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राजधर्म एवं 'चुनावी निर्ममता'

  • परिणामों-प्रभावों से अधिक, अपनी निर्ममता के लिए याद किये जायेंगे 2021 के चुनाव 
  • यह बात दुहराई जानी चाहिए कि पश्चिम बंगाल के लिए 'ब्रांड मोदी' को रिस्क में डालने का जोखिम उठाया गया है!  
Rajdharma evam Chunavi Nirmamta, Kingdom and Election toughness

लेखक: मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली 
Published on 4 May 2021 (Last Update: 4 May 2021, 3:40 PM IST)

पांच राज्यों, पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी चुनाव के परिणाम आ गए हैं, तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पंचायत चुनाव के परिणाम भी घोषित हो चुके हैं!
पर क्या आप कल्पना करेंगे कि कई गांवों में लोग जीत का जश्न तक मनाने से परहेज कर रहे हैं, क्योंकि उन्हीं गाँवों में कोरोना के कारण कई लोगों की डेथ हो चुकी है!

जाहिर तौर पर गांव के लोग अपेक्षाकृत कम बेशर्म हैं, बजाय उन लोगों से जो राज्यों की चुनावी जीत का न केवल जश्न मना रहे हैं, बल्कि एक दसरे पर जानलेवा हमले करने से भी नहीं चूक रहे हैं.
पश्चिम बंगाल में जमकर खूनी हिंसा शुरू हो गई है और दसियों लोगों की जान तक जा चुकी है, जिस पर केंद्रीय गृह मंत्रालय हरकत में है. पर यह लेख चुनावी परिणामों और उसके प्रभावों पर चर्चा करने के लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि यह लेख याद दिलाना चाहता है कि चुनाव आयोग समेत तमाम राजनीतिक दलों ने किस हद तक निर्ममता की है!

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चुनावी सरगर्मियां बढ़ाना, हर स्तर पर कोरोना को अनदेखा करना, नियमों की अवहेलना से लाखों लोगों को मौत की मुंह की ओर जानबूझकर धकेलने की 'निर्ममता' की चर्चा ही 2021 के चुनावों, खासकर विधानसभा चुनावों का असली हासिल है!
राजनीति, इतनी 'निर्मम' हो सकती है, यह इससे पहले शायद ही कभी इतने स्पष्ट ढंग से देखा गया हो...

सामान्य स्थितियों में इसे नरसंहार कहा जाता!

लाखों लोग जहां देश भर में पीड़ित हैं, हॉस्पिटल की व्यवस्था चरमरा गई है, ऑक्सीजन की मांग इतनी अधिक है कि उसका कुछ हिस्सा भी पूरा नहीं हो पा रहा है, अमेरिका - ब्रिटेन जैसे अन्य विकसित देशों के अलावा विकासशील देशों और पिछड़े देशों तक से भारत को मदद की जा रही है, ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग ने यह संदेश देने में कसर नहीं छोड़ी कि सब कुछ ठीक है, सब नॉर्मल चल रहा है, चुनावी रैलियां बिंदास चलती रहेंगी, रोड शो चलते रहेंगे, प्रत्याशियों के प्रचार नॉर्मल चलते रहेंगे... आखिर कोई पहाड़ थोड़े ही न टूटा है!
यहां तक कि चेन्नई हाई कोर्ट ने यह तक कह डाला कि लोगों की मौत के लिए सीधे तौर पर चुनाव आयोग के अधिकारी जिम्मेदार हैं, और उन पर हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए!

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यह कोई साधारण कमेंट नहीं है, किंतु इसमें सिर्फ चुनाव आयोग को ही अकेले क्यों घसीटा जाए? 

केंद्र सरकार से लेकर तमाम राज्य सरकारें और तमाम पॉलिटिकल पार्टीज से लेकर तमाम समाजिक संगठन इस स्थिति के लिए क्यों नहीं जिम्मेदार ठहराया जाने चाहिए?

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चुनाव जहां होने ही नहीं चाहिए थे, वहां एक - दो - तीन चरणों की बजाय ,चार चरणों की बजाय, 8 चरणों में चुनाव कराए गए!
छोटे कार्यक्रम के तहत चुनाव जहां जल्दी निपट सकता था, वहां इसे महीनों तक खींचा गया, किसी भी स्तर पर भीड़ इत्यादि रोकने के लिए चुनाव आयोग ने औपचारिकता तक करना जरूरी नहीं समझा. ऐसी स्थिति में पॉलीटिकल पार्टीज में भी तमाम नियमों को धड़ल्ले से तोडा!

