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आचरण तो सबको ही अपनाना चाहिए... New article on Sant Ravidas Jayanti, Mayawati, Modi, Samajwadi Party, biography, jeevni

हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी वाराणसी-यात्रा के दौरान जब संत रविदास के मंदिर गए तो दलित राजनीति करने वालों की सांसें ऊपर नीचे होने लगीं. बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर सीधा हमला ही बोल दिया और संत रविदास की स्तुति और माथा टेकने पर तंज करते हुए कहा कि संत के आदर्शो और कर्मो को अपनाकर ही इंसान बना जा सकता है, सिर्फ मत्था टेकने से काम नहीं चलेगा. जाहिर है कि महापुरुषों के आदर्शों पर मत्था टेकने का कर्त्तव्य तो सबका ही बनता है, किन्तु यहाँ तो एक दुसरे पर तंज कसने से किसी को फुर्सत मिले, तब तो कोई और बात हो. अपने वक्तव्य में मायावती ने आगे कहा कि ‘संतगुरु रविदास जी के जन्मदिन पर वहां माथा टेकने के साथ-साथ नेताओं को उनके आदर्शो पर भी अमल का प्रयास करना चाहिये, तभी देश के गरीबों और शोषित जनता का सही रूप में भला होगा.’ अपने राजनीतिक हित साधने का बखूबी प्रयत्न करते हुए मायावती ने यह भी कहा कि उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को तो संत रविदास की जयन्ती मनाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि उसने सत्ता में आते ही बसपा सरकार द्वारा उनके नाम पर रखे गये संत रविदास नगर जिले का नाम बदलकर भदोही कर दिया. अब बहनजी के ही संदेशों को पकड़कर आगे बढ़ते हैं तो साफ़ जाहिर हो जाता है कि संत रविदास के किन आदर्शों को उन्होंने माना है. किसी ने ठीक ही कहा है कि जो आदर्शों को मानने का ढोंग करते हैं, कहीं न कहीं वही आदर्शों को सर्वाधिक चोट भी पहुंचाते हैं. 

सवाल यही है कि मायावती के अनुसार उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी और केंद्र की भाजपा सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी अगर संत रविदास जयंती को लेकर ढोंग करते हैं तो उन्होंने ही कौन सा आदर्श प्रस्तुत कर दिया है, जिसे लेकर उनको तंज कसने का अधिकार मिल गया है. आखिर उत्तर प्रदेश की जनता ने उन्हें भी कई बार मुख्यमंत्री पद पर बिठाया, लेकिन भ्रष्टाचार से लेकर हिटलरशाही तक के आरोप उन पर भी लगे कि नहीं? अपने शाही जन्मदिवस और मूर्ति-प्रेम के कारण कुख्यात हो चुकीं मायावती क्या यह बताने का कष्ट करेंगी कि क्या यही संत रविदास के सन्देश थे? साफ़ जाहिर है कि महापुरुषों के नाम पर यह, वह और सब राजनीति करने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं और यहीं से दिखावे की परंपरा को घातक ढंग से बढ़ावा मिलता है. जहाँ तक संत कुलभूषण कवि रैदास की बात है तो वह उन महान सन्तों में अग्रणी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया है. इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही है जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है तो मधुर एवं सहज संत रैदास की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है. संत रविदास की तरह की लोकप्रियता बहुत कम महापुरुषों को नसीब रही है, क्योंकि उनके कथन, वचन और आदर्श समयातीत रहे हैं. आज के राजनेताओं से भिन्न, प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं. इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिनमें संत रैदास का नाम अग्रणी है. वे सन्त कबीर के गुरूभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे. 

मायावती जी के मूर्तिप्रेम को देखते हुए यह याद दिलाना आवश्यक हो जाता है कि मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में संत रैदास का बिल्कुल भी विश्वास न था, बल्कि वह व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे. इस महान संत ने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है. सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी स़फाई से प्रकट किए हैं, जो जनता में बेहद लोकप्रिय हैं. संत रैदास के चालीस पद सिक्खों के पवित्र धर्मग्रंथ 'गुरुग्रंथ साहब' में भी सम्मिलित हैं और कहा तो यह भी जाता है कि मीरा के गुरु संत रैदास ही थे. इनके अमृत वचन सर्वकालीन हैं, जिन्हें सुनने और पढ़ने के बाद आत्मा तक तृप्त हो जाती है. देखिये, आप भी संत रैदास द्वारा रचित एक पद:
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी॥
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती॥
प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा॥
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै 'रैदासा'॥
इतने सुन्दर, सरल भाव से उत्पन्न भक्ति से भगवान भला क्यों नहीं प्रसन्न हों, किन्तु यह इंसान ही है कि उस पर किसी बात का असर नहीं होता. एक महाशय, जो मशहूर दलित चिंतक के नाम से जाने जाते हैं, उन्होंने फेसबुक पर इस बात के लिए ही अभियान चला दिया कि दुसरे संत रविदास की जयंती भला किस प्रकार मना सकते हैं. उन्होंने ठीक रविदास जयंती के पहले अपनी एक पोस्ट में तत्काल लिखा, "ध्यान रहे, "मन चंगा तो कठौती में गंगा" रविदास जी का पद नहीं है. कबीर और रविदास जी की नजर में गंगा का कोई महत्व नहीं था. गंगा को कठौती में देखना भी उनके लिए एक पाखंड था. कल देखिये, पूरी भगवा पलटन (आरएसएस, भाजपा) इसी पद को रविदास के नाम पर थोपेगी. सवाल यही है कि दुसरे के विश्वास को देखने की बजाय अगर हम खुद महापुरुषों के संदेशों को मानने का प्रयत्न करें तो बहुत कुछ नहीं सुधर जायेगा?
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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