सरकार ने बड़ी मेहनत की. क़रीब सत्तर-पचहत्तर हज़ार करोड़ रुपये का काला धन बाहर आ गया है. सरकार ख़ुश. इतना बड़ा काम हुआ है, इससे पहले इतना बड़ा काला धन कभी बाहर नहीं आया था. देखिए न, मोदी जी ने चुनाव के पहले वादा किया था, तो काले धन पर भी उन्होंने आख़िर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करके दिखा ही दी.
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VDIS 1997 बनाम IDS 2016
आँकड़ों की ख़ूबसूरती यह होती है कि आप उन्हें जहाँ से और जैसा देखना चाहते हैं, वह वैसे ही दिखने लगते हैं. जैसे 1997 में ‘वीडीआइएस’ (VDIS 1997) से महज़ तैंतीस हज़ार करोड़ रुपये का काला धन बाहर आया था, इस बार IDS 2016 के ज़रिये पैंसठ हज़ार करोड़ से ज़्यादा तो अब तक गिनती में आ चुका है, और आँकड़ों के अन्तिम हिसाब-किताब तक इसके दस हज़ार करोड़ रुपये और बढ़ जाने का अनुमान है. यानी VDIS 1997 के मुक़ाबले दुगुने से भी ज़्यादा काला धन बाहर आया. तब क़रीब दस हज़ार करोड़ रुपये का टैक्स सरकार को मिला था, जबकि इस बार IDS 2016 से तीस हज़ार करोड़ मिला. यानी तब के मुक़ाबले तीन गुना. है न भारी भरकम कामयाबी के आँकड़े!
तब की जीडीपी और अब की जीडीपी!
लेकिन इस आँकड़े में एक आँकड़ा और जोड़ दीजिए और फिर देखिए कि क्या दिखता है! तब की जीडीपी का आकार क्या था, और अब की जीडीपी का आकार क्या है? आज की जीडीपी तब के मुक़ाबले दस गुने से भी ज़्यादा है. तो आप तो दोगुने और तीन गुने में ही छाती ठोके जा रहे हो, क़ायदे से तो 1997 के मुक़ाबले इस बार दस गुना यानी तीन लाख तीस हज़ार करोड़ का काला धन बाहर आता, तब कहीं जा कर आप उसकी बराबरी कर पाते!
चौंसठ हज़ार बनाम पौने पाँच लाख लोग
इसी तरह कहा जा रहा है कि इस बार क़रीब चौंसठ हज़ार लोगों ने पैंसठ हज़ार करोड़ रुपये का काला धन घोषित किया है यानी औसतन हर व्यक्ति ने एक करोड़ रुपये से भी ज़्यादा का काला धन घोषित किया है, जबकि 1997 में हर व्यक्ति ने औसतन सिर्फ़ सात लाख रुपये का काला धन घोषित किया था. यानी इस बार लोगों ने बढ़-चढ़ कर काला धन घोषित किया. हाँ, देखने में तो ऐसा ही लगता है, जब तक आप यह न देखें कि 1997 में पौने पाँच लाख से ज़्यादा लोगों ने काला धन घोषित किया था. कहाँ सिर्फ़ चौंसठ हज़ार लोग और कहाँ पौने पाँच लाख लोग? और यह चौंसठ हज़ार की संख्या भी तब जा कर मुमकिन हुई जब सितम्बर में आय कर विभाग ने छापों और नोटिसों का धुँआधार लगा दिया और लोगों को पकड़-पकड़ कर अपनी काली कमाई घोषित करने पर मजबूर कर दिया.
बहुत नरम थी VDIS 1997 योजना
हाँ, वित्तमंत्री अरुण जेटली की यह बात सही कि टैक्स चोरों के लिए 1997 की योजना बहुत नरम थी और उन्हें दस साल पहले की क़ीमतों के आधार पर अपनी सम्पत्तियों के मूल्य का आकलन करने की अनुमति दे दी गयी थी और टैक्स भी सिर्फ़ तीस प्रतिशत की दर से देना था. जबकि इस बार ऐसा कुछ नहीं था और जुर्माने के साथ पैंतालीस प्रतिशत टैक्स देना था. लेकिन फिर भी सिर्फ़ चौंसठ हज़ार लोग ही काली कमाई घोषित करने के लिए आगे आयें, यह संख्या वाक़ई बहुत कम है, ख़ास कर तब जबकि कम्प्यूटर नेटवर्किंग के इस दौर में आजकल पैसों के लेन-देन और ख़रीद-फ़रोख़्त की पूरी ‘ट्रैकिंग’ के दावों के विज्ञापन छपवाये जाते हैं.
