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माता जहाँ लिंग रूप में है विराजमान और जहाँ होती है संतान प्राप्ति की मुराद पूरी- लिंगाई माता मंदिर, छत्तीसगढ़

भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए लोगों को शिवलिंग की पूजा करते हुए आपने जरूर देखा होगा लेकिन क्या कभी देवी को प्रसन्न करने के लिए लिंग की पूजा करते हुए आपने कभी देखा या सुना है?

लिंगाई माता प्रवेश द्वार 

अगर नहीं, तो आज मैं अपनी ब्लॉग यात्रा में एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहा हूँ  जहां शिव जी की नहीं बल्कि देवी की पूजा लिंग रूप में होती है।

यह सृष्टि शिव और शक्ति का साकार स्वरूप है। जहां शक्ति है, वहां समृद्धि है, नवनिर्माण है, नवसृजन है। शक्ति के बिना संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता। आमतौर पर मां भगवती के मंदिरों में उनकी प्रतिमा, ज्योति आदि का पूजन किया जाता है, लेकिन छत्तीसगढ़ में स्थित एक मंदिर इस दृष्टि से अनोखा है। यह मंदिर छत्तीसगढ़ के अलोर गांव में है। माता का यह मंदिर साल में सिर्फ एक ही दिन खुलता है और उसी दिन यहां पूजा होती है। अन्य दिनों मंदिर के पट बंद रहते हैं। इस मंदिर में मां भगवती लिंगई माता के रूप में विराजमान हैं। मंदिर से जुड़ी मान्यता के अनुसार, यहां शिव और शक्ति- दोनों का वास है। इसलिए यहां माता का पूजन लिंग रूप में होता है। 

मंदिर रास्ता 


छत्तीसगढ़ के फरसगांव विकासखंड में स्थित आलोर में एक पहाड़ी है जिसे लिंगई गट्टा या लिंगई माता के नाम से जाना जाता है। इस छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर एक विशाल पत्थर है। बाहर से अन्य पत्थर की तरह सामान्य दिखने वाला यह पत्थर स्तूप-नुमा है, इस पत्थर की संरचना को भीतर से देखने पर ऐसा लगता है मानो किसी विशाल पत्थर को कटोरानुमा तराश कर चट्टान के ऊपर उलट दिया गया हो। इस मंदिर के दक्षिण दिशा में एक सुरंग है जो इस गुफा का प्रवेश द्वार है। द्वार इनता छोटा है कि बैठकर या लेटकर ही यहां प्रवेश किया जा सकता है। गुफा के अंदर 25 से 30 आदमी बैठ सकते हैं। गुफा के अंदर चट्टान के बीचों-बीच निकला शिवलिंग है जिसकी ऊंचाई लगभग दो फुट होगी, श्रद्धालुओं का मानना है कि इसकी ऊंचाई पहले बहुत कम थी, समय के साथ यह बढ़ गई।

मंदिर गुफा 

परम्परा और लोकमान्यता के कारण इस प्राकृतिक मंदिर में प्रति दिन पूजा अर्चना नहीं होती है। वर्ष में एक दिन मंदिर का द्वार खुलता है और इसी दिन यहां मेला लगता है।  संतान-प्राप्ति की मन्नत लिए यहां हर वर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष नवमी तिथि के पश्चात आने वाले बुधवार को इस प्राकृतिक देवालय को खोल दिया जाता है, तथा दिनभर श्रद्धालुओं द्वारा पूजा-अर्चना एवं दर्शन की जाती है।

इस मंदिर से जुडी दो विशेष मान्यताएं है।  पहली मान्यता संतान प्राप्ति को लेकर है। इस मंदिर में आने वाले अधिकांश श्रद्धालु संतान प्राप्ति की मन्नत मांगने आते हैं। यहां मन्नत मांगने का तरीका भी निराला है। संतान-प्राप्ति की इच्छा रखने वाले जोड़े को खीरा चढ़ाना ज़रूरी है। प्रसाद के रूप में चढ़े खीरे को पुजारी, पूजा के बाद जोड़े(दंपति) को वापस करता है। दम्पति को शिवलिंग के सामने ही इस ककड़ी को अपने नाखून से चीरा लगाकर दो टुकड़ों में तोडना होता है और फिर इस प्रसाद को दोनों को खाना होता है।  


लिंगाई माता दर्शन 
दूसरी मान्यता भविष्य के अनुमान को लेकर है। एक दिन की पूजा के बाद जब मंदिर बंद कर दिया जाता है तो मंदिर के बाहर सतह पर रेत बिछा दी जाती है। इसके अगले साल इस रेत पर जो चन्ह मिलते हैं, उससे पुजारी अगले साल के भविष्य का अनुमान लगाते हैं। यदि कमल का निशान हो तो धन संपदा में बढ़ोत्तरी, हाथी के पांव के निशान हो तो उन्नति, घोड़ों के खुर के निशान हों तो युद्ध, बाघ के पैर के निशान हों तो आतंक, बिल्ली के पैर के निशान हों तो भय तथा मुर्गियों के पैर के निशान होने पर अकाल होने का संकेत माना जाता है। 

लिंगेश्वरी माता के बारे में एक और बात इस मंदिर को विशेष बना देती है। स्थानीय प्रत्यक्षदर्शियों का मानना है कि पहले इसकी ऊंचाई बहुत कम थी। यहां का शिवलिंग पहले आकार में बहुत छोटा था, लेकिन हाल के वर्षों में इसकी उंचाई में वृद्धि हुई है। और यही नहीं इसकी ऊंचाई में अब भी निरंतर बढ़ोतरी हो रही है।


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