2017 में उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग का फ़ैसला क्या होगा, यह तो बाद की बात है. फ़िलहाल तो सबकी निगाहें इस पर लगी हैं कि समाजवादी पार्टी के भीतर चल रही टिकटों की लड़ाई का फ़ैसला क्या होगा, कौन जीतेगा? पिता या पुत्र? पार्टी पर किसका वर्चस्व होगा? कोई सुलह होगी? मुलायम झुकेंगे या अखिलेश यादव? या पार्टी दोफाड़ हो जायेगी?
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अखिलेश यादव और मुलायम : किसका दाँव चलेगा?
मुलायम सिंह पुराने पहलवान हैं. अखाड़े की कुश्ती में माहिर. राजनीति की कुश्ती में उनके ‘चरख़ा दाँव’ से बड़े-बड़े खुर्राट राजनेता भी कई बार चरका खा चुके हैं. मुलायम बस एक ही बार दाँव चूके हैं, जब वह राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये थे. कहा जाता है कि तब एक और यादव नेता लालू प्रसाद ने ऐन मौक़े पर औचक लँगड़ी मार दी थी.
अब मुलायम सिंह को दूसरी बार चुनौती बेटे से मिली है. वैसे समाजवादी पार्टी में तीन महीने से चल रही कुश्ती के हर राउंड में अब तक तो हर बार मुलायम सिंह यादव ही जीतते दिखायी दिये, लेकिन शायद लड़ाई अब निर्णायक राउंड में है. जो यह राउंड जीता, वही पार्टी को चलायेगा.
पिता और चाचा को अल्टीमेटम
अखिलेश कैम्प की तरफ़ से 235 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी कर दी गयी है. कहा जा रहा है कि ज़रूरत पड़ी तो उनके समर्थक अलग चुनाव-चिह्न पर चुनाव लड़ेंगे. माना जा रहा है कि यह अखिलेश का आख़िरी दाँव है.
पिता मुलायम और चाचा शिवपाल को अल्टीमेटम कि अब भी वक़्त है, अखिलेश की लिस्ट के उम्मीदवारों को टिकट दे दिये जायें, अखिलेश को चुनाव की पूरी कमान दी जाय, वरना वह पार्टी को तोड़ने तक का जोखिम उठाने को तैयार हैं!
‘मुहब्बत में जुदाई का हक़’ भी!
अखिलेश इशारों-इशारों में कह ही चुके हैं कि ‘मुहब्बत में जुदाई का हक़’ भी होता है. कहने की बात अलग है, लेकिन चुनाव से ठीक पहले ऐसी ‘जुदाई’ आसान है क्या? अखिलेश भी जानते हैं और मुलायम-शिवपाल भी इतने नासमझ नहीं हैं कि चुनाव के ठीक पहले पार्टी तोड़ने से होनेवाले नुक़सान को न समझते हों. और मुलायम-शिवपाल इतने नासमझ भी नहीं हैं कि वह यह न समझते हों कि वोट किसके चेहरे पर मिलेंगे? मुलायम-शिवपाल के चेहरे पर या अखिलेश के?
ज़ाहिर है कि आज चुनाव में समाजवादी पार्टी जो कुछ भी उम्मीद कर सकती है, वह अखिलेश के चेहरे से ही कर सकती है. यह बात समाजवादी पार्टी के ज़्यादातर नेता, ख़ास कर युवा नेता और कार्यकर्ता भी जानते और समझते हैं.
तो पार्टी का चेहरा तो अखिलेश ही हैं. बाज़ार में चलनेवाली करेन्सी अखिलेश ही हैं, यह मुलायम और शिवपाल बख़ूबी जानते हैं. बस पेंच एक है. वह यह कि अखिलेश को ‘अरदब’ में कैसे रखा जाय कि वह बस दुधारू गाय की तरह बने रहें. जो सारा झगड़ा अभी चल रहा है, उसकी जड़ यही है कि अखिलेश ‘आज्ञाकारी’ पुत्र और भतीजे बने रहें, और मुलायम-शिवपाल जैसे चाहते हैं, वैसे सरकार चलाते रहें.
‘बबुआ’ इमेज कब तक?