सिर्फ 15% नये लोग सामने आये
ऐसे में उम्मीद तो यही थी कि लोगों में पकड़े जाने का डर होगा और वह इस मौक़े का पूरा-पूरा फ़ायदा उठा कर अपनी काली कमाई और सारे खाते-बही सही कर लेंगे. लेकिन सितम्बर के पहले हफ़्ते तक जितने कम लोगों ने अपनी कमाई का चिट्ठा खोला था, उससे साफ़ है कि टैक्स चोरों को बड़ा इत्मीनान है कि आय कर वाले लोग चाहे जितनी ‘ट्रैकिंग’ का दावा कर लें, वह उन्हें नहीं पकड़ पायेंगे. असलियत भी यही है. ख़बरों के मुताबिक़ इस बार की योजना में अपनी काली कमाई घोषित करनेवालों में सिर्फ़ पन्द्रह प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जिन्होंने पहले कभी टैक्स नहीं दिया था और अब पहली बार टैक्स देंगे और आगे देना शुरू करेंगे. बाक़ी 85 प्रतिशत लोग वे हैं जो बाक़ायदा टैक्स देते थे, लेकिन अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा घोषित न कर टैक्स चुरा लेते थे. यानी इन सारे लोगों को आय कर विभाग जानता था और इसके बावजूद वे अपनी कमाई छुपा ले जाते थे. अब भी इस बात की क्या गारंटी है कि इन लोगों ने अपना पूरा का पूरा काला धन घोषित कर ही दिया हो?
India Black Money Problem: Are We Really Serious To Eradicate It?
काला धन निकासी की हर योजना फ़ेल रही!
इसलिए सरकार चाहे जितनी सफलता के दावे करे, असलियत यह है कि यह योजना अपने लक्ष्य में पूरी तरह फ़ेल रही. जो काला धन बाहर आया, वह शायद पूरे काले धन का सात-आठ प्रतिशत भी नहीं है. यानी क़रीब-क़रीब 92 प्रतिशत काला धन अब भी पकड़ से बाहर है. आज़ादी के बाद से अब तक ऐसी दस योजनाएँ आ चुकी हैं और सबका हश्र एक जैसा हुआ है. न टैक्स चोर पकड़ में आये, न काली कमाई का धन्धा रुका, बल्कि ऐसी हर योजना ने हर कुछ साल बाद टैक्स चोरों को अपनी कमाई के कुछ हिस्से को सफ़ेद करने का मौक़ा ज़रूर दे दिया. वे अपना धन धोते रहे और साथ-साथ काला धन कमाते और बढ़ाते भी रहे.
आधार नम्बर से लीजिए राजनीतिक चन्दा!
बात साफ़ है. काला धन ऐसे नहीं रुकेगा. फिर कैसे रुकेगा? क्या बेवक़ूफ़ी भरा सवाल है! रुकेगा तो तब न, जब कोई रोकना चाहे! किसे नहीं मालूम कि काला धन कहाँ है? काले धन बिन होय न राजनीति! राजनेताओं का धन अचानक कैसे हाहाकारी ढंग से बढ़ जाता है? राजनीतिक दलों को काले धन का कितना बेनामी चन्दा मिलता है? चुनाव में कितना काला धन लगता है? आज तक किसी सरकार ने इस पर कोई लगाम लगाने की कोई पहल की? कैसे करेंगे? अपने पैरों पर कोई कुल्हाड़ी मारता है क्या? आज हर चीज़ के लिए सरकार आधार कार्ड अनिवार्य कर रही है. तो राजनीतिक दलों के लिए भी आधार क्यों न ज़रूरी कर दिया जाय कि पाँच रुपये का चन्दा हो या पाँच करोड़ का, हर चन्दे के साथ आधार नम्बर होना ज़रूरी है. काले धन का एक बड़ा स्रोत सूख जायेगा. कोई है तैयार इसके लिए?
