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यूपी में एमएसपी के दिन लदे : सरकारी गोदाम खाली रहेंगे, व्यापारी किसानों के घर से ही अनाज उठा रहे

रूस-यूक्रेन युद्ध (RUSSIA- UKRAINE WAR) की लपेटे में उत्तर प्रदेश के सरकारी गेहूं ख़रीद केंद्र भी आ गए हैं. उत्तर प्रदेश में ग़ाज़ियाबाद से लेकर देवरिया तक सरकारी ख़रीद केंद्र में किसान गेहूं (Wheat Procurement) नहीं बेच रहा है. व्यापारी सीधे खलिहान से ही गेहूं उठा ले जा रहा है. अगर यही स्थिति रही तो सरकारी खाद्यान्न भंडार ख़ाली होने लगेंगे. इसका असर मुफ़्त राशन योजना पर भी पड़ेगा. यही स्थिति रही तो आशंका है कि सरकार फिर से एमएसपी (MSP) की समाप्ति की घोषणा न कर दे. सरकार कह सकती है, जब किसान सीधे व्यापारी को गेहूं बेचेगा तो एमएसपी जारी रखने का कोई मतलब नहीं है.

एफसीआई के गोदाम ख़ाली होंगे?

पिछले वर्ष तक स्थिति यह थी, कि एफसीआई के गोदामों में गेहूं सड़ा करता था. सरकार के पास ज़रूरत से अधिक गेहूं का स्टॉक रहता था. इसकी वज़ह थी, भारत में लगभग सभी जगह गेहूं की फसल का रक़बा बढ़ जाना. दूसरी तरफ़ योरोप के कई देश अपनी ज़रूरतों से बहुत ज़्यादा गेहूं पैदा करने लगे थे. इनमें यूक्रेन व रूस भी थे. उनकी जनसंख्या खाद्यान्न उत्पादन के मुक़ाबले काफ़ी कम है इसलिए वे गेहूं का निर्यात भी खूब करते थे. यूक्रेन तो इतना गेहूं पैदा कर रहा था, कि उसे मदर ऑफ़ ब्रेड भी कहते थे. जौ का सबसे बड़ा निर्यातक भी यूक्रेन है. रूस में भी खूब गेहूं की फसल होती है. विश्व के कुल गेहूं उत्पादन का 25 प्रतिशत इन्हीं दोनों देशों में होता है. और अमेरिका को जोड़ लें तो गेहूं के बाज़ार में 65 प्रतिशत हिस्सेदारी इन्हीं देशों की थी.

निर्यात होगा भारत का गेहूं

अब रूस की सेनाओं का सामना करते-करते यूक्रेन तो पूरी तरह तबाह हो चुका है. इसलिए आने वाले कई वर्षों तक वह इस स्थिति में होगा नहीं कि अन्य देशों को गेहूं निर्यात कर सके. उधर रूस आर्थिक प्रतिबंधों के चलते निर्यात नहीं कर सकता. ऐसे में विश्व के कई देशों की खाद्यान्न मामलों में निर्भरता अब भारत व पाकिस्तान पर रहेगी. क्योंकि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, पोलैंड आदि देश कहीं न कहीं रूस के विरोध में रूस समर्थक देशों को गेहूं नहीं बेचेंगे. उधर सरकार की स्थिरता के चलते, भारत ही इस स्थिति में है कि गेहूं निर्यात कर सके. इसलिए भी भारत के किसानों की इस समय पौ-बारह हैं. उन्हें पता है कि इस समय उनकी फसल को व्यापारी ऊंचे दामों में ख़रीदेगा और नख़रे भी कम करेगा. सरकारी ख़रीद केन्द्रों में तो पचास तरह की दिक्कतें हैं.