कौन दोषी है, कौन इसमें निर्दोष है, कौन इसके पक्ष में था, और कौन विपक्ष में था, इस बात का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि 2021 के विधानसभा और पंचायत इत्यादि के संबंध में कराए गए यह चुनाव भारत के इतिहास में सदा - सदा के लिए दर्ज होने चाहिए कि किस निर्ममता से, किस बेशर्मी से लोगों को मौत की मुंह की ओर धकेल दिया गया!

ऐसी स्थिति में आखिर चुनावी परिणामों की व्याख्या की जाए, तो कैसे की जाए?
कैसे कहा जाए कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने जीत हासिल कर ली और देश में जहां मजबूत विपक्ष की कमी है, मजबूत विपक्षी लीडर्स की कमी है, उसमें वह संभवतः खड़ी हो सकेंगी, तो विपक्षी भाजपा की भी 3 से लेकर 75 सीटों तक पहुंचने की व्याख्या कैसे की जाए?
कांग्रेस की ही बात कैसे की जाए, लेफ्ट की ही बात कैसे की जाए, जो शून्य पर पहुंच गए हैं.... इन तमाम व्याख्याओं का आखिर क्या मतलब निकल सकता है, जब चुनावी - निर्ममता ने लाखों - करोड़ों लोगों को खतरे में डाल दिया!!

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लोगों ने देखा कि इन पांच राज्यों में चुनाव का, खासकर पश्चिम बंगाल में चुनाव का, सम्पूर्ण देश में ऐसा परसेप्शन बना, मानो प्रधानमंत्री - गृह मंत्री और दूसरे राजनीतिक लीडर्स लोगों को सन्देश दे रहे हैं कि जमकर कोरोना फैलाओ... देखो! हम तो नॉर्मली चुनावी रैलियाँ-रोड शो कर रहे हैं, तुम भी घर से बाहर निकलो, कोरोना है क्या भला?

तमाम मीडिया चैनल्स ने भी इन चुनावों की ऐसी हाईप बनाई कि सम्बंधित राज्यों से 'ख़ास सन्देश' बाहर निकलकर सम्पूर्ण देश में फ़ैल गया.
देशभर के लोगों में इसका बेहद बुरा संदेश गया और लोग कहीं अधिक लापरवाह हो गए!

आपको याद ही होगा कि कोरोना की पिछली लहर में प्रधानमंत्री मोदी ने थाली बजवा कर, कोरोना फ्रंटलाइन वर्कर्स का उत्साह बढ़ाया था, तो इससे एक परसेप्शन बिल्ड हुआ कि कोई नेतृत्व कर रहा है, किंतु इस बार लोग - बाग असहाय छोड़ दिए गए!

कहने को भी उस स्तर का नेतृत्व नहीं दिखा, जिसकी उम्मीद पीएम मोदी 2014 से जगाते रहे हैं. 

यह लेख लिखे जाने तक संपूर्ण लॉकडाउन नहीं हुआ है,  कुछ-कुछ राज्यों में लॉकडाउन जरूर हुआ है, तो कहीं-कहीं आंशिक लॉकडाउन से काम चल रहा है, किंतु हकीकत यही है कि तमाम बिजनेस 90% तक पहले ही ठप हो चुके हैं. कुछ दुकानें खुल भी रही हैं, तो वह बस फॉर्मेलिटी के लिए हैं. लोग बस जरूरत की चीजों पर खर्च कर रहे हैं, फैक्ट्री सर्विस इंडस्ट्री सब कुछ लगभग बंद हो चुका है, लोअर क्लास - मिडिल क्लास भयंकर तनाव में है, क्योंकि उनका बोरिया बिस्तर बंध चुका है, या बंधने की कगार पर है....

ऐसे में कहीं नेतृत्व का नैतिक बल नहीं दिख रहा है, कहीं नेतृत्व नहीं दिख रहा है, और इसके लिए भला कौन किसको दोषी ठहरा सकता है?
समय से पहले वैज्ञानिकों की सलाह ना मानने का आरोप भला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कौन लगा सकता है... यूं भी आरोप लगाने से क्या बदल जायेगा?