दरअसल, पाँच साल पहले जब अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब यही सोचा गया था कि वह ‘बबुआ’ मुख्यमंत्री की तरह कुर्सी पर बैठे रहेंगे. और अकसर मीडिया में यह कहा भी जाता रहा कि उत्तर प्रदेश में ‘साढ़े चार मुख्यमंत्री’ हैं. अखिलेश, मुलायम, शिवपाल, रामगोपाल ये चार और आधे आज़म ख़ान. लेकिन धीरे-धीरे अखिलेश ने अपने को इन शिकंजों से बाहर निकालने की कोशिश शुरू की. यही वजह है कि पिछले पाँच सालों में कई बार मुलायम सिंह सार्वजनिक मंचों पर अखिलेश को लताड़ लगाते रहे, सरकार के काम से अपनी नाराज़गी जताते रहे. लेकिन अखिलेश इन आलोचनाओं को इस कान से सुन कर उस कान से निकालते रहे.
‘बबुआ’ नहीं, मुखिया होना चाहते हैं अखिलेश यादव
और अब पाँच साल बाद अखिलेश ने साफ़ जता दिया है कि वह ‘बबुआ’ नहीं, मुखिया हैं. पार्टी उनके साथ उनकी मर्ज़ी पर चले, परिवार के लिए थोड़ा-बहुत वह ‘एडजस्ट’ करने को तैयार हैं, लेकिन ‘बबुआ’ बन कर वह नहीं रहेंगे. इसीलिए मुख़्तार अन्सारी की पार्टी के विलय और अतीक़ अहमद जैसों को टिकट दिये जाने के शिवपाल के चिढ़ानेवाले पैंतरों पर भी वह समझौता करने को तैयार हैं. लेकिन इससे ज़्यादा और कुछ नहीं. अखिलेश ने अपने उम्मीदवारों की जो सूची मुलायम सिंह को सौंपी थी, उसमें कुछ सीटें शिवपाल की ‘पसन्द’ के लिए छोड़ कर अखिलेश ने यही संकेत दिया था.
अखिलेश को मालूम है कि समय उनके साथ है, जनता में उनकी छवि अच्छी है. समाजवादी पार्टी क़ानून-व्यवस्था को लेकर हमेशा ही बदनाम रही है, लेकिन मुख़्तार और अतीक़ जैसों का खुला विरोध करके अखिलेश ने जता दिया है कि वह समाजवादी पार्टी की राह बदलना चाहते हैं.
अब वर्तमान से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है भविष्य!
राजनीति में वर्तमान का महत्त्व तो बहुत है, लेकिन कभी-कभी भविष्य वर्तमान से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है. समाजवादी पार्टी आज ऐसे ही मोड़ पर खड़ी है. पार्टी में एक बड़े वर्ग को मालूम है कि भविष्य में वह अखिलेश की राजनीति से तो उम्मीद रख सकता है, मुलायम और शिवपाल मार्का राजनीति से नहीं. इसलिए पार्टी के बहुत-से विधायक इस चुनाव को दाँव पर लगा कर भी अखिलेश के साथ जाने को तैयार हैं.
मुलायम-शिवपाल के लिए सन्देश साफ़ है. अखिलेश को ‘बबुआ’ बनाने का खेल महँगा पड़ेगा. पार्टी अगर टूटी तो इस चुनाव में तो भट्ठा बैठेगा ही, लेकिन पाँच साल बाद फिर क्या होगा?
तो कुल मिला कर लगता तो नहीं कि मुलायम सिंह चाहेंगे कि ऐसी नौबत आये. लेकिन अगर आ गयी तो क्या होगा? तरह-तरह की अटकलें लग रही हैं. एक अटकल तो यही है कि अखिलेश काँग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ सकते हैं. हालाँकि समाजवादी पार्टी के परम्परागत वोट अगर दो धड़ों में बँटते हैं, तो काँग्रेस का साथ अखिलेश के कुछ ख़ास काम नहीं आयेगा. लड़ाई तब बीजेपी और बीएसपी में होगी और फ़ायदे में बीजेपी रहेगी. एक अटकल और भी उछाली जा रही है कि बीजेपी भी अखिलेश पर दाना डाल सकती है. बड़ी दूर की कौड़ी लगती है. लेकिन भारत की राजनीति में कुछ भी हो सकता है. आख़िर मुलायम किसी समय कल्याण सिंह से हाथ मिला ही चुके हैं. यह अलग बात है कि उसका उन्हें बड़ा ख़ामियाज़ा उठाना पड़ा था.
फ़र्स्टपोस्ट हिन्दी में 30 दिसम्बर 2016 को छपी टिप्पणी
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