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वो रात कैसे गुज़री

वो रात कैसे गुज़री मत पूछ मेरे बेवफ़ा हमसफ़र

जाने कितनी ही सैकड़ों रातों पर भारी थी वो एक रात

कलेजा मुँह को आता था कदम ना बाहिर उठते थे

भारी मन वजनी कदमों से तेरी चौखट सदा के लिए

ना चाहते हुए भी लांघी थी मैंने, पर ना रोका तुमने

अपने घर से निकाले जाने की व्यथा तुम क्या जानोगे

जिसने कभी ना अपना घोंसला छोड़ा, ना छोड़ी कभी डाली

रात सुनसान अकेली थी वो, नन्हीं जान मेरे साथ थी

वो अंधियारी काली अमावस से गहरी काली रात थी 

उस रात सड़क पर कुत्ते कम दरिंदे ज्यादा दिखते थे

कदम ना उठते थे आगे, जाने क्या मन में सोचती थी

एक कदम आगे रखती थी, एक बार पीछे मुड़कर देखती थी

देखती थी वो बंद किवाड़ें, जिन पर हुआ था स्वागत मेरा

जिन पर लगी थी कभी मेहंदी वाले हाथों से हल्दी की थापें

एकटक खड़ी इंतज़ार करती थी कि कुछ जाने पहचाने

शब्द और आवाज़ मेरे बढ़ते रुकते कदमों को विराम देंगें

पर अफ़सोस ऐसा हुआ नहीं, जो हुआ वो कभी सोचा नहीं

आखिरकार छोड़ पी का घर, बाबुल के आंगन वापस चली

कभी कभी कितना मन होता है अपनी देहरी पूजने और

अपना घर गली आंगन लीपने और पूरने रंगोली बनाने का l

ए मन उदास ना हो निराश ना हो वो मौका भी जल्द होगा

जब मैं घर के अंदर मेरा बुरा चाहने वाला घर के बाहर होगा

इंतज़ार है मुझे उस दिन का इंसाफ तू ज़रूर करेगा 

बिन आवाज़ की लाठी से हिसाब करेगा तू वार करेगा



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