New Delhi: जब आध्यात्मिक संत महात्माओं से अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति होती है, तब सबसे पहले निराकार ब्रह्म ज्योति का दर्शन होता है।
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दर्शन किसको होता है? वह जीवात्मा को होता है। जैसे सूर्य बादलों से ढंका रहता है, वैसे ही आत्मा रूपी सूर्य की जड़ प्रकृति के तत्वों से ढंका हुआ रहता है।
आत्मा की चमक से ही हमारे मुख मंडल में चमक हो रही है, आंखों में रोशनी हो रही है। प्राण के अंदर जो अविनाशी शब्द है, जब साधन उसमें अपनी सुरति जोड़कर अभ्यास करता है, तो जीवन के अंदर ब्रह्म सूर्य की शक्ति से सूक्ष्म जगत दिखाई देता है। यही तो अध्यात्म जगत है।
जब साधक शब्द का अभ्यास करता है, तब ब्रह्म सूर्य की किरणों से ज्ञान रूपी अग्नि प्रकट होती है। इसी को योग अग्नि भी कहते हैं। योग अग्नि भौतिक सूर्य की अग्नि व यम की अग्नि से भी तेज होती है। जैसे सूर्य के उदय होने पर बिजली के बल्ब आदि की रोशनी शून्य हो जाती है। उसी प्रकार योगी जब योग अग्नि को प्रकट कर लेता है तब जड़ प्रकृति के वे सभी सूक्ष्म तत्व जल कर भस्म हो जाते हैं। जिन्होंने आत्मा के प्रकाश को रोक रखा था। फिर आत्मा रूपी सूर्य की रोशनी प्रज्वलित हो जाती है।
चित्त की ये समग्र वृत्तियां जो संसार की तरफ वरत रही थी, अब मुड़ कर आत्मा की तरफ बरतने लग जाती है। मन का अहंकार समाप्त हो जाता है, आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप में स्थित हो जाती है। प्रकृति रूपी पत्नी का जड़ प्रभाव समाप्त होकर वह आत्मा रूपी पवित्र पुरुष पति में समा जाती है। अर्थात् प्रकृति का रूहानी पवित्र भाग आत्मा रूपी पुरुष में एकाकार हो जाता है।
अब योगी को भूत भविष्य व वर्तमान का ज्ञान हो जाता है और वह काल के भय से निर्भय हो जाता है, प्रकृति उसके बस में हो जाती है। वह अब उसको पग पग पर सहयोग रकती है, यही आत्मा व परमात्मा का मिलन भी है। यही पतिव्रता धर्म भी है।
कई लोगों का कथन है, कि आत्मा परमात्मा में मिलकर वापस नहीं आती, इसको बहुत लोग सही भी मानते हैं। कि जैसे नदी सागर में मिलकर उसमें समा जाती है, उसी प्रकार आत्मा भी परमात्मा में मिलकर उसमें समा जाती है। यह उदाहरण सही नहीं है। यह कच्चे साधकों का अनुमान हैं।
जब प्रकृति आत्मा रूपी पुरुष के साथ एकाकार हो जाती है, तब वह आत्मा ब्रह्म सागर से वापस भी आती है और अपनी इच्छानुसार लोक कल्याण के लिए संसार में जन्म भी ले लेती है। आत्मा प्रकृति के बंधन से मुक्त हो जाती है।
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