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बृजेश : एक परिचय (भाग-१)

बात कुछ एक वर्ष पुरानी है | स्नातक की शिक्षा ग्रहण करते हुए जब मैंने नए सत्र में, नए विद्यालय में प्रवेश लिया, तो नए वातावरण और नए मित्र मिलना स्वाभाविक ही था | वैसे भी किसी से हँस बोल के दो मीठे बोल बोलने में कौन सा टैक्स देना पड़ता है ? और जो आपके पास स्वयं नैसर्गिक मुस्कराहट के साथ मित्रता के भाव के साथ आये, उसके इस उपकार के लिए कोई और सम-सामयिक उपहार उपयुक्त नहीं हो सकता |

बृजेश से मेरी मुलाकात गणित की कक्षा में हुई | गठीले बदन वाला, गेहुआं रंग, ६ फीट की लम्बाई उसके व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती थी और चुस्ती-फुर्ती बताती थी कि वो शारीरक रूप से कितना एक्टिव है | बालों के कटने के स्टाइल और कपड़ों को देख कर सहज ही अंदाजा लग जाता था कि किसी प्रतिष्टित ब्यूटी सैलून या ब्रांड का शौक नहीं है, और साधारण या परंपरागत गाँव की पारिवारिक पृष्ठभूमि से नाता रखता है | कपडे कोई खराब नहीं थे, साफ़-सुथरे धुले हुए, मगर यह स्पष्ट दिखता था कि उसने कभी कोई फैशन की परवाह नही की| सीधी-साधी कमीज़ और पतलून या जींस की पैंट| ज्यादातर स्पोर्ट्स शूज के साथ या कभी कभार सैंडल| बालों में हल्का तेल लगा कर, आँखों के किनारे में में हल्का सा काजल, करीने से सवाँरे गए उसके बाल, हालांकि ज्यादातर सहपाठियों के लिए हंसी-मजाक का माध्यम थे मगर मेरी नज़र में ये उसकी सादगी को स्पष्ट परिभाषित करते थे | स्पष्ट था कि वो शहरी लाग लपेट से दूर था |

कक्षा के अधिकाँश छात्र-छात्राएं शहरी चका-चौंध से भरपूर, आधुनिक फैशन और स्टाइल के परिधानों से सज्ज, भिखारियों को भी मात देते हुए लगते थे मगर फिर भी फैशन के नाम पर अपने सुन्दरता या गठीले बदन के दिखावे के लिए अपने माँ-बाप के पैसों को उड़ाने से कभी परहेज़ नहीं करते थे | शायद बृजेश भी इस नए वातावरण में अपने को कुछ अकेला सा महसूस कर रहा था | उसकी असहजता इसी बात से नज़र आ जाती थी कि उसके मित्र मंडली के नाम पर दो-चार लोग ही थे जो उसके साथ बैठेते थे लेक्चर के समय और उन्ही से उसकी बात चीत होती थी |

किसी से बात करने ने नाम पर उसे कोई संकोच नहीं था | बृजेश से जब कभी बात हुई तो लगा कि वो आत्म-विश्वास से परिपूर्ण है और जैसा भी है उस पर उसे कोई ऐतराज नहीं है, मगर शायद उसकी कच्ची पक्की अंग्रेजी इन शहरी लड़कों को ज्यादा रास नहीं आती थी या शायद उन्हें अपने स्तर कि नहीं लगती थी | और फिर उन सबके पास ज्यादा समय भी नहीं था | अधिकांश समय तो नयी सुंदरियों से सेटिंग करने और उस सेटिंग की प्लानिंग करने में ही गुज़र जाता था सबका |

लड़कियों से बातचीत के मामले में थोड़ा संकोची अवश्य था वृजेश | और आप मानें या न मानें , आज के युग में अच्छा रूप-रंग और दिखावा ही निर्धारित करता है आपका सामाजिक ताना-बाना कैसा होगा | आजकल लोगों को गुण-दोष आपके पहनावे और सूरत की चमक-दमक से नज़र आते हैं, सीरत से नहीं | शायद कुछ लोगों को उसे गंवार मान के उसके उपहास बनाने में ही ज्यादा आनंद मिलता था, हालांकि उसका डील-डौल देखकर उसके सामने उसका उपहास करने में किसी की हिम्मत नहीं होती थी | बाकी लोगों को अपने काम से मतलब था, तो दोस्ती भी बिना मलतब के कैसे करते? लोगों के अनुमान के मुताबिक बृजेश के पास उनके मतलब का कुछ नहीं था |

