Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

कर्नाटक की दो अशेष कथाएँ!

मई 2018 के कर्नाटक की दो अशेष कथाएँ हैं. एक तो यह कि लोकतंत्र की रक्षा का मुकुट पहन कर बन रही कर्नाटक की अगली सरकार कैसी होगी और कितने दिन चलेगी? जवाब बिलकुल आसान है. नयी सरकार कम से कम 2019 के लोकसभा चुनाव तक तो चलेगी ही. उसके बाद का कुछ कह नहीं सकते! लोकसभा चुनाव के नतीजे कैसे आते हैं? और तब विपक्षी एकता की ‘ज़रूरत’ रहती है या नहीं, और रहती है तो कितनी, इस पर तय होगा कि सरकार रहेगी या गिरेगी!

और कुमारस्वामी सरकार कैसी होगी? जैसी येदियुरप्पा की सरकार होती, लगभग वैसी ही या शायद कुछ मामलों में उससे भी ख़राब. भ्रष्टाचार के मामले में कुमारस्वामी का रिकॉर्ड येदियुरप्पा से कोई बेहतर नहीं है. और फिर जब गठबन्धन सरकार हो, और जब सरकार की उम्र को लेकर सबको खटका लगा रहे, तो कौन मौक़ा चूकना चाहेगा? तो बुनियादी फ़र्क़ सिर्फ़ एक ही है. वह यह कि यह सरकार नागपुर से नहीं चलेगी! पहली कथा यहीं समाप्त हुई!

कर्नाटक की कथा नम्बर दो

अब कथा नम्बर दो. यह बड़ी कथा है. अब तक मरघिल्ली पड़ी कांग्रेस के निश्चल अंगों में अचानक कर्नाटक में दिखी फड़फड़ाहट क्या वाक़ई उसमें जीवन के लक्षणों के लौटने की कुछ उम्मीद जगा रही है? क्या कर्नाटक में बीजेपी के चक्रव्यूह-ध्वंस के बाद विपक्षी एकता की कोई नयी फुरफुरी शुरू होगी? (यह आलेख कुमारस्वामी की शपथ के एक दिन पहले बीबीसी हिन्दी की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था). क्या मई 2018 का कर्नाटक मई 2019 के भारत की कोई तसवीर दिखाता है?

सही है कि लोकसभा चुनाव में मलीदा बन गयी काँग्रेस चार साल बाद पहली बार कर्नाटक में कुछ करती-धरती दिखी. यानी काँग्रेस अपनी ‘नर्वसनेस’ से कुछ-कुछ तो उबरी है और उसमें अब जा कर थोड़ा आत्मविश्वास तो दिख रहा है. लेकिन इसके बड़े अर्थ मत निकालिए. काँग्रेस ने यह आत्मविश्वास पाने के लिए अगर कुछ मेहनत की होती, कुछ योजनाएँ बनायी होतीं, कुछ तैयारी की होती और चार साल में कुछ काम किया होता, तब तो अलग बात थी. लेकिन वह तो निकम्मी पड़ी रही.

अस्तित्व की लड़ाई और सत्ता की सौदेबाज़ी का समय

कर्नाटक की जीत अलग है, विपक्ष की जो ताज़ा कुनमुनाहट है, उसका कारण अलग है. दरअसल, मोदी सरकार के चार साल बाद अब काँग्रेस को भी और बाक़ी विपक्ष को भी लगने लगा है कि अब कुछ तो करना ही पड़ेगा. दो वजहें हैं. एक तो यही कि आख़िर अब नहीं तो कब? जैसे इम्तिहान का टाइमटेबल आ जाने पर पूरे साल कुछ नहीं पढ़नेवाले बच्चों को भी झख मार के किताबें उठानी पड़ती हैं, उसी तरह अब जब लोकसभा चुनाव बिलकुल सिर पर हैं, तो सबके लिए अस्तित्व की लड़ाई का भी और सत्ता की सौदेबाज़ी का भी समय आ रहा है. दूसरी वजह यह कि 2014 में विकास की बाँसुरी से ‘मोदीमय’ हुए लोगों में से बहुतों की आँखों से इन्द्रधनुषी सपनों की ख़ुमारी अलग-अलग कारणों से उतर रही है. इसलिए भी काँग्रेस को और विपक्ष को लगता है कि उनके लिए शायद अब कुछ मौक़ा बन जाय.

उनका ऐसा सोचना ग़लत नहीं है. 2014 में दो बातें थीं. एक तो यह कि काँग्रेस और विपक्ष जनता की निगाह में ‘खलनायक’ बन चुके थे, और नरेन्द्र मोदी ने ख़ुद को ‘करिश्माई मसीहा’ के तौर पर पेश कर बदलाव की जो आँधी पैदा की, उसके सामने जो आया, उखड़ गया. लेकिन आज ऐसा नहीं है. चार साल पूरे बहुमत की सरकार चला चुकने के बाद कम से कम मोदी ‘करिश्माई’ होने का आभामंडल तो खो ही चुके हैं.

दूसरे एक बड़ा तबक़ा ऐसे लोगों का भी उभर रहा है, जिन्हें बहुत-से मामलों पर मोदी का मौन खल रहा है, ख़ास कर हिन्दुत्व के नाम पर चल रही उपद्रवी ब्रिगेड की बेधड़क हरकतों पर. बहुत-से लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें सांविधानिक संस्थाओं के ह्रास को लेकर गहरी चिन्ता है. तीसरी बात यह कि मोदी-शाह के दर्प का दंश उद्धव ठाकरे और चन्द्रबाबू नायडू समेत कई पुराने सहयोगियों को चुभ रहा है. कुल मिला कर यह सारी बातें काँग्रेस और विपक्ष को सुहा रही हैं. और विपक्ष के लिए यह भी तसल्ली की बात है कि आज उसकी सकारात्मक छवि भले न हो, लेकिन 2014 जैसी नकारात्मक छवि तो नहीं ही है.

