‘मोक्षधरा’ सुधीर रंजन सिंह का दूसरा काव्य संग्रह है। इनके पहले और दूसरे संग्रह के बीच दो दशकों की लम्बी समयावधि, जहाँ एक तरफ कवि की परिपक्वता से हमें आश्वासित करती है, वहीं दूसरी तरफ कवि की अपनी ज़मीन को धैर्यपूर्वक तलाशने के प्रति प्रतिबद्धता की ओर भी इशारा करती है। इसी बीच उन्होंने भर्तृहरि के काव्य श्लोकों की अनुरचना का महत्वपूर्ण काम किया है। ‘मोक्षधरा’ की कविताओं में भी वह झलकता है। वही सघन जीवन-बोध जिसमें राग और विराग समान अनुभव के दो छोर हैं। कवि कभी चिड़िया में सूर्योदय को दुबका हुआ देखता है, तो कभी लोगों का अपने-अपने बसों में घुसना अपने घरों में घुसने की तरह देखता है।
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कवि जानता है कि निठल्लापन भी एक तरह का काम है, रोने का विकल्प अकेले में हँसना है, वैराग्य के लिए रेल सर्वोच्च स्थान है, हावड़ा पुल पर गुज़रना ज़मीन पर चलना है, नहीं सहने की आदत कैदी का असली अपराध है। यह एक ऐसी दृष्टि और शैली है जो हमारे समय के कारगर रूपक गढ़ने में सहायक सिद्ध होती है।
सुधीर रंजन सिंह की कविताओं में नास्टैल्जिया की विशेष जगह है। ‘रेल का टाइम टेबल’, ‘छत्तीसगढ़ वाया कुरूद’, ‘छूटे हुए स्टेशन के बाहर’, ‘मन्नू भाई पर कविता’ और ‘अकेले में हँसना’ जैसी कविताओं को पढ़ते हुए हम कवि के जीवन से भी गुज़रते हैं। संग्रह में अनेक कविताएँ हैं जो विलक्षण रूप से आत्म-कथात्मक हैं। आत्म-कथात्मकता और काव्यात्मकता, दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध दिखाई पड़ता है। बहरहाल, विषय कोई भी हो, काव्यात्मकता का आग्रह प्राथमिक है।
कवि कविता से अलग नहीं हो पाता। शायद इसी विशिष्टता की वजह से कविताओं में लगातार एक से अधिक ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। एक आवाज़ असली अनुभवों, नास्टैल्जिया और अनुभूतियों के धरातल पर उच्चारित होती है; दूसरी आवाज़ शुद्ध ‘कवि’ की होती है जो इसे घटता देखता कविता लिख रहा होता है। यही ध्वनियाँ कविता में संवेदनात्मक विवेक और विडम्बना पैदा करती हैं। ‘चील’ कविता में सुधीर रंजन सिंह ने लिखा है –
आकाश में चक्कर लगाते हुए वह दिखाई पड़ी
परिधि इतनी बड़ी थी उसके चक्कर लगाने की
जैसे वह समूचे आकाश को किसी अदृश्य धागे से
बाँध रही हो…
यह एक बढ़िया छंद था
जो मेरी आँखों के आगे रचा जा रहा था
जहाँ इस कविता में कवि छंदों, मुहावरों को तलाशता हुआ अपनी भाषा से संवाद करता है, वहीं संग्रह की पहली कविता, ‘क्रौंच वध को देखने जितना दुख’ में कवि अपनी कविताओं के साथ वार्तालाप करता है। इसी तरह ‘मन्नू भाई पर कविता’ में भी कवि कविता की कुदरत को बचाते हुए कविता लिखने की कोशिश करता नज़र आता है। कवि की यही दृष्टि और शैली हमें ‘अदालतें’, ‘हावड़ा पुल से गुज़रते हुए’, ‘एक ग्रामीण पशु मेले को देखकर’ जैसी कविताओं में भी दिखाई पड़ती है। ‘समय लेता है आकार’ में अपनी इस दृष्टि और शैली के कारण ‘स्रष्टा’ का स्थान ग्रहण करता है –
