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Religion and Women: धर्म की बेड़ियां और स्त्री

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Religion and Women: यह बात पुरानी नहीं है कि एक दुकान में एक महिला और उसके दुकानदार के बीच किसी बात को लेकर बहुत जोर से बहस हो रही थी। अंतत उस बहस का अंत जिस वाक्य से हुआ, वह था-“आप औरत है कहां! आप तो आदमी हैं आदमी।” महिला उस दुकान के मालिक द्वारा किए जा रहे अपमान और लिंगभेदी टिप्पणी करने से अत्यंत दुखी और आक्रोशित होकर दुकान से बाहर निकल गई। आखिर पुरुष इस सत्य को अपने अंतर से स्वीकार आज भी नहीं कर पाता है कि स्त्रियां वाहन चलाती हैं, बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेती हैं, आगे पढ़ रही हैं, बड़े-बड़े व्यवसाय संभालने लगी हैं। और अगर वह स्वीकार कर भी लेता है तो भी वह आहत होकर ही इस बात को मानता है।

यूं तो भारतीय महिलाओं की सबसे कमजोर नस है सहज रूप से दूसरों पर विश्वास कर लेना। इसी कमजोर नस का एक नाम है 'धर्म'। स्त्रियां जैसे-जैसे अधिक शिक्षित हो रही हैं उन्हें धर्म से तो नहीं लेकिन पाखंड, आडंबर और कर्मकांड से अवश्य ही दूर हो जाना चाहिए। पर क्या वाकई ऐसा हो रहा है? नहीं, ऐसा नहीं हो रहा है। आज जितने भी धार्मिक आयोजन हो रहे होते हैं देश में या अपने आस-पास, उसमें अधिकांश भीड़ महिलाओं की ही होती है। ये तथाकथित बाबाओं, मौलानाओं के पीछे-पीछे अपने परिवार की खुशी के लिए भागती दिखाई दे जाएंगी। आसाराम बापू और अनेक इस तरह के बाबाओं का माया संसार स्त्रियों के कारण ही फलता-फूलता है। तरह-तरह के धार्मिक अनुष्ठानों में ये स्त्रियां ही हैं, जो मगन होकर नाचती मिल जाएंगी। वे मीरा या राधा की तरह भाव विह्वल होना, मगन होना चाहती हैं । पर क्या वे जानती हैं कि वे जिनके सामने नाच रही हैं क्या वे भी उनकी भाव प्रवणता का या विव्हलता के लायक हैं? क्या वे उन्हें निश्छल दृष्टि से देख रहे हैं ? जबकि होना यह चाहिए था कि शिक्षित होने के बाद महिलाओं को अपने तर्कों को और ज्ञान के द्वारा इस तरह के पाखंड का विरोध करना चाहिए। क्या महिलाओं को इस बात के लिए नहीं खड़ा होना चाहिए कि जो धर्म है हमें उसे अब किस रूप में अपनाया जाए? आज के समय में वे कितने आवश्यक हैं? उनमें से कौन सी बातों को हटा देना चाहिए, तो किसको रखना चाहिए। आस्था में और रूढ़िग्रस्त आस्था में फर्क होता है। रूढ़िग्रस्त आस्था स्त्रियों को अपना अनुगामी बना देती है। अगर ऐसा न होता तो इन धार्मिक अनुष्ठानों में महिलाओं की भारी भीड़ क्यों कर दिखाई देती? और तो और धर्म का एक नया फंडा इन दिनों सोशल मीडिया पर आता रहता है, अपने घर में सुख -शांति के लिए ये टोटके कीजिए। आपके घर में धन बरसने लगेगा, उसके लिए यह प्रयोग कीजिए। यह रंग शुभ है या अशुभ है, यह किस राशि के लिए अच्छा है और यह दिन किस राशि के लिए खराब है, उसके निवारण के लिए क्या करना चाहिए, यह रंग पहनिए , यह मत पहनिए। इस तरह की रील्स पुरुषों से अधिक स्त्रियों के दिमाग को अपने बस में कर लेती हैं क्योंकि वे अपने परिवार और बच्चों की सलामती के लिए धर्म से जुड़ी इन बातों पर भी मोहर लगाती जाती हैं।