मेरा शुरू से ही स्वभाव रहा है – कक्षा में आगे कि पंक्ति में बैठना | एक तो अध्यापक के बातों से ध्यान भंग नहीं होता, दूसरा माहौल पढाई कि तरफ ही रहता है, इधर-उधर कि बातों में भटकता नहीं है | मेरे संगी साथी भी मेरे साथ ही आगे की दो पंक्तियों को घेरे हुए मेरा इंतज़ार करते थे और यदि मैं कभी थोड़ी देर से कक्षा में पहुंचता तो मेरे लिए आगे की पंक्ति की सीट सुरक्षित रखी गयी होती थी | मित्र-मंडली का ये फायदा तो था ही |

पहला लेक्चर शुरू हुआ, तो ज्यादा ध्यान किसी ने किसी पर नहीं दिया, हाँ, लड़के-लडकियां अपने अपने ‘मोहब्बत’ का नाम जानने को उत्सुक ज़रूर थे | एक आपसी परिचय की छोटी परिचर्चा हुई और पीरियड ख़त्म | बात फिलहाल सिर्फ गणित के सत्रों की करेंगे जहां हम दोनों सहपाठी थे | पहले सत्र में परिचय सम्मलेन हुआ था, दूसरे सत्र में गणित ने रफ़्तार पकड़ ली | तीसरे सत्र में हवा कि सैर होनी शुरू हो गयी और अधिकांश छात्रों को आपस में अपने-अपने ग्रुप में विचार-विमर्श करते हुए देखा जा सकता था | गणित था ही ऐसा विषय | १२वीं कक्षा के गणित के बाद, गणित भी जवान हो चुकी थी और गणित के ये नए जवानी वाले रूप-रंग और तेवर सभी के लिए नए थे | सभी अपने अपने तरीके से गणित को अपने वश में करने कि पूरी कोशिश कर रहे थे, मगर अन्य सुंदरियों के तरह गणित भी रोज़ नए नखरे अड़ाती रहती थी और किसी के भी काबू में आने को तैयार नहीं थी | अब तक, काफी लोगों के आपसी ग्रुप बन चुके थे जो साथ साथ बैठते थे, वे उसी ग्रुप में शामिल होते गए|

करीब पांचवें सत्र के बाद मैंने देखा की मेरी पीछे वाली पंक्ति में एक नया व्यक्ति हमारे ग्रुप में आ के बैठा हुआ था – बृजेश ! मेरी मित्र मंडली भी मेरी तरह ही है, तभी हमारी आपस में इतनी बनती भी है | किसी का अनावश्यक अनादर नहीं, और सभी से मित्रवत व्यवहार | हमारी दोनों की आँखें मिलीं, और एक स्वाभाविक मुस्कराहट के आदान-प्रदान के साथ हमने एक दूसरे का स्वागत किया |हम दोनों एक दूसरे के विपरीत छोर पर बैठे थे – मैं आगे वाली प्रथम पंक्ति में सबसे बाहर की बायीं सीट पर बैठा था तो बृजेश मेरी पीछे कि पंक्ति में सबसे दूर वाली दायीं सीट पर | दोनों पंक्तियों में कुल मिलाकर १४ महारत्न विराजमान थे – ७ -७ का बंटवारा !