2019 में नमो-रथ रोकने के कुलाबे

इसलिए एक तरफ़ जहाँ ममता बनर्जी क्षेत्रीय पार्टियों के फ़ेडरल फ़्रंट के कुलाबे मिला रही हैं, वहीं उत्तर प्रदेश के उपचुनावों और कर्नाटक के सियासी-सर्कस में काँग्रेस-जेडीएस की सफलता से विपक्ष को यह संभावनाएँ असम्भव नहीं लगतीं कि 2019 में नमो-रथ को शायद रोका भी जा सकता है. लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि विपक्ष का सेनापति कौन होगा? क्या राहुल गाँधी का नेतृत्व विपक्ष के बाक़ी नेता स्वीकार कर लेंगे? शायद नहीं. तो फिर नेता कौन होगा? या एकता बिना नेता के होगी?

इसलिए कर्नाटक में काँग्रेस ने जो जोश-ख़रोश दिखाया, वह शायद बहुत देर में उठा सही क़दम है. काँग्रेस ने दो-तीन साल पहले ऐसे क़दम उठाये होते, तो आज वह विपक्ष का नेतृत्व कर रही होती. लेकिन काँग्रेस ने अपने कर्मों से वह जगह ख़ुद खो दी. इसीलिए कर्नाटक में भी वह गठबन्धन की अगुआ पार्टी नहीं बन सकी. ठीक है कि कुमारस्वामी को बीजेपी की गोद में जा बैठने से रोकने और अगले लोकसभा चुनाव में जेडीएस के साथ चुनावी गठबन्धन कर बीजेपी को बाँध देने का दूरदर्शी राजनीतिक दाँव खेलते हुए काँग्रेस ने यह ‘राजनीतिक त्याग’ किया. लेकिन मेरे ख़याल से यह उसकी राजनीतिक चतुराई नहीं, बल्कि मजबूरी थी. और काँग्रेस नेतृत्व को अगर यह एहसास न हो गया होता कि बीजेपी अगर कैसे भी कर्नाटक में सत्ता में आ गयी, तो अगले चुनाव तक काँग्रेस वहाँ से भी पूरी साफ़ हो जायगी, तो शायद काँग्रेस इतना झुक कर कुमारस्वामी को गठबन्धन की पेशकश न करती.

कांग्रेस ‘दान’ की सीटों पर ही सन्तोष करेगी

यह मजबूरी सिर्फ़ कर्नाटक में नहीं है, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, असम, और उत्तराखंड को छोड़ कर देश के बाक़ी सभी राज्यों में है. इन राज्यों में काँग्रेस को छोड़ कर विपक्ष की और कोई पार्टी बहुत प्रभावी भूमिका में नहीं है, इसलिए यहाँ गठबन्धन का सवाल ही नहीं है.

महाराष्ट्र में एनसीपी के साथ और कर्नाटक में जेडीएस के साथ काँग्रेस ‘सम्मानजनक’ समझौता कर सकती है, हरियाणा में वह चौटाला के साथ हाथ मिलाने को तैयार होगी या नहीं, अभी कहा नहीं जा सकता. केरल और उड़ीसा की स्थिति एकदम ही अलग है, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों समेत ज़यादातर जगहों पर तो वह ‘दान’ की सीटों पर ही सन्तोष करने के लिए अभिशप्त है.

क्या 2019 में दिखेंगे ‘मुलायम’ मोदी?

इसलिए काँग्रेस निकट भविष्य में किसी बड़ी भूमिका में आ पायेगी, इसमें मुझे सन्देह है. 2019 के लिए विपक्षी एकता की क़वायद तो होगी, क्योंकि ऐसा करना सारे विपक्ष तकी मजबूरी है, लेकिन इसका ख़ाका कैसे तैयार होगा, यह अगले कुछ महीनों में ही साफ़ होगा. मोदी और अमित शाह के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी कि वह 2014 के 282 सीटों के आँकड़े को अगर बढ़ा न पायें, तो कम से कम बरक़रार रख सकें. यह काम आसान नहीं है, क्योंकि बीजेपी ने यह आँकड़ा ‘मोदी-चक्रवात’ में छुआ था और तब विपक्ष को आभास भी नहीं था कि तूफ़ान इतना तेज़ आ रहा है.

हालाँकि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता अब भी बरक़रार है, लेकिन अब न लहर है और न आँधी. ऐसे में अगर 2019 में बीजेपी 282 के आँकड़े से दूर रह गयी, जिसकी बहुत सम्भावना है, तो उसे उखड़े हुए सहयोगी दलों को फिर से रिझाना होगा या नये साथी तलाश करने होंगे. ऐसे में क्या सभी सहयोगी नरेन्द्र मोदी के नाम पर सहमत होंगे? अगर हाँ, तो 2019 में हम एक बिलकुल नये और मुलायम मोदी को देखेंगे!

बीबीसी हिन्दी वेबसाइट के 22 मई 2018 को लिए लिखी गयी इस टिप्पणी का मूल लिंक यह है:
नज़रिया: कर्नाटक में गठबंधन सरकार के बाद की कथा, जो बाक़ी है
© 2018 http://raagdesh.com by Qamar Waheed Naqvi
email: [email protected]

The post कर्नाटक की दो अशेष कथाएँ! appeared first on Raag Desh by QW Naqvi.



This post first appeared on Raagdesh -, please read the originial post: here

Share the post

कर्नाटक की दो अशेष कथाएँ!

×

Subscribe to Raagdesh -

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×