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द्वन्द !

मुक्त उन्मुक्त भाव से
ह्रदय पटल विराजते
अनेक ‘नेक’ द्वन्द हैं
प्रबुद्ध-जन स्वीकारते !

हमारी सभी की अवस्था यही है कि हम अपने अपने द्वंदों में फंसे हुए हैं | सभी को यह द्वन्द उचित लगते हैं जिनका निराकरण हम आसानी से नहीं कर पाते – इसीलिए तो वे अभी भी दो-राहे की तरह खड़े हैं हमारे सामने !

द्वन्द का मिथक यह,
जीवन की लालिमा |
द्वन्द हट गया जभी
अद्वंद एक परमात्मा !

यह द्वन्द ही तो इस जीवन का मूल है ! इसी मैं-मेरे, तेरे का भेद ही तो इस सृष्टि का कारण है | यदि यह द्वान्दात्मक संशय ख़त्म हो जाए, तो सभी भेद मिट जाएँ और सिर्फ एकसार एक परमात्म तत्व ही रह जाएगा |

मुक्त हैं, स्वतंत्र हम
समर है अपने आप से
कैसी मुक्ति? मूक है !
समर प्रांगण की कालिमा !

हम खुद को मुक्त समझते हैं, अपने को स्वतंत्र मानते हैं | कितने मिथ्याचारी हैं हम ! जबकि हमारा अपने आप से ही नित्य युद्ध होता रहता है | हम खुद को समझाते हैं, खुद से, परिस्थितियों से समझौता करके बार बार एडजस्ट करने की कोशिश करते रहते हैं | अपने नीतियों, नियमों, सिद्धांतों से समझौता करते रहते हैं | क्या यही वास्तविक मुक्ति है? आपने अन्दर झाँकने पर हमें अपने खुद से निरंतर होते युद्ध की कालिमा मूक कर देगी | हमें किसी और से पूछने या बताने कि आवश्यकता ही नहीं है |

विजय दश द्वार पर,
उन्मुक्त घोष नाद से !
न जय जो कर सके कभी,
प्रबल प्रहरी द्वार के !!

हम अपने शरीर पर अपना मालिकाना हक़ जताते फिरते हैं | पागलों की तरह उन्मुक्त घोष-नाद करते हैं कि हम इस शरीर के मालिक हैं, लेकिन इस शरीर में जिसमें दश-द्वार हैं, उसे जीतना तो दूर, हम तो उसके द्वार के प्रहरियों (इन्द्रियों) को भी कभी उनके भोगों (विषयों) में लिप्त होने से रोक नहीं सके ! जब हम उन प्रहरियों को ही नहीं विजय कर सके, तो इस शरीर पर विजय कैसे प्राप्त हो सकती है?

बार-बार देखते,
इधर-उधर उत्साह से !
‘विजय’ सदा विराजती,
‘भीतर’ प्रवाह से !

एक मतवाले बन्दर की तरह, विजय के दंभ में फूले समा कर, हम बाहर की तरफ, दूसरों के तमाशे देखते हैं और दंभ में फूले समाते हैं | जबकि हमारी विजय कि असल राह तो भीतर कि यात्रा से, आत्म-चिंतन और आत्म-मंथन से ही निकलती है | वाह्य जगत से अंतर्मुखी होने से ही उस विजय पथ पर अग्रसर हो सकेंगे जो हमें सच्ची विजय दिलाएगा |



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