मेरा बैठेने का स्थान लगभग निश्चित था – प्रथम पंक्ति में, और लगभग-लगभग उसी किनारे वाले बायीं सीट पर, या कभी कभार अन्दर कि एक या दो सीट खिसक कर | ऐसा तब होता था जब कोई मेरी मण्डली का मित्र देरी से पहुँचता तो मुझे भी मित्र-धर्म निभाते हुए उसे अपने स्थान पर बैठने के लिए खिसक के अन्दर वाली सीट पर होना पड़ता था | पता नहीं क्यों बाकी के लोग जो मेरे साथ बैठे होते थे.. वे न तो मुझे पीछे जाने देते थे और न ही अपना स्थान खाली करने को तैयार होते थे | सिर्फ एक ही उपाय शेष बचता था, कि उस नवागंतुक को भी अपने साथ अपनी सीट पर ही समायोजित किया जाए | अगले दिन बृजेश को भी यही दिक्कत हुई | पिछले दिन तो उसको एक सीट मिल गयी थी क्योंकि हमारा एक साथी अनुपस्थित था, मगर आज जब वो आया तो हमारी दोनों पंक्तियाँ पूरी तरह से पैक थीं | किसी भी नए के लिए जगह नहीं | मित्र-मंडली के अधिकाँश सदस्य तो मेरे साथ मेरे ही विभाग में थे (कुछ एक को छोड़ कर, जिनमें से बृजेश भी एक था) और हम सब एक साथ ही गणित कि कक्षा में पहुँचते थे पिछले विषय के सत्र कि समाप्ति पर | इसलिए हमारा ग्रुप पूरी पूरी बेंच पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता था |

बृजेश किसी अन्य विभाग में था और किसी अन्य पाठ्यक्रम की कक्षा पूर्ण करके इस गणित कि कक्षा में आता था | बृजेश ने आकर देखा तो दोनों पंक्तियाँ भरी हुई थीं | थोड़ी देर तो वहीँ द्वार के पास खड़ा-खड़ा सोचता रहा, और फिर धीरे धीरे हमारी तरफ आया | एक मिनट को मेरी सीट पर रुका, और फिर अपना दायाँ हाथ मेरी तरफ आगे बढ़ाकर बोला, “बृजेश!” | मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाकर उसका अभिवादन स्वीकार किया और अपना नाम बताकर अपना परिचय भी दिया | उसके हाथ बहुत सख्त थे, जैसे अक्सर भारी भरकम काम करने वाले लोगों के होते हैं, या शायद कसरत कर के हुए होंगे क्योंकि उसका शारीरिक संगठन भी ऐसा ही था |

उसके बाद बृजेश पीछे जा के, ३-४ पंक्तियों के बाद, खाली सीट पर बैठ गया | बृजेश के जाने के बाद जब मैंने मुड़कर अमन की तरफ देखा, जो मेरे बगल में बैठा था, तो उसका मुंह गुस्से में लाल हो रखा था | मैंने पूछा क्या हुआ, तो बोला, “आज कल तो भलाई का ज़माना ही नहीं रहा | इस बृजेश को ही देख लो, कल एक दिन साथ बैठेने को क्या दे दिया, आज सीधा घर-जमाई बन के आ टपका सीट पर अपना हक जमाने” |

मुझे उसके गुस्से पर और उसके जुमले पर हंसी आ गयी |हँसते हँसते मैंने पूछा, “किसका घर-जमाई?… और भले मानुस ! ये तो बताओ, सीट पर कब्ज़ा हमने किया हुआ है या उसने? वो तो सिर्फ हाथ मिलाने आया था.. उसने तो कुछ नहीं कहा?”

मेरे प्रश्न से अमन निरुत्तर हो गया था | वास्तविकता भी यही थी | पता नहीं उसे किस बात कि चिढ थी जो यूँ निकली | फिर मुंह बनाकर, मुझे सावधान करता हुआ बोला – “जो भी हो ! मुझे तो ये लड़का ठीक नहीं लगता | तुम भी बच के रहना इससे | फ़ालतू में लोगों के मुंह मत लगा करो | क्या ज़रूरत थी तुम्हें हाथ मिलाने की?” अंततः उसके मन की पीड़ा निकल ही गयी उसके शब्दों में |

जलन और ईर्ष्या ! बहुत दुखदायी होती हैं | अमन को गुस्सा बृजेश पर नहीं था | कल अमन ही बृजेश के साथ बैठा था और खूब हँस हँस के बात कर रहा था | उसका गुस्सा उसकी ईर्ष्या का परिणाम था – उसे अपना मित्र (मैं) और उस पर उसका स्वत्व बाँटना पड़ता एक नए आगंतुक की वजह से | कल तक तो दूरी थी (बृजेश और मेरे बीच), तब तक सब ठीक था | और फिर ये तो एक अस्थायी व्यवस्था थी (अमन के अनुमान के अनुसार) जो बस एक सत्र तक ही सीमित थी |मगर आज बिन बुलाये मेहमान की तरह बृजेश सीधा अपना हक समझ कर मेरे पास आ पहुंचा था, जो अमन को बर्दाश्त नहीं हुआ |

