हमारा गोत्र काश्यप है जिसे कश्यप ऋषि के नाम पर ही नामकरण किया गया है। हमारे कुल के पूर्वज सर्वप्रथम “किशनगढ़-बास” में आकर बसे इसलिए “किशनगढ़ बास वाले” कहलाने लगे, जिनकी कुलदेवी का नाम अर्चट रखा गया। हमारे गोत्र के ऋषि कश्यप के बारे में कुछ जानकारी निम्न प्रकार है –
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आदिकाल में लोकप्रिय ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करने हेतु अपने शरीर से दस मानस पुत्रों को जन्म दिया। इनमें प्रजापति ब्रह्मा की गोद से नारद, अंगूठे से दक्ष, प्राण से वशिष्ठ, त्वचा से भृगु, हाथ से क्रतु, नाभि से प्रलय, कानों से पुलस्त्य, मुख से अंगिरा, नेत्रों से अत्रि, और मन से मारीच उत्पन्न हुए। इनमें से नारद जी जैसे कुछ ऋषियों ने वर्षों तक तपस्या करने के बाद सृष्टि रचना में कोई रूचि नहीं दिखाई। तब ब्रह्माजी ने अपने शरीर के एक भाग से स्वायम्भु मनु और दूसरे भाग से शतरूपा का स्त्री पुरुष का जोड़ा प्रकट किया तथा उन्हें मैथुन क्रिया से सृष्टि की रचना करने का आदेश दिया। ब्रह्मा पुत्र मारीच ऋषि का विवाह कर्दम ऋषि की पुत्री कला से हुआ जिससे उनके दो पुत्र कश्यप और पूर्णिमा उत्पन्न हुए। कश्यप ऋषि का जन्म कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को हुआ था। उनका विवाह दक्ष की कन्या अदिती से हुआ जिनके गर्भ से दो आसुरी प्रकृति के अत्यन्त बलशाली पुत्रों ने जन्म लिया जिनके नाम थे हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु, जिनको भगवान ने स्वयं वाराह तथा नरसिंह अवतार लेकर संहार किया।
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महर्षि कश्यप ने वेदों का अध्ययन किया तथा ऋग्वेद की ऋचाएँ भी लिखीं। जमदग्नि-नन्दन परशुरामजी ने सारी पृथ्वी पर आततायी क्षत्रिय राजाओं का विनाश कर अश्वमेध यज्ञ किया था जिसके पुरोहित महर्षि कश्यप थे। यज्ञ की समाप्ति पर परशुरामजी ने अधीन सारी पृथ्वी कश्यप ऋषि को दान में दी थी तथा अपने लिए भारत के पश्चिमी तट पर समुद्र से नई भूमि लेकर रहे। इस प्रकार कश्यप ऋषि को पृथ्वी का स्वामी व सृष्टि-कर्ता के रूप में पूजा जाता है।
‘कुलदेवी ज्ञान चर्चा संगम’ से साभार, लेखक- मथुरा प्रसाद भार्गव
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