न झन्ना न उतराई

इसीलिए व्यापारी रबी की फसल आते ही गेहूं व तिलहन की ख़रीदारी करने लगे हैं. किसान को भी उन्हें गेहूं बेचने में सुभीता भी है. वह सीधे खलिहान से गेहूं उठा रहा है. इसके अलावा वह किसानों को गेहूं मंडी लाने को नहीं बोलता न ही गेहूं की उतराई का पैसा मांगता है. ख़रीदार किसान की फसल में झन्ना (फसल से कंकड़ पत्थर और अन्य आनाज छानने के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली विशाल चलनी) नहीं लगाता. झन्ना लगाने से खाद्यान्न का बड़ा हिस्सा बेकार हो जाता है. इसलिए किसान एमएसपी से थोड़ा-बहुत कम पैसों में भी व्यापारी को बेच देता है. इसका एक नुक़सान यह भी है, कि जो प्रवासी मज़दूर पल्लेदारी के लिए आते हैं, वे भी ख़ाली बैठे हैं. ऐसे में वे खाएंगे क्या? जब काम नहीं तो पैसा भी नहीं. भारत में रबी और ख़रीफ़ सिर्फ़ किसानों के चेहरे पर ख़ुशी नहीं लाती बल्कि व्यापारियों और मज़दूरों को भी खुशहाल करती है. अब जब किसान का गेहूं खेत और खलिहान से व्यापारी उठा लेगा, तो मज़दूर की दिहाड़ी कहां से आएगी?

सरकारी रेट से कहीं कम तो कहीं ज़्यादा


उत्तर प्रदेश में गेहूं की सरकारी ख़रीद एक अप्रैल से शुरू हुई और रेट 2015 रुपए प्रति क्विंटल रखा गया है. मज़े की बात कि मैनपुरी से झांसी तक व्यापारी इस रेट से 15-20 रुपए अधिक दे रहा है. उधर अयोध्या में तो व्यापारी 1975 रुपए फ़ी कुंतल में ख़रीद रहा है, फिर भी किसान व्यापारी को गेहूं बेच देता है. असली बात है, कि सरकारी ख़रीद में बाबुओं की हठीली प्रवृत्ति. अगर ये उतराई, झन्ना लगाई और सुबह से शाम तक किसान को परेशान करने की आदत ख़त्म की जाए तो शायद किसान सरकारी ख़रीद केन्द्रों पर जाए. अलबत्ता जब व्यापारी आना बंद कर देंगे तब किसान गेहूं लेकर इन केन्द्रों पर जाएगा.


चौधरी चरण सिंह ने शुरू की थी लेवी

1960 और 1970 तक भारत खाद्यान्न के मामले में जब आत्म निर्भर नहीं था और जब गेहूं खाना विलासिता समझा जाता था, तब सरकार सस्ते गल्ले की दूक़ानों के ज़रिए लोगों को गेहूं, चावल, चीनी, खाने के तेल आदि पहुँचाती थी. उस समय चूँकि गेहूं का बाज़ार भाव अधिक था, इसलिए किसान गेहूं सीधे बाज़ार में बेच देता. तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जब चौधरी चरण सिंह थे, तो उन्होंने किसानों पर लेवी लगाई ताकि किसान सरकारी ख़रीद केन्द्रों पर जाएं. इसका असर पड़ा और किसान इन केन्द्रों पर जाने लगा. धीरे-धीरे गेहूं की बम्पर फसल ने भारत को खाद्यान्न मामले में आत्म निर्भर बना दिया. तब व्यापारी ने क़ीमत घटा दी. इसलिए गेहूं ख़रीद केंद्र अकेला विकल्प रहा और एमएसपी पर किसान गेहूं बेचने लगा. नतीजा यह हुआ कि एफसीआई के भंडार फुल हो गए. यहाँ तक कि गेहूं के भंडारण की समस्या आ गई. इसीलिए सरकार ने फ़्री राशन योजना बनायी. इसका लाभ कोरोना के दौर में मिला और प्रवासी मज़दूरों के भूखे रहने की नौबत नहीं आई.

