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अपना अपना सामान पकड़े हम दोनों रेलवे स्टेशन से बाहर निकले | सामने खेत-खलिहान की लम्बी कतारें थीं मगर ज्यादातर में सिर्फ फसलों की बजाय सिर्फ मिट्टी ही दिख रही थी | शायद बीज बोने का समय रहा होगा या पुरानी फसल काटी गयी होगी | मुझे कृषि के बारे में कोई जानकारी नहीं है इसलिए बता नहीं सकता क्यों खालीपन सा नज़र आ रहा था | हालाँकि मेरा सूटकेस पहिये वाला, ट्रौली वाला था मगर कच्ची उबड़-खाबड़ जमीन पर उसे धकेल के ले जाना आसान नहीं था | बार बार उसका संतुलन बनाये रखने में और असंतुलित होने पर पलट कर सीधा करने में मुझे रुकना पड़ता था | परिणामस्वरूप, स्टेशन की बिल्डिंग से बाहर आते-आते मैं बृजेश से काफी कुछ पिछड़ गया था |
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स्टेशन की बिल्डिंग के मुख्य-द्वार से निकलते ही, मैंने बृजेश को ढूंढना शुरू किया और देखा कि सामने थोड़ी दूर पर एक ईंटों के चबूतरे पर घुटने मोड़ कर अकड़ू बैठे एक आदमी से बृजेश कुछ वार्तालाप कर रहा था | वो एक दुबला पतला सा आदमी था, देखने में बृजेश से थोड़ा कमजोर ही था शरीर-सौष्ठव में | उम्र में शायद बृजेश से दस-बारह वर्ष अधिक वय रही होगी उसकी | एक नीली-बादामी रंग की बड़े बड़े आकार के चैक वाली शर्ट के नीचे गहरे भूरे रंग की पैंट और पैरों में चप्पल, जिसमें से धूल-धूसरित उसके मटमैले, फटे हुए से पैर साफ़ बता रहे थे कि वो महाशय इसी तरह गाँव की कच्ची मिटटी में अपने पैरों को अक्सर रगड़ते रहने के आदि होंगे | जूते पहनना उनके स्वाभाव में नहीं रहा होगा | एक हाथ में एक काले रंग की लकड़ी की बेंत पकडे हुए, दूसरे हाथ से बीड़ी का कश लगते हुए बृजेश से बातें कर रहे थे | अपना सूटकेस लेकर जब मैं उनके सम्मुख, बृजेश के पीछे खड़ा हुआ तो एक उड़ती सी नज़र से उसने मुझे देख कर नज़रंदाज़ करते हुए, बृजेश से अपना वार्तालाप समाप्त करते हुए कहा , “ठीक है ! अम्मा घर पे ही हैं | तुम पहुँचो |” बृजेश ने मेरी ओर देखा और बोला, “आइये चलें” और हम दोनों एक पलती पगडण्डी की ओर चल पड़े जो खेतों के बीच से होती हुई दूर कहीं लेकर जाती थी |
थोड़ा आगे चलते ही बृजेश ने मुझसे मेरा सूटकेस लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो मैंने फिर आनाकानी की | घर से चलते समय मैंने सोचा तो था कि शायद स्टेशन पर कोई कुली मिल जायेगा जो बाहर किसी टेम्पो, या रिक्शा तक मेरा सामान रखवा देगा और फिर घर पहुँच कर मैं आराम से उसे उतार के रख लूँगा, मगर यहाँ न तो कोई कुली था, न कोई रिक्शा या अन्य कोई वाहन | खुद अपना सामान ढो कर पैदल चलना पड़ेगा, अगर ऐसा पहले पता होता तो मैं कपड़े और सामान कम लाता | “आप अपना सूटकेस मुझे दे दीजिये मैं आसानी से दोनों ले कर चल सकता हूँ | मुझे सेना में रोज इसी तरह कसरत करने कि आदत सी हो गयी है | मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी | और फिर मैं ठहरा गाँव का छोकरा, ये तो कुछ भी नहीं हम तो क्विंटल भर के बोरा-कट्टा ले कर एक गाँव से दूसरे गाँव तक आया जाया करते हैं | आपका सूटकेस तो उसके आगे कुछ भी नहीं | अभी एक-डेढ़ किलोमीटर हमें पैदल ही चलकर जाना पड़ेगा |” बृजेश के समापन-वाक्य से मेरी रही सही हिम्मत टें बोल गयी | अभी तो मुश्किल से १०० गज ही चल होऊंगा और इतने में ही मैंने हाँफना शुरू कर दिया था क्योंकि अपने सूटकेस के साथ मुझे थोड़ी थोड़ी देर में कुश्ती से कम मेहनत नहीं करनी पड़ रही थी | ऊपर से जोर लगाने से जो उर्जा क्षय हो रहा था, उससे गर्मी के मौसम में खुले खेत-खलिहानों में से बहकर आने वाली हवा के झोंकों के बावजूद मैं पसीने से तर-बतर हो रहा था | “अभी डेढ़ किलोमीटर और” सुनकर जैसे मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक सी गयी थी | मैं अच्छी तरह जानता था कि मेरी इनती सामर्थ्य नहीं थी | फिर मैंने बृजेश की ओर देखा – उसका कसा हुआ बदन, कद-काठी, और उर्जा, उसके शब्दों की गवाही दे रही थी | उसके ये सब बोलते हुए उसके चेहरे पर जो हमेशा की तरह मधुर मुस्कान थी, वो मेरे संकोच को दूर करने में और मुझे आश्वस्त करने में सक्षम थी | “अच्छा तुम अपना बैग ही मुझे पकड़ा दो | तुम सारा बोझ ढो और मैं खाली हाथ चलूँ, ऐसा कैसे हो सकता है भला?”, मैंने अपनी राय सामने रखी | मगर, बृजेश नहीं माना और उसने मुझसे मेरा सूटकेस भी ले लिया यह कह कर कि इससे हम दोनों तीव्र गति से चल सकेंगे और जल्दी घर पहुँच सकेंगे |