जब रद्द कर दिये गये थे हज़ार के ऊपर के नोट
आज कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि एक हज़ार और पाँच सौ रुपये के नोट रद्द कर दीजिए, काला धन बाहर आ जायेगा. बचकानी बात है. देश में एक बार ऐसा हो चुका है. इस कालम को पढ़नेवाले बहुत-से लोग तब पैदा नहीं हुए होंगे. जनता पार्टी की सरकार ने 16 जनवरी 1978 को अचानक एक हज़ार, पाँच हज़ार और दस हज़ार रुपये के करेंसी नोट रद्द कर दिये. देश की बहुत बड़ी आबादी को तब पहली बार पता चला था कि इतने बड़े-बड़े नोट भी होते हैं. वरना आम जनता के लिए तब सबसे बड़ा नोट सौ रुपये का ही होता था. अनुमान था कि कुल 170 करोड़ रुपये के ऐसे बड़े नोट हैं, और काला धन बड़े नोटों में ही रखा जाता है, क्योंकि बड़े नोट जगह कम लेते हैं, इसलिए उन्हें छिपाना आसान होता है. लोगों से कहा गया कि वह हिसाब देकर इन नोटों के बदले सौ-सौ के नोट ले लें. तो इस तरह कुल सौ करोड़ के नोट रिज़र्व बैंक के पास वापस पहुँचे. 70 करोड़ का पता नहीं चला. तो मान लीजिए कि वह काला धन था, जो ख़त्म हो गया. लेकिन क्या वाक़ई ऐसा हो पाया? वैसे कानाफ़ूसियों में तब यह चर्चा ख़ूब थी कि इन्दिरा काँग्रेस के पास जमा ‘काले धन के भंडार’ को निशाना बनाने के लिए यह पूरी कार्रवाई की गयी थी! सच्चाई चाहे जो हो, राजनीति में काले धन के ‘ता-ता थैया’ करने की चर्चाएँ तब से चल रही हैं!
काले धन की खेती!
इसी तरह काली खेती का गोरखधन्धा है. पिछले कुछ बरसों में अपने आय कर रिटर्न में लाखों लोगों ने लाखों करोड़ की कमाई खेती से दिखायी है. ज़ाहिर-सी बात है कि यह काला धन है, जो खेती के बहाने खुलेआम सफ़ेद किया जा रहा है. ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक़ अरबों का मुनाफ़ा कमाने वाली तमाम बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियों ने कृषि आय के नाम पर कोई टैक्स नहीं दिया. यह कहाँ की बात हुई भला? इसी तरह बहुत-से व्यक्तियों ने सैकड़ों करोड़ की कमाई खेती से दिखायी है. छोटे-मँझोले किसानों को कृषि आय पर टैक्स में छूट दीजिए, लेकिन करोड़ों कमानेवालों को छूट क्यों? कोई सीमा तो हो, जैसे दस लाख से ज़्यादा की सालाना कृषि आय पर टैक्स लगे! सारे छोटे-मँझोले किसान इस सीमा के भीतर आ जायेंगे, बाक़ी जिसकी कमाई दस लाख से ऊपर हो, उसे क्यों नहीं टैक्स देना चाहिए?
रियल एस्टेट से लेकर और जाने क्या-क्या?
इसी तरह रियल एस्टेट में साठ-सत्तर प्रतिशत लेन-देन काले धन में होता है. सब जानते हैं. ऐसे ही तमाम और व्यवसाय हैं, छोटे-बड़े दुकानदार हैं, जहाँ ज़्यादातर कामकाज नक़द करेंसी में होता है और टैक्स चोरी धड़ल्ले से होती है. तो इनको कैसे पकड़ा जाये, यह सोचने की बात है.
काला धन घोषित करने की योजनाओं के शिगूफ़े के अलावा अब तक की किसी भी सरकार ने या मोदी सरकार ने इन तीन-चार बड़े मोर्चों पर काले धन के ख़िलाफ़ कुछ भी किया होता, तो बात समझ में आती कि वह काले धन के ख़िलाफ़ कुछ करना चाहते हैं. वरना तो सब जुमला है. जुमलों का क्या? बस गाल बजाते रहिए!
http://raagdesh.com by Qamar Waheed Naqvi
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