भारत गेहूं की दौड़ में शामिल

ठीक है, पिछले वर्ष तक गेहूं निर्यात में भारत की सहभागिता एक प्रतिशत भी नहीं रही. मुख्य गेहूं निर्यातक देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस कनाडा, फ़्रांस, यूक्रेन, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, अर्जेंटीना, कज़ाकिस्तान और पोलैंड हैं. लेकिन ताज़ा स्थितियों में भारत से ही कई देश गेहूं आयात करेंगे. मिस्र, इंडोनेशिया, टर्की और चीन सर्वाधिक गेहूं आयात करते हैं. हालाँकि चीन में गेहूं पर्याप्त मात्रा में पैदा होता है. लेकिन उसकी 140 करोड़ की आबादी के लिए वह नाकाफ़ी है. इन सबको गेहूं रूस और यूक्रेन भेजता था. अब मिस्र ने तो पहले ही भारत से गेहूं आयात को मंज़ूरी दे दी है. और भी कई देश गेहूं मंगाएंगे. बांग्ला देश भी अपनी खपत का अधिकांश गेहूं रूस से ख़रीदता रहा है. अब उसकी भी निर्भरता भारत पर बढ़ेगी. लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत अपने देश के लोगों को गेहूं न दे कर विदेशों को निर्यात करेगा? अलबत्ता किसानों के लिए आपदा में अवसर होगा.

खाद्य तेलों का भी संकट

यूक्रेन और रूस खाद्य तेलों का भी निर्यात करते थे. इसलिए भारत में खाद्य तेलों की क़ीमतें नहीं बढ़ रही थीं. लेकिन अब दोहरा संकट आने का अंदेशा है. एक तो पॉम ऑयल अब आएगा नहीं और भारत के तिलहन उत्पादक किसान इसे व्यापारियों को बेच देंगे, जो सीधे निर्यात करेंगे. इसलिए सरकार को इस पर गौर करना होगा. किसान की उपज पहले देश के लोगों का पेट भरे. सरकार किसान को इसकी क्षतिपूर्ति करे. भारत में किसान अन्नदाता है, कोई व्यापारी नहीं. इसीलिए वह सम्मानित है. लेकिन इसमें सरकार की ज़िम्मेदारी भी है कि वह किसान को वाजिब क़ीमत दे. अभी पिछले वर्ष नवम्बर तक किसान सरकार से यही तो मांग कर रहे थे. फिर अचानक बदलाव ठीक नहीं रहेगा. अगर सरकार देश की उपज को निर्यात में लगा देगी तो देश के लोग क्या करेंगे? ख़ासतौर पर मध्य वर्ग, जो सरकारी सस्ते आनाज की दूक़ानों की परिधि से बाहर है.

युद्ध का असर दुनिया को बदल देगा

रूस का लड़ाकू रवैया और यूक्रेन का नाटो से दोस्ती के रुख़ पर क़ायम रहना इस युद्ध को और उकसा रहा है. अभी तक विश्व के किसी भी देश ने गंभीरतापूर्वक दोनों पक्षों में सुलह कराने की कोशिश नहीं की. सिर्फ़ प्रतिबंधों से कोई सकारात्मक निष्कर्ष नहीं निकलता. आज जिस तरह से दुनिया वैश्विक हो गई है, उस माहौल में इससे बात नहीं बनती कि युद्ध में हम नहीं झुलस रहे हैं. आज नहीं तो कल इस युद्ध से हर कोई झुलसेगा. किसी का व्यापार फले-फूलेगा तो कोई देश सड़क पर भी आएगा. इससे किसान, मज़दूर, व्यापारी, कूटनीतिक और राजनीतिक भी प्रभावित होंगे. इसलिए आज इस बात की सख़्त ज़रूरत है, कि दुनिया के सभी देश युद्ध को ख़त्म कराने की कोशिश करें. युद्ध को लगभग दो महीने हो चुके हैं, पर कोई पक्ष झुकने को राज़ी नहीं. अभी-अभी तो कोरोना का वार कमजोर हुआ है. अगर हम जल्दी न संभले तो आने वाले दिन और भयावह होंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)



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