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जीएसटी और अफरातफरी की घनी धुन्ध

अरविन्द मोहन: अभी कर प्रशासन और आम व्यापारियोँ की कौन कहे, खुद सरकार के मंत्रियोँ और राज्य सरकारोँ के कर्ताधर्ता लोगोँ के बीच जीएसटी को लेकर इतनी अस्पष्टता है कि पहली जुलाई के बाद इस सवाल पर अफरातफरी मचनी तय मानिये।

 और यह बात वित्त मंत्री अरुण जेतली और नीति आयोग के प्रमुख अरविन्द पनगढिया जौसे लोग भी स्वीकार करते हैँ, पर उन्हे भी यह अन्दाजा नहीँ है कि इस धुन्ध को छंटने और जीएसटी की गर्द बैठने मेँ कितना वक्त लगेगा। एक बडे चैनल द्वारा पहली जुलाई से लागू हो रही नई अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था पर आयोजित दिन भर की चर्चा मेँ केन्द्रीय मंत्री लोग ही जिस तरह परस्पर विरोधी बातेँ करते रहे उससे साफ लग रहा है कि लगभग सत्रह साल से चल रही इस चर्चा से जुडी तैयारियाँ कितनी कम हैँ और इस बडी पहल के बारे मेँ लोगोँ का ज्ञान बढाने के पक्ष पर एकदम ध्यान नहीँ दिया गया है। 

आखिरी दिनोँ मेँ सरकार और जीएसटी कौंसिल की तरफ से हल्की विज्ञापनबाजी हुई भी तो उसमेँ इस प्रयोग से जुडे प्रावधानोँ की सफाई से ज्यादा नेताओँ के प्रचार वाला पक्ष ही प्रबल है। और जितनी कोशिश सरकार या सरकारोँ की तरफ से हुई है उससे ज्यादा भ्रम उत्पादक कम्पनियोँ और इ-मार्केटिंग कम्पनियोँ ने पुराने माल को बेचने के हठकंडोँ से फैला दिया है। एक तो जीएसटी कौंसिल ने रेट तय करने मेँ देरी की और दूसरे उसमेँ भी काफी भूल-सुधार की जरूरत है। अब भूल सुधार का प्रावधान सभी मामलोँ मेँ है पर उसी के बह्रोसे अभी से दुरुस्त कदम न उठाने का मतलब तो अराजकता फैलाना होगा। जैसे रासायनिक खाद का लाखोँ टन का स्टाक कैसे निकलेगा और बिकेगा यह सवाल जब एक अखबार ने उठाया तो किसी को जबाब नहीँ सूझा। 

अभी तक खाद पर एक स एलेकर सात फीसदी तक कर लगता है जबकि पहली जुलाई के बाद यह बारह फीसदी हो जाएगा। अब छपे अधिकतम खुदरा मूल्य से ऊपर कोई चार्ज नहीँ अक्र सकता और पांच से ग्यारह फीसदी का बोझ ऐसा भी नहीँ है कि कोई होलसेलर या सामान्य विक्रेता छोड देगा या अपनी ओर से भर देगा। फिर बाजार भर मेँ पुराने स्टाक को डिस्काउंट पर बेचने का शोर यही धारणा पुष्ट करता है कि पहली के बाद कोई भारी हेर-फेर होने वाला है। एक कार कम्पनी तो इस शर्त पर गाडी बेच रही है कि अगर पहली के बाद कर घटे तो वह वह ग्राहक को हुये नुकसान की बह्रपाई कर देगी।

पर इस तरह के शोर शराबे से इतर जो मुख्य बदलाव हो रहे हैँ उनसे भी पूरा का पूरा व्यापारी वर्ग और छोटे सेवा प्रदाता डरे हुये हैँ। एक तो हर माह तीन-तीन रिटर्न भरने और साल मेँ एक पूरा रिटर्न भरने का मसला है। अब व्यापारी, खास तौर से खुद से या अपने परिवार के सदस्योँ या एक-दो सहयोगियोँ की मदद से व्यापार करने वाला कम्प्युटर से साल मेँ सैंतीस रिटर्न भरने की कानूनी बाध्यता पूरी करेगा तो व्यापार पर कब ध्यान देगा। और अगर उसका कारोबार एक से ज्यादा राज्य शामिल हैँ-माल और सेवा लेने या देने मेँ तो यह मुश्किल कई गुना बढ जाएगी। 

बडी कम्पनियोँ मेँ तो इस बारे मेँ स्टाफ होता है पर छोटे कारोबारी तो सीए और कम्प्युटर वालोँ का जेब गरमाते रह जाएंगे। यही कारण है कि एक मंत्री कहता है कि अब एक कर और सरल टैक्स भरने की विधि से व्यापारी आत्मनिर्भर हो जाएंगे और एकाउंटेंट तथा सीए का काम घटेगा तो दूसरा मंत्री एक लाख नए रोजगार पैदा होने का दावा कर रहा है। फिर  अभी तक यह कैलकुलेशन किसी के पास नहीँ है कि पहली जुलाई से किस चीज पर किस जगह क्या कर होगा। इन सबसे व्यापारी फायदे मेँ रहेगा या घाटे मेँ यह समझना मुश्किल नहीँ है। प्रासंगिक नहीँ है कि दुनिया की अधिकांश वे सरकारेँ सत्ता मेँ वापस आने मेँ असफल रहीँ जिन्होने जीएसटी लागू कराया। यह एक अप्रियता लाने वाला काम है और जब इतनी गफलत और अस्पष्टता हो तब तो नाराजगी और होगी ही।

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