समय गढ़ता है
दिक् का रूप
और रूप का परिवर्तन होता है
कुछ इस तरह
जैसे मैं ही सब का कर्ता हूँ
सुधीर रंजन सिंह एक समर्थ आलोचक भी हैं। इनका आलोचनात्मक विवेक कवि की कविताओं को लिखे जाने की प्रक्रिया को जाँचती परखती है। ये शायद आज के उन गिने-चुने आलोचकों में हैं जो सही मायने में तर्कशास्त्र में यकीन करते हैं, लेकिन अपने नियंत्रण से चीज़ों को मुक्त भी नहीं रखते। चाहे वह समय ही क्यों न हो। ‘समय लेता है आकार’ कविता में अपनी सोच और समझ को कटघरे में खड़ा करने से नहीं कतराते। इनकी सोच निर्धारणात्मक नहीं है। कवि समय के केवल उस आकार पर विश्वास करता है, जिसका वह ख़ुद कर्ता है। कवि जानता है कि कविता असली अनुभवों से आती है, और उसकी मौजूदगी के बिना कल्पना यथार्थ कुछ नहीं है। और शायद यही वजह भी है कि कविता के सिमटते आकाश पर कवि का आक्रोश करुणा के रूप में सामने आता है। ‘क्रौंच वध को देखने जितना दुख’ में कवि कहता है –
मेरे मन में जो सबसे सुन्दर चिड़िया बैठी थी
मुझे अपना पिंजड़ा मानकर
बहेलिए ने उस पर दया की थी
दया, आक्रोश और करुणा का यही अंतर्द्वंद्व इनकी कविता ’57 हमारी पहली कविता है’ में अपना व्यापक रूप धरता है। इस कविता में कवि कहता है कि करुणा से पहले क्रोध आता है। करुणा में क्रोध का यह हस्तक्षेप महत्वपूर्ण है। हम अक्सर करुणा को क्रोध के बाद की दृष्टि से देखते हैं। सड़क पर मार खाती औरत को देख हमें पहले क्रोध आता है और फिर करुणा पनपती है। कवि की कविताओं से अक्सर झाँकती आत्म-करुणा भी शायद क्रोध का ही प्रतिफल है। गोर्की के ‘मदर’ के आख़री अध्याय को और धूमिल के ‘मोचीराम’ को पढ़ते हुए पहले हमें घटनाओं पर क्रोध आता है, फिर इनके नायक की अवस्था पर करुणा। निराला की शक्तिपूजा के राम की यात्रा भी इसी क्रोध से करुणा और उससे पनपे क्रोध की यात्रा है।
बिम्बों और फंतासियों का यह कवि जानता है की ‘यह दुनिया देखने के लिए बनी है’। दुनिया में श्रृंगार तलाशती इस कविता की आख़री पंक्तियों में कवि कहता है कि काश दुनिया को नष्ट करने के लिए बनाई गई चीज़ें भी केवल देखने के लिए बनी होतीं। कवि का विद्रोह दुनिया को नष्ट करती चीज़ों की मौजूदगी से नहीं, दुनिया के नष्ट होने की प्रक्रिया से है। आख़री पंक्तियों में पैदा होता विरोध इस कवि का स्वभाव है, जो एक तरफ ‘समय लेता है आकार’ में समय से समय को जूझता देखता है, वहीं दूसरी तरफ ‘नींद एक जगह है’ कविता में क्रूर तंत्र को नींद के छिनने से जोड़ देता है। अमूर्त नींद को मूर्त जगह का रूप देती इस कविता में कवि लिखता है –
प्लेटफार्म पर दौड़ते हुए लोगों से बचकर
बूटों की चोटें सहती देह के भीतर
सीने में दबी और बाईं बाँह पर टिकी हुई
नींद आकाशगंगा की तरह दिखाई देती है।