“अपनी सौतन को देख कर शायद ऐसा ही गुस्सा आता होगा”, मैंने हंसी में चिंगारी छोड़ते हुए कहा | मेरी बात सुनकर बाकी के लोग भी ठहाके मार के हँस पड़े | इससे अमन झुंझला गया | और गुस्से में पैर पटक कर बोला, “मेरा क्या..! मैंने तो बता दिया.. आगे तुम्हारी मर्जी ..मेरा कुछ नहीं जाता ! कल को फिर मत कहना मैंने बोला नहीं था|”, और मुंह फुला कर सर सीट पर रख कर सोने की एक्टिंग करने लगा | मुंह ज़मींन कि तरफ कर रखा था ताकि कोई देख न सके, मगर उसके पीठ पर देख के ही पता चल रहा था कि वो रो रहा था |

अमन थोड़ा सा पगला है | मासूम भी है | पल में तोला, पल में माशा ! मुझे लेकर बचपन से ही थोड़ा आग्रही रहा है | मुझे अपना अधिकार क्षेत्र समझ कर, किसी के साथ भी आसानी से बाँटने को तैयार नहीं होता | और इसको सबसे ज्यादा चिढ और दुःख भी मेरी बातों से ही होता है, मगर फिर भी अपना बे-इन्तहा प्यार लुटाता रहता है | इसे सिर्फ प्यार लुटाना आता है, बदले में प्यार मिले या न मिले उसकी परवाह इसने कभी नहीं की | मगर मुझे तो रहती है इसकी परवाह – चाहे ऊपर से न भी दिखाऊँ, मगर दिल कि बात तो समझ आ ही जाती है |

मैंने प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा, और झुक कर उसके कान के पास अपने होठ ले जाकर धीरे से बोला, “अच्छा बाबा ! माफ़ कर दो | गलती हो गयी | अगली बार तुम से पूछ कर हाथ मिलाऊंगा” |

“चल भी अमन ! बहुत हुआ.. अब बंद कर अपना ड्रामा !!”, रतनजोत समझाने की तर्ज में बोला | उसका ढंग ऐसा ही है |

“ये ऐसे नहीं मानेगा !… इसे तो मेरी उंगलियाँ ही मनायेंगी”, कह कर मैंने अपने हाथों से उसकी पीठ पर और पेट पर गुद्गुदी करनी शुरू कर दी | अमन को गुदगुदी बर्दाश्त नहीं होती | मेरी उँगलियों की चाल के अनुरूप उसकी पीठ और कमर नाचने लगी, मगर सिर तब भी नहीं उठाया पट्ठे ने !

इतनी देर में प्रोफेसर क्लास में प्रविष्ट हुईं और सभी उनके सत्कार में खड़े हो गए | मजबूरी में ही सही, अमन को भी खड़ा होना पड़ा | उसके गोरे-गोरे गाल उसके बाहों के दबाव से गुलाबी हो गए थे और उसकी आँखें अभी भी नम थीं | आँखों का गुलाबीपन उसके रोने की गवाही दे रहा था | खड़ा होने पर मेरी और देख कर अमन ठीक वैसे ही मुस्कराया जैसे एक अबोध, निश्छल बालक उठ के देखता है और फिर से दोस्ती करने को अपनी मुस्कराहट के साथ आमंत्रण देता है |मन से बालक ही तो है अमन ! ऐसा निष्कपट, निश्छल, प्रेम-परिपूर्ण मन, व्यक्स्कों में कहाँ मिलता है ?

बैठने से पहले, अमन ने पीछे मुड़कर बृजेश की तरफ एक विजेता के भाव से देखा, और मैंने भी | मैं यह जानने को उत्सुक था कि अमन किसे इतने ऐंठ के देख रहा है अपनी आँखों में “विजेता” होने की चमक लिए | अमन बृजेश को देख कर मुस्कराया और फिर हम सब वापस बैठ गए | लेक्चर शुरू हो गया |

(शेष … आगामी अंक में …!)



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