई )

रवि कुमार


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लडे बिना जीना मुहाल नहीं है – कविता – रवि कुमार

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