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मेरा पति मेरा परमेश्वर

कुछ महीने पहले एक संगीत संध्या के कार्यक्रम में महिलाओं के बीच मनोरंजन के लिए खेल खिलाया जा रहा था और उन्हें एक पेपर पर अपने पति के बारे में लिखे अधूरे वाक्यों को पूरा करना था। एक महिला ने उसमें एक वाक्य को इस तरह से पूरा किया, 'मेरा पति मेरा परमेश्वर है'। आश्चर्य है कि पढ़ी-लिखी महिलाएं भी कब तक इस तरह के उपदेशों वाली बातें मानती रहेंगी । जीवनसाथी परमेश्वर कैसे हो सकता है? वह तो बिना किसी लाग -लपेट के स्त्री को जीवन पर्यंत सुख -दुख में साथ देने वाला साथी होता है।

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एक और नया ट्रेंड चल रहा है बाजार में। नवरात्रों में गरबा या डांडिया आयोजन। इस तरह के आयोजन के नाम पर होता है डिस्को जिसे डांडिया या गरबा कहना डांडिया या गरबा शब्द का ही अपमान होगा। हम या तो बहुत अधिक धार्मिक यानि रूढ़िवादी धार्मिक बन जाते हैं या धार्मिकता दिखाने के नाम पर छिछली धार्मिकता का प्रदर्शन करते हैं। हर छोटे-मोटे क्लबों ,संगठनों, संस्थाओं द्वारा दुर्गा आराधना या शक्ति आराधना के नाम पर आयोजित होता यह गरबा , डांडिया नाइट महिलाओं के स्वयं ही शिकार होने का एक और उदाहरण है। रील्स बनाने के नाम पर, सुंदर से सुंदर ड्रेसअप होने के नाम पर महिलाएं एक बार फिर अधिनायकत्व का शिकार होती हैं। क्या इससे उनके सर्वोंन्मुख विकास के दरवाजे खुलते हैं? वह क्यों नहीं शिक्षित होकर अपने विवेक का सहारा लेती हैं? क्यों नहीं अपनी स्वतंत्र सोच रखती हैं? दरअसल यह स्वतंत्र सोच रखने और अपने लिए प्रतिरोध करना, मुखर आवाज उठाना, प्रतिकार का साहस पैदा करना, अपनी मानसिकता में खुलापन लाना, अपनी बौद्धिकता को बनाए रखना ये नवरात्रों में देवी पूजन के साथ-साथ अपने अंदर जगाना आवश्यक है। नवरात्रि सिर्फ 9 दिन उपवास या पूजा -पाठ करना ही नहीं होता बल्कि अपने अंदर की सोती हुई दुर्गा को जागृत करना भी नवदुर्गा की पूजा का एक भाग होता है। मुश्किल परिस्थितियों में से खुद को निकाल कर अपने को स्थापित करना सीखना चाहिए, दुर्गम रास्तों में भी अपने ऊपर संयम रखकर अपनी क्षमताओं को निखारना आना चाहिए। अपनी जिंदगी में अपनी राह बनाने के लिए न कहना भी आना चाहिए। इसके लिए अपनी ताकत को स्वयं पहचानना होगा। स्त्रियों के दम पर ही है समाज टिका है, यह धर्म टिका है। इसलिए जब-जब स्त्री स्वतंत्र सोच रखने लगती है इस धर्म की, इस समाज की बुनियादें हिलने लग जाती हैं। इसलिए स्त्रियों को स्व विवेक से धर्म और अंध धर्म में अंतर कर स्वयं के अंदर छिपी मां दुर्गा को बाहर निकलना होगा। कट्टरवादी धार्मिक सत्ता हमेशा इंसान के डर या उसकी कमजोरी का फायदा उठाती है इसलिए स्त्रियों को चाहिए कि स्वयं की मुक्ति के लिए स्वयं ही चिंतन करें। शक्ति उपासना का यह पर्व आप सबके लिए शुभ हो।

( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)



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