“भईया आपको लिवा लेने के लिए स्टेशन आने वाले थे बाइक पर, मगर अभी पिता जी से पता चला कि कुछ ज़रूरी सामान लेने उनको शहर जाना पड़ा | अब हमें पैदल ही जाना पड़ेगा |”, बृजेश ने चलते-चलते बताया | मुझे हैरानी हुई | बृजेश ने सब पहले से ही योजनाबद्ध होकर बंदोबस्त कर रखा था कि मुझे किसी भी प्रकार कि असुविधा न हो | मुझे पैदल न चलना पड़े, यह भी वो पहले ही सोच कर इंतजाम करके आया था | मगर शादी वाले घर पर भागदौड़ तो लगी रहती है – कभी ये सामान तो कभी वो सामान लाने का जिम्मा घर के पुरुषों को ही सौंपा जाता है | ऐसे में बृजेश के प्रयत्न के असफल होने के बावजूद मुझे बृजेश जैसे सौहार्दपूर्ण, संकोचमय, और धीर-घम्भीर मित्र पाकर आपने भाग्य पर और खुद पर गौरवान्वित होने का एहसास होने लगा |
“रुको एक मिनट ! तुम्हारे पिताजी से तुम्हारी बात कब हुई?”, मैंने आश्चर्य चकित होते हुए पूछा | ऐसा नहीं था कि मुझे बृजेश के ऊपर असत्य बोलने का संदेह था, मगर मैं जानना चाहता था कि पूरे समय जब हम दोनों साथ साथ थे तो मैंने उनके पिता जी को कैसे नहीं देखा और उनका अभिवादन न कर पाने पर वो मुझे कहीं गलत संस्कारों वाला अकडू शहरी लड़का न मान बैठे हों | “अरे ! आप जब स्टेशन से बाहर आये थे तो मैं पिता जी से ही तो बात कर रहा था |”, बृजेश ने संशय दूर करते हुए बताया | “धत तेरे की !”, मैंने अपने आप को कोसा | वो जो सज्जन, ईंटो के चबूतरे पर बैठे हुए, बीड़ी पीते हुए बृजेश से बात कर रहे थे, वो ही बृजेश के पिता थे | मगर पिता पुत्र में १०-१२ साल का ही फर्क होगा, ऐसा मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था | मुझे लगा था कि कोई पड़ोसी या कोई मौसी का लड़का या अन्य कोई रिश्तेदार होगा | या शायद मुझसे ही उम्र का सही अंदाज़ा लगाने में गलती हुई हो | मगर वो किसी भी हालत में 35 वर्ष से ऊपर की आयु के नहीं लगते थे | कुछ लोग होते हैं जिनकी उम्र उनकी वास्तविक उम्र से कम लगती है, वो जवान लगते हैं | यही सब सोचते सोचते मैंने बृजेश से बोला, “तुम्हें मुझे बताना चाहिए था | कम से कम मैं उनको प्रणाम करके उनका आशीर्वाद ही ले लेता | अब वो मेरे बारे में क्या सोचते होंगे ? तुमने सुना ही होगा …The First impression is the last impression”, मैंने अपनी दुविधा का कारण सामने रखते हुए बृजेश से शिकायत भरे लहजे में कहा | “अरे ! आप चिंता मत करो, यहाँ कोई इतना ध्यान नहीं देता है | गाँव है, सब ऐसे ही रहते हैं – सादगी से | ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं है | घर चल कर मिल लेना आप पिता जी से |”, बृजेश ने मेरा संताप कम करते हुए आश्वस्त करने का प्रयास किया | थोड़ी देर में, सामने से दो मोटरसाइकिल सवार आते हुए दिखे और हमारे पास आकर रुके | बृजेश उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ और फिर एक बाइक के पीछे मैं और दूसरी में बृजेश को बैठा कर हम सब घर की ओर अग्रसर हुए | बृजेश के चचेरे भाई की अनुपस्थिति में, जिसे हमें लाने की जिम्मेदारी दी गयी थी, किसी और को ढूँढने में थोड़ा समय तो लगता ही है और इतने समय में हम करीब आधी दूरी तय कर चुके थे | अब भी हमारी मंजिल लगभग आधा किलोमीटर दूर थी और इतने सामान को ढो कर पैदल जाने से, किसी सवारी में बैठ कर जाना निश्चय ही उचित निर्णय था |
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