समय से पहले ही भारत को हेल्थ सेक्टर का एक्सपोर्टर तक बता दिया गया, कोरोना वायरस पर जीत हासिल करने वाला देश बता दिया गया, वैक्सीनेशन स्पीड से कराने वाले देशों में इसका नाम शामिल कराया गया, तो दुनिया भर के देशों को मदद पहुंचाने का क्रेडिट लिया गया... पर अब वह सारी स्किल्स कहाँ है, शायद ही किसी को दिख रही हो!
आक्सीजन से लोगों की मौत से शायद ही कोई शहर बचा हो... 

ऑक्सीजन की कमी से मौत पर दिल्ली के नामी बत्रा हॉस्पिटल के चीफ ने यह तक कह डाला है कि पता नहीं देश कौन चला रहा है?
डॉ. एससीएल गुप्ता ने कहा कि सरकार कहती है कि हमारे देश में ऑक्सीजन की कमी नहीं है, लेकिन मरीज मर रहे हैं, न्यायपालिका या कार्यपालिका? मुझे नहीं पता कि देश कौन चला रहा है?

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दिल्ली के एक और बड़े अस्पताल गंगाराम के चीफ का बयान पिछले दिनों आया था कि दिल्ली में ऑक्सीजन 'चरणामृत' की तरह बंट रही है.

यह पोलिटिकल बातें नहीं हैं, और अगर आप इसे साधारण कमेंट्स में शुमार कर रहे हैं तो आपको अपने दिमाग का इलाज कराना चाहिए.... न ... न... रूकिये! इलाज कराने अभी हॉस्पिटल मत जाइएगा... शायद इस पूरे साल मत जाइएगा, क्योंकि... कारण आप जानते ही हैं!

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प्रश्न उठता है कि आज नेतृत्व विहीनता की बातें इतनी प्रमुखता से क्यों उठ रही हैं?

यही नेतृत्व विहीनता, पश्चिम बंगाल के चुनाव में नज़र आयी क्या?

वहां तो नेतृत्व ही नेतृत्व दिख रहा था... चारों तरफ, सीमा से अधिक नेतृत्व दिखा...

यह 'निर्ममता' नहीं है तो और क्या है भला? 

हालात इतने बुरे हो गए हैं जितना अन्य किसी देश में नहीं हुआ और अभी भी यह रफ्तार रुक नहीं रही है, बल्कि तेजी से आगे बढ़ रही... पर चुनावों में उछल कूद करने वाला नेतृत्व 'नदारद' है... !!

ऐसे में आखिर 'चुनावी निर्ममता' की बात क्यों न की जाए, इस बात का उत्तर ढूंढे नहीं मिलता!

आंकड़ों की अगर बात करेंगे आप, तो आपका सर दर्द ही नहीं करेगा, दर्द से फट सकता है... हार्ट अटैक आ सकता है और यह कोई लेखन का अतिश्योक्ति अलंकर नहीं है, बल्कि यथार्थ है!

लोगों में इतना डर फैल गया है कि कई लोग आस-पड़ोस की घटनाएं, टेलीविजन पर दृश्य देखकर, श्मशान घाट की वीडियोज देखकर हार्ट अटैक तक से मर रहे हैं, किंतु उन्हें ढाढस बनाने वाला कोई नहीं है!

न... न... छोटापन मत दिखलाइये... इसके लिए पत्रकारों को दोष मत दीजियेगा, सोशल मीडिया को दोष मत दीजियेगा... क्योंकि अगर वह यह नहीं दिखलायेंगे तो प्रशासन और बेशर्म हो जायेगा, राजनीति और निर्मम हो जाएगी, समाज और गर्त में जायेगा, कालाबाजारी और बढ़ेगी!
सुप्रीम कोर्ट तक ने इसे माना है.

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सच तो यह है कि आज के समय में डॉक्टर्स के बाद सिर्फ और सिर्फ पत्रकार ही कोरोना वारियर्स की जिम्मेदारी निभा रहे हैं. उड़ीसा, तमिलनाडु, बिहार जैसे राज्यों में इसे स्वीकार भी किया गया है. 

दोष अगर आपको देना ही है, आंकलन अगर आपको करना ही है तो 'चुनावी निर्ममता' का आंकलन कीजिये... जिसने बेशर्मी की तरह 'नरसंहार' की हद तक नंगा नाच किया है!

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा और राजधर्म की बात किये बगैर, इस लेख का मकसद पूरा नहीं होगा!
यह एक तथ्य है कि चुनावी हिंसा, पश्चिम बंगाल की संस्कृति का एक तरह से हिस्सा बन चुके हैं. चाहे हम लेफ्ट के साढ़े तीन दशक लम्बे शासनकाल की बात कर लें, चाहे ममता बनर्जी के एक दशक की बात कर लें... 

