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समूचे 'पुलिस-तंत्र' की ओवरहालिंग जरूरी है! Police Reform is Mandatory, Hindi Article 2020



भारतवर्ष के न्याय तंत्र में सबसे बड़ी भूमिका पुलिस की होती है.
यह महत्त्व इतना भारी है कि तंत्र में शामिल कानून, वकील व जज के साथ-साथ आरोपी व पीड़ित का महत्व कम दिखने लगता है. 

इसे एक उदाहरण से समझें!

अगर आपकी तबियत ख़राब है तो आप मरीज हुए, यानी पीड़ित. स्वास्थ्य खराब होने की स्थिति में आपके घरवाले आपको किसी डॉक्टर के पास लेकर भागते हैं. कल्पना कीजिये, अगर डॉक्टर लापरवाही वश आपका इलाज नहीं करता है तो?
या फिर ज्यादा पैसा लेने के चक्कर में वह आपका गलत-सलत इलाज करने का नाटक करे तो?
या फिर डॉक्टर तो आपका सही इलाज करना चाहता है, किन्तु जिस हॉस्पिटल में आप गए हैं अगर वहां का प्रबंधन डॉक्टर को बायस करने के लिए मजबूर करता है तो?

यहाँ तो आपके पास ऑप्शन होता है कि आप किसी और हॉस्पिटल में या किसी और डॉक्टर के पास जा सकते हैं, हालाँकि, कई बार ऐसी स्थिति में मामला ख़राब हो चुका होता है.
आप स्वयं, आपके रिश्तेदार ऐसी स्थिति में भला क्या कर सकते हैं?

कमोबेश यही स्थिति पुलिस की है!

स्वास्थ्य ख़राब होने की स्थिति में तो फिर भी आपके पास काफी विकल्प होते हैं और आप मजबूर भी नहीं होते किसी एक के पास जाने को, आपके पास चॉइस होती है, पर पुलिस सिस्टम की जब बात आती है तो यहाँ आप 'दयनीय' अवस्था में होते हैं. 
हॉस्पिटल से तो फिर भी अधिकांश लोग ठीक होकर घर आ जाते हैं, एकाध केस ही बिगड़ते हैं, किन्तु पुलिस के मामले में यह रेशियो उल्टा है.

मतलब एकाध किसी को सलूशन मिल जाये तो मिल जाए, अन्यथा 99 फीसदी लोगों का हर तरह से स्वास्थ्य बिगाड़ देती है अपनी पुलिस!
जी हाँ! एक बार आप पुलिस स्टेशन गए तो समझ लीजिये कि आपका सामाजिक स्वास्थ्य, आर्थिक स्वास्थ्य, व्यक्तिगत स्वास्थ्य सब बिगड़ कर बाहर आना अवश्यम्भावी हो जाता है. कई बार ऐसा लगता है कि पुलिसवाले वस्तुतः आपका हर तरह से स्वास्थ्य बिगाड़ने की शपथ लेकर थाने में आते हैं. 
यह किसी व्यक्तिगत पुलिसवाले की बात नहीं है, बल्कि समूचा सिस्टम ही इस अवस्था में पहुँच चुका है और इसकी वगैर समूची ओवरहालिंग के आप न्याय-तंत्र की प्रथम सीढ़ी को दुरुस्त करने की सोच भी रखते हैं तो यह सिर्फ और सिर्फ हास्यास्पद है.

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न्याय तंत्र में शामिल कानून, वकील व जज के साथ-साथ आरोपी व पीड़ित तो सब गौड़ हो जाते हैं और वह उन्हीं के इशारों पर नाचते हैं जो प्राथमिकी में उसी पुलिसवाले ने दर्ज की है, जो हर तरह से आपका स्वास्थ्य बिगाड़ने की ट्रेनिंग ले चुका है.

