Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

यह 2019 की अँगड़ाई है!

यह 2017 की लड़ाई नहीं, असल में 2019 की अँगड़ाई है! हाँ, यह ज़रूर है कि उत्तर प्रदेश का घमासान इसकी पहली प्रयोगशाला होगा. प्रयोग सफल रहा, तो मामला आगे तक जायेगा. वरना बात वहीं की वहीं रफ़ा-दफ़ा हो जायेगी. तीन तलाक़ से छिड़ी बहस के गहरे राजनीतिक अर्थ हैं, जिसे लोग अभी पकड़ नहीं पाये हैं. इसलिए बयानों का, प्रतिक्रियाओं का, रणनीतियों का हम इस बार भी वही 1985 वाला पुराना फ़र्मा देख रहे हैं, जो शाहबानो मामले में हमने देखा था.

1985 में शाहबानो, 2016 में शायरा बानो

तसवीर का एक हिस्सा लगभग वैसा ही है, जैसा 1985 में था. शाहबानो नाम की एक महिला तलाक़ के बाद अपने और अपने पाँच बच्चों के गुज़र-बसर का ख़र्च पति से माँगने सुप्रीम कोर्ट गयी थी. इस बार तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है. शाहबानो मुक़दमा जीत गयी. शायरा बानो के मामले में फ़ैसला अभी आना है. शाहबानो मामले पर मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उलेमा ने बड़ा विरोध किया. शायरा बानो मामले पर भी वैसा ही विरोध सामने आ रहा है. मसजिदों से लेकर घरों तक में मुसलिम पुरुषों-महिलाओं से करोड़ों दस्तख़त जुटाये जा रहे हैं कि पर्सनल लॉ में कोई छेड़छाड़ उन्हें मंज़ूर नहीं. सरकार को कड़ी चेतावनी जारी की जा चुकी है कि अगर ऐसा करने की कोशिश की गयी तो अंजाम ‘कुछ भी’ हो सकता है! कुल मिला कर ‘सीन’ वही है, जो 1985 में था. बस फ़र्क़ एक है. तब केन्द्र में काँग्रेस की सरकार थी, आज बीजेपी की सरकार है.

तब और अब का फ़र्क़

1985 में काँग्रेस की सरकार ने नया क़ानून बना कर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलट दिया था. अब अगर सुप्रीम कोर्ट शायरा बानो के हक़ में फ़ैसला देता है, तो क्या नरेन्द्र मोदी सरकार मुसलिम कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेकेगी? जवाब सबको मालूम है. ऐसा क़तई नहीं होगा. नरेन्द्र मोदी ख़ुद ऐसा इशारा दे ही चुके हैं. और बीजेपी क्यों करेगी ऐसा? मुसलमानों के वोट की उसे चिन्ता नहीं है. और बीजेपी से ऊपर संघ भला क्यों करना चाहेगा ऐसा? संघ के एजेंडे के लिए यह मुद्दा तो जैसे आसमान से टपका है!1985 और 2016 का फ़र्क़ यही है.

मनमाने तलाक़ को नामंज़ूर कर चुका है सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट अगर तीन तलाक़ को सीधे-सीधे अवैध घोषित कर देता है तो इसके अपने राजनीतिक नतीजे होंगे, यह तय है. यहाँ यह बता दें कि सुप्रीम कोर्ट समेत देश की कई अलग-अलग अदालतें अपने पिछले कई फ़ैसलों में सीधे-सीधे तो नहीं, लेकिन एक तरह से तीन तलाक़ की अवधारणा को ख़ारिज ही कर चुकी हैं. 2002 के शमीम आरा मुक़दमे से लेकर कई और मामले ऐसे हैं, जहाँ अदालतों ने साफ़ कहा है कि ‘मनमाने ढंग से’ तलाक़ नहीं दिया जा सकता, तलाक़ देने के लिए उचित कारण होने चाहिए और तलाक़ क़ुरान में निहित प्रक्रिया के तहत होना चाहिए.

पढ़िए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. ताहिर महमूद का इंटरव्यू अँगरेज़ी पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ में.

इसलामी क़ानून में तीन तलाक़ को कहीं माना नहीं गया है — प्रोफ़ेसर ताहिर महमूद Click to Read.

मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड की खोखली दलीलें

इस सवाल को यहीं छोड़ते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला क्या आयेगा और कब आयेगा? बात अभी यह कि मुसलिम संगठन और दूसरे ‘सेकुलर’ ब्रांडिंग वाले राजनीतिक दल जिस 1985 वाली शैली में इस मुद्दे पर अपना रुख़ तय कर रहे हैं, क्या वह कारगर होगी? तीन तलाक़ के मुद्दे पर मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड की जितनी भी दलीलें हैं, वे तार्किक ज़मीन पर कहीं ठहरती ही नहीं. बोर्ड ख़ुद ही मानता है कि तीन तलाक़ ख़राब है, लेकिन फिर भी उसे छोड़ने को तैयार नहीं, क्योंकि उसका कहना है कि तीन तलाक़ एक साथ बोलने से शरीअत के हिसाब से तलाक़ तो हो ही जाता है! लेकिन सवाल उठता है कि जब पाकिस्तान, बांग्लादेश समेत दुनिया के बीस से ज़्यादा मुसलिम देशों में तीन तलाक़ को ख़ारिज किया जा चुका है, तो फिर यहाँ भारत में किस शरीअत का हवाला दिया जा रहा है? क्या उन बीस मुसलिम देशों में किसी अलग शरीअत का पालन किया जाता है? ये सवाल देश की बाक़ी ग़ैर-मुसलिम जनता को मथ रहे हैं.

मुसलिम महिलाओं और पुरुषों की सोच में दरार

शाहबानो मामला आज से 32 साल पहले हुआ था. तब न इतनी साक्षरता थी, न मीडिया की इतनी पहुँच और न सोशल मीडिया. आज दुनिया हर आदमी की हथेली पर है. सबको सब पता है कि कहाँ क्या हो रहा है. सवालों पर विमर्श तीखा और आर-पार है. तो शाहबानो के समय के तर्क अब नहीं चलेंगे. दूसरी बात यह कि इस मुद्दे पर मुसलिम महिलाओं और पुरुषों की सोच में इस बार साफ़ दरार है. यह हैरानी की बात है कि पढ़े-लिखे और डॉक्टर-इंजीनियर-पत्रकार तक बन गये मुसलिम पुरुष तो सारे तथ्यों को अनदेखा कर शरीअत का हवाला देते घूम रहे हैं, लेकिन मुसलिम महिलाएँ अपने अधिकारों का सवाल उठा रही हैं.

‘अंडरकरेंट’ तीन तलाक़ के ख़िलाफ़

मुसलमानों के कुछ सम्प्रदायों में तीन तलाक़ पहले से ही मान्य नहीं है. तो कुल मिला कर तीन तलाक़ के मामले की पैरवी के लिए ठोस तर्क दिखते नहीं, सिवा इसके कि यह शरीअत से जुड़ा मुद्दा है, जिसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता. लेकिन बदलाव तो बीस से ज़्यादा मुसलिम देशों में हो चुका! फिर यहाँ क्यों नहीं हो सकता? इसलिए सारे तर्कों की पड़ताल के बाद देश की ग़ैर-मुसलिम जनता में या यों कहें कि बहुसंख्यक हिन्दुओं में जो ‘अंडरकरेंट’ है, वह यह कि ऐसे सामाजिक सुधार पर मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के ‘अड़बंगे स्टैंड’ को कहीं से सही नहीं माना जा सकता.

