Gorakhpur News: इसे सादगी भी कर सकते हैं, और ईमानदारी भी। तीन बार के विधायक और एक बार के सांसद फिरंगी प्रसाद (Firangi Prasad) अभी भी साइकिल की सवारी करते हैं। एक छोटे से कमरे में बिखरे किताबों के बीच जिंदगी गुजार रहे हैं। सपा के साथ राजनीति में सक्रिय फिरंगी प्रसाद (Firangi Prasad) अभी भी ऑटो और रोडवेज की बसों से ही सवारी करते हुए दिखते हैं। वे कहते हैं कि महराजगंज से लेकर बांसगांव तक कई ऐसे मौके आए जब ठेकेदारों ने प्रलोभन की कोशिश की। लेकिन हम कर्पुरी ठाकुर के सिद्धांतों पर चलने वाले हैं। समाजवाद के पद चिन्हों पर चलने वाले। जो पेंशन मिलती है, उसी से परिवार का खर्च चल जाता है।
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फिरंगी ने 60 के दशक में ही पढ़ाई के महत्व को समझा। उस दौर में बीएड और एलएलबी के साथ साहित्य और धर्म में विशारद किया। राजनीति में परिवार के दखल के खिलाफ रहे फिरंगी के चार पुत्र और तीन विवाहित पुत्रियां सामान्य जिंदगी गुजार रही हैं। फिरंगी कहते हैं कि ‘तब साइकिल से प्रचार को निकलते थे। कभी किसी की जीप मिल गई तो उसमें डीजल भराकर प्रचार को निकल जाते थे। जनता ही चुनाव लड़ने को रुपये और भोजन देती थी। नेताओं और जनता के बीच रिश्ता सेवाभाव का था। अब नेता और जनता दोनों एक दूसरे को व्यवसायिक नजरों से देख रहे हैं।
ऐसा है फिरंगी का राजनीतिक सफर
गोरखपुर शहर के बिलंदपुर में भरे पूरे परिवार के साथ रहने वाले फिरंगी प्रसाद विशारद की सादगी की पूरी किताब हैं। एक फरवरी 1940 को जन्में फिरंगी प्रसाद विशारद 85 वें साल की उम्र में भी पूरी तरह सक्रिय हैं। गोरखपुर के विशुनपुरा गांव के रहने वाले फिरंगी प्रसाद का सियासी सफर वर्ष 1969 में शुरू हुआ। जब वे पहली बार झंगहा विधानसभा क्षेत्र से भारतीय क्रांति दल से चुनाव लड़कर विधायक बने। 1974 में भारतीय लोक दल के टिकट पर मुंडेरा बाजार से चुनाव लड़े और जीते। साल 1975 में आपातकाल के दौरान सक्रिय रहे। गोरखपुर जेल में मीसा कानून के तहत बंद हुए। इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी उन्हें बांसगांव सुरक्षित लोकसभा सीट से टिकट दिया। पहली ही बार में उन्हें 75.25% वोट मिला। 1980 के विधानसभा चुनाव में दलित मजदूर किसान पार्टी से महाराजगंज विस का चुनाव लड़ा और जीते। 1989 में बांसगांव से जनता दल के टिकट के बाद भी चुनाव चिन्ह नहीं मिलने से निर्दल लड़े। उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी महावीर प्रसाद से हार का सामना करना पड़ा। साल 1991 में एक बार फिर उन्हें भाजपा के राजनारायण पासी से हार मिली।