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"इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर"








"इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर"

मुझको न हमज़बां, न  हमउमर चाहिए, 
मुझको  इक हमनवा, हमसफ़र चाहिए।

हुस्न-ए-मल्लिका से सजा बाज़ार है,
इक हमदम मुझे,  शामो-सहर चाहिए।

मेरी हिमाक़तों को तुम कुफ्र कह दो,
ख़ुदा तुम सा ही मुझको, मगर चाहिए।

इस भीड़ में निहायत अकेला हूँ मैं,
तेरे दामन में, मुझे बसर चाहिए।

जहाँ तेरे सिवा न रहता हो कोई, 
मुझको ऐसा ही एक शहर चाहिए।

तेरे दर पर अब, मैं सजदा करने लगा, 
अब मुझे, इनायत भरी नज़र चाहिए।

भटकता हुआ, अकेला "राही" हूँ मैं  
मुझको बस,  तुम जैसा रहबर चाहिए।
इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर=राही की प्रार्थना;विनय;निवेदन 
हमज़बां=जिनकी ज़बान या भाषा एक जैसी हो
हमउमर=जिनकी उम्र एक जैसी हो
हमनवा=जिनकी सोच एक जैसी ही
हमसफ़र=जो सफर में एक साथ हो
हुस्न-ए-मल्लिका=सुंदरता की रानी
हमदम=दोस्त 
शामो-सहर=हर समय 
हिमाक़तों= बेवकूफ़ियों
कुफ्र=अधर्मता 
बसर= गुज़र; निर्वाह;जीवनयापन।
इनायत=कृपा
रहबर= मार्गदर्शक
-© राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"






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