उत्तर प्रदेश चुनाव में ध्रुवीकरण

संयोग से यह मुद्दा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले उठा है. तो विजयदशमी पर ‘जयश्रीराम’, रामायण म्यूज़ियम या कैराना के बहाने वोटों के ध्रुवीकरण में जुटी बीजेपी इस ‘अंडरकरेंट’ को क्यों न भुनाये? सच यह है कि इस मुद्दे पर मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपना विरोध जितना मुखर करेगा, बीजेपी इस बहस को उतना ही तेज़ करने की कोशिश करेगी. क्योंकि कम से कम इस मुद्दे पर बीजेपी पर ‘साम्प्रदायिकता’ या ‘हिन्दू राष्ट्र’ का ठप्पा लगाना बहुत से लोगों को ‘कन्विन्स’ नहीं करेगा. मायावती जब दलित-मुसलिम गँठजोड़ की अपनी कोशिशों के क्रम में मुसलमानों के बीच घूम-घूम कर कह रही हैं कि उनका अपना एक ‘क़ायद’ यानी रहनुमा होना चाहिए, तो उसके जवाब के तौर पर तीन तलाक़ का मुद्दा बीजेपी को न सिर्फ़ हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के पुख़्ता तर्क देगा, बल्कि उन दूसरी पार्टियों के ‘सेकुलरिज़्म’ के पैमाने को भी कटघरे में खड़ा करेगा, जो इस मुद्दे पर खुल कर बोलने से क़तरा रही हैं.

अगर अदालत ने तीन तलाक़ को ख़ारिज कर दिया…

और अगर इस बीच उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले, कहीं सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला शायरा बानो के पक्ष में आ गया तो बीजेपी के लिए सोने पर सुहागा. फ़ैसला चुनाव के पहले न भी आये, तो भी बीजेपी इस मुद्दे को किसी न किसी तरीक़े से बहस के केन्द्र में तो बनाये ही रखना चाहेगी. यह तो हुई एक बात. दूसरी बात यह कि अगर अदालत ने तीन तलाक़ को ख़ारिज कर दिया, तो क्या तब भी मुसलमान इस फ़ैसले का विरोध करते रहेंगे? और ऐसे में उन्हें कितना और किसका समर्थन मिलेगा? क्या सेकुलर पार्टियाँ तब फ़ैसले के ख़िलाफ़ खड़े होने का जोखिम उठायेंगी? क्या उन्हें हिन्दू वोटों के हाथ से निकल जाने का डर नहीं सतायेगा?

तब बहस यूनिफ़ार्म सिविल कोड की तरफ़ बढ़ेगी

ऐसा फ़ैसला आने पर एक और बात होगी. वह यह कि बहस तुरन्त ही यक़ीनी तौर पर यूनिफ़ार्म सिविल कोड की तरफ़ बढ़ जायेगी. शायद कम लोगों ने ध्यान दिया है कि विधि आयोग ने जो प्रशनावली जारी की है, उसमें एक सवाल यह भी है कि क्या यूनिफ़ार्म सिविल कोड वैकल्पिक होना चाहिए? क्या इसका मतलब यह निकाला जाय कि सरकार इस विकल्प पर भी विचार कर रही है कि अगर ज़रूरत पड़ी तो लोगों के लिए यह विकल्प खुला हो कि वह चाहें तो स्वेच्छा से यूनिफ़ार्म सिविल कोड अपना लें या अपना पर्सनल लॉ ही मानते रहें. मुसलमान इसका तो विरोध नहीं कर पायेंगे!

क्या है विधि आयोग की पूरी प्रश्नावली? Click to Read

फिर बन सकती है ‘हिन्दू लहर!’

लेकिन चूँकि हिन्दू बहुमत आज यूनिफ़ार्म सिविल कोड के पक्ष में है, इसलिए ‘वैकल्पिक यूनिफ़ार्म सिविल कोड’ के बहाने भी बीजेपी पूरे देश में एक अलग तरह की ‘हिन्दू लहर’ बना सकती है. इसीलिए मुझे लगता है कि यूनिफ़ार्म सिविल कोड शायद 2019 का एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन जाये. काँग्रेस समेत बाक़ी सेकुलर पार्टियों के लिए तब इस मुद्दे पर बीजेपी को टक्कर दे पाना मुश्किल होगा. लेकिन 2019 में क्या होगा, उत्तर प्रदेश ही इसका सही उत्तर देगा.

[email protected]                 © 2016
http://raagdesh.com by Qamar Waheed Naqvi
‘राग देश’ के इस लेख को कोई भी कहीं छाप सकता है. कृपया लेख के अन्त में raagdesh.com का लिंक लगा दें.

The post यह 2019 की अँगड़ाई है! appeared first on Raag Desh by QW Naqvi.



This post first appeared on Raagdesh -, please read the originial post: here

Share the post

यह 2019 की अँगड़ाई है!

×

Subscribe to Raagdesh -

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×