“टिकदा, मेरे लिए भी अपनी जैसी बांसुरी लाना हाँ....नी तो मैं आपसे बोलूँगा नहीं” चंद्रमोहन ने कहा | “ठीक है भउवा लेके आऊंगा तेरे लिए भी अपनी जैसी बांसुरी...लेकिन अभी तू जा यहाँ से...तेरे सोने का टेम हो गया है न” टिकदा ने चंद्रमोहन से कहा | उसके जाने बाद वो भी बिस्तर में लुढ़क गया|
नैनीताल के एक बोर्डिंग स्कूल का चौकीदार ,लगभग 60 बरस की उम्र , चेहरे पर हलकी सी दाढ़ी, खाकी रंग की कमीज, पतलून और कमीज के ऊपर पुराना टल्लेदार कोट , पैर में फौजी बूट और कान में अधजली बीड़ी, नाम टीकाराम पर स्कूल के सभी लोग, जिनमे जाहिर तौर पर बच्चों की तादाद ज्यादा थी, उसे टिकदा कहते थे |
स्कूल के प्रिंसिपल, पालीवाल सर करीब 30 बरस पहले उसे यहाँ लेकर आये थे | उस वक्त पालीवाल जी स्कूल में अध्यापक थे | उन्ही के गाँव का था टीकाराम | उनका गाँव तीन क्षेत्रों में बंटा था, पहले में पंडितो की रिहायिश थी , दूसरे में ठाकुरों के आशियाने थे और तीसरे इलाके में नीची जात वालों के घर थे | तीसरे क्षेत्र को दीगर इलाकों से एक गधेरा( पहाड़ी इलाको में बहने वाली छोटी प्राकृतिक नहर )अलग करता था | गाँव के पुरखों ने जातिगत आधार पर यह बंटवारा किया था, बदलते समय और साक्षरता के फैलाव के साथ ये भावना मानसिक रूप से अपने किनारे पर तो पहुँच गयी थी पर गाँव के भौगोलिक रूप से कोई छेड़छाड़ नहीं करना चाहता था |
टीकाराम के पिताजी अड़ोस-पड़ोस के गावों की शादियों में बीन-बाजा बजाया करते थे | घर के पास उनके कुछ खेत भी थे सो आजीविका का पूरा प्रबंध था | टीकाराम भी नजदीकी सरकारी स्कूल में पड़ता था | परिवार में कोई दुःख न था सब खुश और अपने जीवन से संतुष्ट थे पर खुशी का यह माहोल ज्यादा दिन तक इस परिवार में टिक न सका ,अचानक एक रात शादी से लौटते हुए टीकाराम के पिताजी का आदमखोर बाघ ने अपना शिकार बना लिया |
टीकाराम अपने पिता की असमय मृत्यु के गम से अभी उभरा भी नहीं था कि कुछ दिनों बाद ही खेत में काम करते हुए उसकी माँ भी सांप ने काट लेने के कारण काल के गाल में समा गयी | मासूम टीकाराम के पास खुद पर फटे इन विपदाओं के बादलों को सहन करने की मानसिक शक्ति नहीं थी परिणाम स्वरुप वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा | अब वह दिन भर गाँव के इलाकों में घूमता-फिरता था | रात होते ही किसी कि ड्योडी पर सो जाता , कोई गांववाला उसे खाने को तो कोई पहनने को दे देता था |