कल्पना कीजिये अगर कोई पुलिसकर्मी घटनास्थल पर पहुंचता है और अपनी कम ट्रेनिंग, अपनी अज्ञानता, अपने लालच के कारण या राजनीतिक-सामाजिक दबाव के कारण गलत धाराएं लगा दे, शुरूआती रिपोर्ट ही गलत दे दे, उसके ऊपर समूचा तंत्र वर्षों तक घूमता रहता है.

और आप यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि शुरूआती स्तर पर जांच का कार्य करने वाला कोई कॉन्स्टेबल या सब इंस्पेक्टर स्तर का कोई युवक होता है. उसके लिए किसी भी दबाव में आना बड़ी साधारण बात होती है और यही वह चीज है जो समूची पुलिस व्यवस्था को बड़े संकट में खड़ा करती है और पुलिस व्यवस्था के साथ ही संकट में खड़ा होता है हमारा न्याय तंत्र.

पुलिस सुधार को लेकर लंबे समय से बात होती रही है और और यह एक ऐसा विषय है जो दशकों से पेंडिंग पड़ा है.
तमाम पुलिसकर्मी खुद भी कलंकित होने से कुढ़ते रहते हैं, पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता, अदालतों का अधिकांश वक्त पुलिस की उस जांच पर जाया होता है, जो जांच के नाम पर सिर्फ हीलाहवाली, भ्रष्टाचार, लापरवाही करती है. अधिकांश दोषी छूट जाते हैं तो अनगिनत निर्दोष दोषी साबित हो जाते हैं और अंततः न्याय नहीं मिलने से हमारा समाज लगातार गर्त में गिरता जाता है.

साफ़ है कि पुलिस सुधार के बिना न्याया असंभव है!

कुछ एक केसों में पुलिस जांच पर हो हल्ला होता है, सोशल मीडिया पर बवाल मचता है तो सम्बंधित थाने के कुछ पुलिसकर्मियों का ट्रान्सफर-निलंबन हो जाता है और केस की जांच के लिए किसी स्पेशल टास्क फ़ोर्स का गठन हो जाता है या फिर बहुत हो हल्ला होने पर केस की जांच के लिए सीबीआई को बुला लिया जाता है, किन्तु सिस्टम को सुधारने पर जोर किसी का नहीं होता. कोई रोग की जड़ में जाने की जहमत नहीं उठाता. कोई ट्रांसपेरेंसी-एकाउंटेबिलिटी की बात तक नहीं करता. 

जरा सोचिए!
उस पुलिस के मनोबल पर क्या असर पड़ता होगा, जिसके ऊपर जन-जन को न्याय देने की जवाबदेही है. वह एक तरह से अभिशप्त हो गई है और वह अभिशप्त हो भी क्यों नहीं? भ्रष्टाचारी होने का कलंक उससे चिपक जो गया है.
भ्रष्टाचारी होने की बात में शायद कोई झूठ ना भी हो, किंतु झूठ इस बात में भी नहीं है कि हम आधुनिक, सक्षम पुलिस -तंत्र खड़ा करने में असफल रहे, जो 21वीं सदी की ज़रुरत है. और इसके लिए वह भ्रष्टाचार करने वाली पुलिस से ज्यादा जवाबदेह है राजनीति, जो बवाल होने पर चंद एडवाइजरी जारी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है.

वस्तुतः आज भी हम अंग्रेजों के जमाने की पुलिसिया व्यवस्था से काम चला रहे हैं. चाहे वह निर्भया का मामला हो, चाहे वह हाथरस का मामला हो, आपके हमारे सामने यक्ष प्रश्न छोड़ जाता है कि अपराध और अपराधियों को समाप्त करने हेतु बनाई गयी पुलिस, अपराध को पनपने, अपराधी को सहूलियत पहुँचाने व पीड़ित को सताने में सबसे बड़ा रोल क्यों और किस प्रकार अदा करने लगी है?

व्यवस्था कैसे सुधरेगी, कब सुधरेगी इस बात का किसी को अंदाजा नहीं है. 

