Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

पुराणों के अनुसार स्वाभाविक विकास या उत्क्रांति का सिद्धांत

पुराण की सबसे सरल परिभाषा है कि वोह बिना तारीख के ब्रहमांड , सौर्य मंडल के विकास का विज्ञानिक और पुराणिक इतिहास है | 
तथा, 
पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई , पृथ्वी का प्रारंभिक विकास का विवरण, फिर विकास या उत्क्रांति का विज्ञानिक, खुगोलिये और पुराणिक इतिहास भी है | 
*यह भी समझने लायक बात है कि इतनी सब सूचना देने के बाद, सनातन धर्म प्राकृतिक विकास पर आस्था रखता है ना की सृजन पर | 

*परन्तु समस्त पुराण सूत्र में लिखे गए हैं , यानी की इसका सीधा अर्थ कोइ नहीं निकाल सकता ! और यहीं से समस्या शुरू होती है | 
*सत्य तो यह है कि हरेक संस्कृत विद्वान इस बात को जानता है, और समझता है कि पुराण, महाभारत , रामायण तथा समस्त प्राचीन ग्रन्थ जिसमें वेद और उपनिषद् भी हैं, सब ‘सूत्र’ में ही लिखे हुए हैं , यानी की कोडेड हैं, बिना कोड को समझे इसका अर्थ नहीं निकल सकता | 
*क्यूंकि यह बात बताए बिना समाज का शोषण और आसान होजाता है, इसलिए पुराण आदि को मात्र भक्ति, पूजा के लिए ही प्रयोग करा जा रहा है, उसके अंदर छिपे हुए विज्ञान को जानबूझ कर हिन्दू समाज तक नहीं पहुचने दिया जा रहा है | 
**समाज का शोषण होता रहे, समाज दुबारा गुलाम बन जाए, इससे संस्कृत विद्वानों और धर्मगुरूओ को कोइ फरक नहीं पड़ता ,परन्तु, **अगर इनसब ग्रंथो में छिपा हुआ इतिहास और विज्ञान समाज तक पहुच गया. तो समाज कर्मठ हो जायेगा, विश्व गुरु बनने की और अग्रसर हो जाएगा, और फिर अंदरूनी शोषण संभव नहीं रहेगा |
यह संस्कृत विद्वान , धर्मगुरु होने नहीं देंगें !

चलिये मुख्य विषय पर आते हैं, 
पहली बात, 

अगर सनातन सौर्य मंडल और पृथ्वी का विज्ञानिक, खुगोलिये, और पुराणिक इतिहास आपको उपलब्ध करा रहा है,
तो एक बात तो तय है,
सनातन धर्म प्राकृतिक विकास पर आस्था रखता है, ना की सृजन पर !

दूसरी बात , 
जब आप पुराणिक इतिहास इमानदारी से समझने का प्रयास करेंगे , तो आप पायेंगे की ईश्वरीय शक्ति पर कुछ भी प्रस्तुति नहीं है, ‘संभावना के कानून’ , और विज्ञानिक नियमो पर ही पुराणिक इतिहास है |

तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात:
हिन्दुओ के समस्त धार्मिक ग्रन्थ इस बात पर बार बार विशेष महत्त्व देते हैं, कि हर व्यक्ति, समाज को सकारात्मक उर्जा का संशय करना चाहीये , और नकारात्मक उर्जा से दूर रहना चाहीये | और इस उर्जा के लिए सुर और असुर शब्दों का प्रयोग करा गया है | बाद में अज्ञान वश या समाज को ब्रह्मित रखने के लिए कहीं कहीं असुर के स्थान पर राक्षस या दैत्य शब्द का प्रयोग करा गया है |

कुछ उद्धारण से समझना आसान रहेगा:

1. जहाँ तक उर्जा के बात है, समुन्द्र मंथन में राहू का सर काटना और सर काटने के बाद राहू, ‘सिर’ को कहना और शरीर को केतु कहना, यह वास्तव में नकारात्मक उर्जा का प्रतीक है , जिससे ग्रहण लगता है | ‘समुन्द्र मंथन’ अपने आप में एक खगोलीय बिंदु है, जिसमें राहू केतु का जन्म होता है | 

