पटना : मिठास और कड़वापन का अद्भुत संयोग है वाणी । ये अलग बात है कि सुननेवालों पर दोनों का प्रभाव बिलकुल अलग-अलग पड़ता है। मीठी बोली से जहाँ पराये भी अपने हो सकते हैं वहीँ गलत शब्दों चयन से करीबी रिश्तों में भी दुराव आ जाती है । इसलिए किसी भी रिश्ते में शब्दों के सही चयन की अहम् भूमिका होती है वाणी के इस मर्म को कबीर ने समझा और इस तरह कलमबद्ध किया “बोली एक अनमोल है, जो कोई बोले जानि, हिये तराजू तौलिके ,तब मुख बाहर आनि । कहते हैं मार का प्रभाव क्षणिक होता है जबकि शब्द का प्रभाव दूरगामी होता है।
बिना विचारे शब्दों का प्रयोग अधिकांशतःरिश्तों में कड़वाहट ही पैदा करती है। भाषा पर नियंत्रण रखना हर हाल में जरुरी है क्योंकि इसका एक गलत इस्तेमाल आपका न जाने कितने शत्रु पैदा कर सकता है। महाभारत की ये कहानी तो इस बात का प्रत्यक्ष उदहारण है कि भाषा हर हाल में नियंत्रित ही होना चाहिए । शायद आपको याद होगा कभी द्रौपदी ने भी दुर्योधन और कंस पर ऐसी ही कुछ अमर्यादित शब्दों का प्रयोग किया था । जिसका ऐसा भयावह परिणाम निकला कि उसका गवाह सारा हिन्दोस्तान ही हो गया। अतः भाषा हर हाल में नियंत्रित और मर्यादित ही होनी चाहिए ।कब ,कहाँ और कितना बोलना है यह अगर समझ में आ गया तो समझिये जीवन काफी सरल हो जायेगी। किसी ने ठीक ही कहा है “कुटिल वचन सबसे बुरा ,दुश्मन बने जहान । मीठी वाणी बोलकर,फैला दो मुस्कान”।
आज के परिवेश में जब हमारी युवा पीढ़ी के पास सारी भौतिक सुविधाएँ तो हैं लेकिन रिश्तों को निभाने के लिए समय नहीं है । ऐसे में रिश्तों की खानापूर्ति की जिम्मेवारी भी वाणी को ही निभानी पड़ती है ।अपना अधिकांश समय सोशल मीडिया पर बिताने वाली यह पीढ़ी भाषाई ज्ञान में अत्यंत दरिद्र है ।और सच कहें तो इनपर उपयोग होने वाली भाषा ज्यादातर वैसी ही है जिसका न तो कोई कोष है और नहीं कोई नियम । पर आज यही धडल्ले से उपयोग में है और सर्वमान्य भी ।
आज जब सारा विश्व कोरोना जैसी महामारी के गिरफ्त में है ऐसी विकट परिस्थिति में भी भारत अपनी परम्पराओं को पहले की ही तरह भरपूर निष्ठां से मना रहा है । कुछ seconds के लिए भी अगर कोई कीड़ा कान ,नाक या आँख में चला जाय तो व्यक्ति अत्यंत परेशान हो जाता है। वही हाल ज़हरीले शब्दों से होता है। सिर्फ कागज़ी पढ़ाई एवं डिग्री के होर ने मानव को करीब करीब विषाक्त बना दिया है।
अच्छे शब्दों के चयन में व्यक्ति महादरिद्र हो गया है।बात बात पर अपशब्दों का प्रयोग ने दरिद्रता दर्शाना शुरू कर दिया है। कब बोलना है,कितना बोलना है,कैसे बोलना है,किससे बोलना है का अकाल पड़ रहा है। हर घर ज़हरीले शब्दों के प्रयोग से दूषित हो चुका है, रिश्ते बिखरते जा रहे हैं। जहाँ भी जाता हूँ ,व्यथा सुनता हूँ।भाषा के ज्ञान को हीन भावना से देखने का नतीजा समाज भुगत रहा है। सोशल मीडिया पर भाषा की गिरावट हर गहराई को पीछे छोड़ चुका है। मुझे लगता है कि शब्दों की दरिद्रता के कारण ऐसा हो रहा है।
भाषा के शिक्षकों एवं अभिभावकों से आग्रह है कि कटुता कम करने के लिए शब्दों के कोष की रक्षा करते हुए बच्चों को व्यवहार कुशल बनाएं। डेली रूटीन में हमारा सामना डिग्री से नहीं व्यवहार से होता है। रक्षाबंधन के दिन हमारी रक्षा में हमेशा तत्पर पेड़ पौधों की रक्षा का संकल्प फिर से दोहराया। आज भी नज़र उठा कर देखें प्रकृति से दूर रहने वाले लोग और समाज ही कोरोना से सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं।
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