जबरदस्त ढंग से वहां राजनीतिक हिंसा होती रही है. 

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भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को यह कदापि मंजूर न था. साथ ही बंगलादेशी घुसपैठियों का मुद्दा, लेफ्ट के बाद ममता बनर्जी के मुस्लिम तुष्टिकरण का मुद्दा आरएसएस को गहरी चुभन देता रहा है. आरएसएस के साथ-साथ भाजपा को भी इस बात का कहीं न कहीं दर्द रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एकछत्र नेतृत्व के सामने, विरोध स्वरुप ममता बनर्जी ही खड़ी दिखती हैं, जिनका लम्बा राजनीतिक अनुभव और अपना आधार है. 

और भी कई कारण गिनाये जा सकते हैं और यह महज़ इत्तेफाक़ नहीं है कि कई साल पहले से संघ परिवार पश्चिम बंगाल में गहराई तक कार्य कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी को इस मुकाम तक लाने में न सिर्फ भाजपा के, बल्कि उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सामाजिक नेतृत्व ने ही पश्चिम बंगाल में कार्य किया है, जिससे बेशक भगवा खेमे को सीएम की कुर्सी नहीं मिली, पर 3 से 77 सीटों तक की छलांग ज़रूर मिली, साथ ही वहां से कांग्रेस और खास तौर पर लेफ्ट का क्लीन स्वीप हो गया!

चुनावी निर्ममता के साथ राजधर्म के तर्क के लिए इतनी व्याख्या आवश्यक है. 

आप यह समझ लें कि बेशक भाजपा के लिए एससी, एसटी और ओबीसी वोट की राजनीति में सत्ता तक पहुंचने का एक माध्यम भर हैं, किन्तु संघ के लिए यह उसकी दूरदर्शी हिन्दू एकता की योजना का हिस्सा है. 

इन तमाम कारणों से संघ ने खुद को पश्चिम बंगाल में सालों से झोंक रखा था... उसके कई कार्यकर्त्ता राजनीतिक हिंसा के शिकार हुए हैं. ज़ाहिर तौर पर जब केंद्र में उसका अपना संगठन है, तो सब कुछ झोंक कर पश्चिम बंगाल में आरएसएस, भाजपा का राजतिलक करना चाहती थी!

यह स्वाभाविक भी था... पर अब राजधर्म की बात को समझने के लिए रामायण के उस प्रसंग को ध्यान कीजिये, जब राम का राजतिलक होना था.

एक तरफ उनको राजा बनाने की तैयारी हो रही थी, तो दूसरी ओर, अगले ही दिन परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि "राजधर्म" के कारण उनको वनवास जाना पड़ा!

ज़रा सोचिये! ऊपर के तमाम तर्कों के बावजूद, कोरोना का महा भयंकर विनाशकारी स्वरुप के आगे, चुनाव को या तो टाल देना चाहिए था, या फिर न्यूनतम सक्रियता रखनी चाहिए थी.
ज़ाहिर तौर पर इससे उनकी राजनीतिक मेहनत पर असर पड़ता, पर 'राजधर्म' के बिना राजनीति, दीर्घकालिक किस प्रकार हो सकती है?

जनता के अन्दर करंट दौड़ता है! 
नरेंद्र मोदी की पूजा करने वाले भी उनको ट्रोल कर रहे हैं, मीम बन रहे हैं, उससे कहीं आगे अपना गुस्सा दबाये रखने वालों की संख्या कहीं और भी अधिक है. "राजधर्म" को त्यागकर पश्चिम बंगाल की सत्ता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने वाला संघ परिवार, तब क्या करेगा, जब उसके सबसे बड़े ब्रांड 'मोदी' ही अलोकप्रिय हो जायेंगे?

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राजनीतिक रूप से भी यह दांव कहाँ सही है?

ध्यान रखें, यह जनता किसी की नहीं है!

पर पता नहीं, राजधर्म के तर्क से संघ परिवार के लोग कितना सहमत होंगे या फिर शायद वह इस ओर सोच भी रहे हैं या नहीं, कहना मुश्किल है!

यह बात दुहराई जानी चाहिए कि पश्चिम बंगाल के लिए 'ब्रांड मोदी' को रिस्क में डालने का जोखिम उठाया गया है!

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