आशा करता हूँ कि सूचना युग में आप राहू, केतु का अर्थ तो समझते होंगे | अंग्रेज़ी मैं इनको कहते हैं Lunar Nodes, और यह सदा १८० डिग्री से दूर रहते हैं | आप गूगल में Lunar Nodes ढून्ढ सकते हैं; तो यह कोइ अलोकिक शक्ति का विषय नहीं है, ठीक उसी तरह की सूर्य-देवता अपने रथ में बैठ कर पूर्व दिशा से पृथ्वी पर आते हैं, तो सुबह होती है | यह सूचना और विज्ञान का विषय है | 

नोट: सिर्फ संस्कृत विद्वानों ने , मालूम नहीं क्यूँ यह सूचना हिन्दू समाज को नहीं दी कि कलयुग के अंत मैं मत्स्य अवतार के समय राहू-केतु की मौत हो जाती है ; यानी की समुन्द्र में लहरे(मंथन) बननी समाप्त हो जाती है | लम्बे अंतराल के बाद, जिसमें शिवजी समाधि ग्रस्त रहते हैं, माँ पार्वती, विभिन्न दुर्गा रूप में पृथ्वी पर से नकारात्मक उर्जा से जो भूचाल. ज्वालामुखी तथा अन्य मुसीबत आती हैं उससे लडती हुई, पृथ्वी को सकारात्मक उर्जा की और ले जाती हैं | 

तब अंतराल समाप्त होता है, नए सतयुग का आरम्भ होता है, कामदेव शिवजी की समाधि समाप्त करने के लिए विशेष प्रबंध करते हैं, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी उनको शरीर रूपी बंधन से मुक्त करते हैं | फिर शिव पार्वती का विवाह और फिर समुन्द्र मंथन |
[महत्वपूर्ण: शिवजी “प्रसन्न” हो कर कामदेव को शरीर रूपी बंधन से मुक्त करते हैं, श्राप नहीं देते]

2. शिवजी का विष-पान जिसमें शिवजी विष को गले में रख लेते हैं , क्या विज्ञानिक सूचना देता है?

उत्तर आसान है ; अंतराल मैं लाखो करोडो टन, बड़े समुंद्री जानवरों का अवशेष राहू-केतु के समाप्त होने के बाद, यानी की समुन्द्र के शांत होने के बाद, समुन्द्र सतह पर पहुचता है, और कुछ तेल बन जाता है, कुछ जहरीली गैस बन कर सतह में फसी रहती है | यह राहू-केतु के जन्म के बाद ६०० वर्ष तक विष के रूप मैं पृथ्वी पर पहुचता है |

लोग त्राही त्राही करते हैं, ईश्वर को याद करते हैं, और पुराण मैं आ गया कि शिवजी ने विष को गले मैं रख लिया | ईश्वर के स्पर्श के बाद, विष(नकारात्मक) अब अमृत(सकारात्मक) हो जाता है | 

होता क्या है कि विष धीरे धीरे ऊपर उठता है, और फिर बादलो के पानी के साथ वापस पृथ्वी पर अमृत की तरह से बरस जाता है| और इसका प्रमाण है; सतयुग में विशाल पशु, पक्षी, जंगल और प्राकृतिक विकास से ‘वानर’ के नाम से मनुष्य की नई प्रजाति |

ईश्वर पर आस्था , एक अलग विषय है ; पुराणों की प्रस्तुति कोडड भाषा मैं इसलिए भी है, क्यूंकि समाज की क्षमता हर समय एक सी तो होती नहीं | अब वर्तमान समय ही देख लीजिये; सूचना युग में हम सब अब हैं, और अब हमारे पास क्षमता है, पुराण में छिपा हुआ विज्ञान समझ सके | बस संस्कृत विद्वान समाज के शोषण का उद्देश छोड़ दे |

कृप्या यह भी पढ़ें:
राम कृष्ण ऐतिहासिक अवतार को विद्वान शोषण हेतु कथा में क्यूँ दर्शाते हैं?
सत्य को मत दबाओ...सनातन में गुरु नहीं, भौतिक मानक और मापदंड आदर्श हैं


This post first appeared on AGNI PARIKSHA OF SITA, please read the originial post: here

Share the post

पुराणों के अनुसार स्वाभाविक विकास या उत्क्रांति का सिद्धांत

×

Subscribe to Agni Pariksha Of Sita

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×