सामाजिक अपराध, भ्रष्टाचार पर बोलना या लिखना एक तरह से रूटीन सा हो गया है!
कोई नया क्या कहे, कोई नया क्या बोले, क्या लिखे बस वह अपना सिर पीट कर रहा जाता है, अपना कलेजा हाथ में थाम कर रह जाता है, लेकिन बदलाव कहीं से भी आता नहीं दिखाई देता है और ना ही दिखाई देती है उसकी आहट!

पुलिस सुधारों की स्पेसिफिक बात करें तो इसके लिए भिन्न आयोग व समितियाँ बनीं, किन्तु उनकी रिपोर्ट कहीं धुल फांक रही है. 
धर्मवीर आयोग, जो 1977 में गठित हुआ था और इस राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने तकरीबन 4 सालों में सेंट्रल गवर्नमेंट को 8 रिपोर्टें दी थीं. इन रिपोर्ट्स में हर राज्य में एक प्रदेश सुरक्षा आयोग का गठन, जाँच कार्यों को शांति व्यवस्था संबंधी कामकाज से अलग करना, पुलिस प्रमुख की अपॉइंटमेंट के लिये एक खास प्रोसेस को अपनाना व उसका कार्यकाल तय करना, नया पुलिस अधिनियम बनाना शामिल था. 
तत्कालीन समय में यह काफी रेलेवेंट था, किन्तु इस पर कुछ भी ठोस नहीं किया गया. 

इसके बाद 1997 में उस समय के सेंट्रल होम मिनिस्टर इंद्रजीत गुप्त द्वारा देश के सभी राज्यों के गवर्नर, चीफ मिनिस्टर्स एवं केंद्रशासित प्रदेशों के एडमिनिस्ट्रेटर को लेटर लिखकर पुलिस सुधार हेतु कुछ सिफारिशें की थीं, पर इसकी कोई बाद न तो चर्चित हुई और न ही इसका कोई ठोस परिणाम सामने आया. इसी प्रकार, सन 2000 में पद्मनाभैया कमिटी द्वारा पुलिस सुधारों से संबंधित रेकमेंडेशन दी गयी थीं, तो इन सबके बाद मॉडल पुलिस एक्ट, 2006 ख़ासा चर्चित रहा. सोली सोराबजी कमिटी द्वारा सन 2006 में इस अधिनियम का प्रारूप रेडी किया गया था, किन्तु सेंट्रल एवं स्टेट गवर्नमेंट्स के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी!

सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन इस सम्बन्ध में पहले से है, जिसके अनुसार, स्टेट सिक्योरिटी कमीशन का गठन किये जाने की बात कही गयी है, ताकि पुलिस बगैर किसी प्रेसर के अपने काम को अंजाम दे सके. साथ ही पुलिस कंप्लेंट अथॉरिटी बनाने की बात भी इसमें शामिल है, ताकि पुलिस के खिलाफ आने वाली सीरियस कम्प्लेन की गंभीरता से जाँच हो सके. इसी गाइडलाइन में थाना प्रभारी एवं पुलिस हेड की एक जगह पर 2 वर्ष का कार्यकाल रखने की बात कही गयी है. इसी तरह नया पुलिस अधिनियम लागू करने की बात, अपराध की विवेचना व कानून व्यवस्था के लिये अलग-अलग पुलिस सिस्टम की ज़रुरत पर बल दिया गया है, किन्तु नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा है. 

हाथरस कांड के बाद हाल फ़िलहाल गृह मंत्रालय द्वारा एक एडवाइजरी जारी की गयी है, जिसमें एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य बनाने की बात कही गयी है तो 2 महीने में जांच पूरी करना होगा, ऐसी सिफारिश की गयी है. कुछ और बातें भी इस एडवाइजरी में हैं, किन्तु क्या गारंटी है कि पुलिस सिस्टम के समूचे ओवरहालिंग के बगैर यह एडवाइजरी कूड़े में नहीं फेंक दी जाएगी?

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

Web Title: Police Reform is Mandatory, Hindi Article 2020, Writer Mithilesh Kumar Singh

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