इस तरह के कविता चित्र कवि बार-बार खींचता है। कभी कवि देखता है की शहर भरोसे की जगह नहीं रहा, तो कभी दाँत को बर्बरता के प्रतीक की तरह देखता है। ‘अदालतें’ कविता की आख़री पंक्तियों में कवि जज के हाथों में मूंगफली बेचने वाले का तराज़ू थमाता है और पूरी अदालत को खाली देखता है। हमारी मौजूदा कानूनी व्यवस्था के चरित्र के खिलाफ यह दृश्य व्यंजना में बात करती हुई हमें भीतर से उद्वेलित करती है।
एलियट ने कहा था कि अच्छी कविता समझ में आने से पहले ही अपना संवाद स्थापित करने में सक्षम होती है। सुधीर रंजन सिंह की कविताओं में अक्सर यही बात दिखाई पड़ती है, खासकर इनकी लम्बी कविताओं में। ‘मैं खो गई वस्तुओं को खोजता हुआ’ कविता में कवि लिखता है –
मैं समय की ज़रुरत से बाहर निकल जाऊँगा
रोशनी की ज़रुरत से वस्तुएँ बाहर निकल जाएँगी
अँधेरे की ज़रुरत पानी की तरह पड़ेगी
नमक के बिना हो जाएगी आदमी की देह
और नहाना नहीं पड़ेगा किसी को
कवि की विवशता और जिजीविषा से लदी हुई इस कविता में वस्तुएँ लगभग अमूर्त हैं। ‘बारिश की बूंदों की तरह’ कविता को पढ़ते हुए अनायास हमें शमशेर की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ स्मरण हो आती है। कविता में कवि अकेला है, और अपने आस-पास की चीज़ों में प्रेम के संकेत तलाश रहा है। कविता में गर्मी और बारिश के बीच की मनोस्थिति कविता का रूप भी है।
संग्रह की सबसे लम्बी कविता ‘मोक्षधरा’ है। स्वर्गीय प्रेमनारायण त्यागी, विनय दुबे और कमला प्रसाद को समर्पित इस संग्रह की यह कविता जीवन, मृत्यु और मुक्ति जैसे अनिश्चित और तात्विक प्रत्ययों से जूझती है। कविता में पितृमोक्ष कर्मकांड के लिए प्रसिद्ध नगर गया में भटकता हुआ नगर के इतिहास और मिथकों की थाह लेता कवि अनुभव करता है कि जीवन कोई कम प्रेत नहीं है। कवि कभी घोड़ों की टाप सुनता है, कभी रेल के पारपुल पर चलता हुआ वैतरणी को पार करने का स्वांग रचता है, कभी बारिश में भींगता हुआ आकाश को टपकता हुआ देखता है, तो कभी यहाँ के शमशान, फल्गु नदी और वटवृक्ष से जुड़ी आस्थाओं को टटोलता परखता है। कवि लिखता है –
मृत्यु
एक सूक्ष्म धड़कन है
एक सामूहिक आत्मा है
आत्मा है और उसका वर्णन नहीं हो सकता
आत्मा नहीं है और उसका वर्णन नहीं हो सकता
इसलिए
उसका मोक्ष उचित है
अपनी कविता ‘आदतें’ में कवि स्वीकारता है कि उसे कविता को लम्बी कर देने की आदत है। फंतासियों और बिम्बों की वैचारिकता से सरोकार रखती इन कविताओं में कवि की दीर्घ-वाग्मिता पाठकों से सार्थक संवाद स्थापित करने में सहायक सिद्ध होती है। कविताओं का लम्बा होना उबाऊ साबित नहीं होता।
कविता से ख़ुद को अलग न कर पाने वाला यह कवि जहाँ एक तरफ अपने आसपास की स्थितियों को देखता परखता है, वहीं खुद की उकताहट और उदासी पर पर्दा करने की कोशिश कतई नहीं करता। कवि का अहं बोलता है, लेकिन हावी नहीं होता। कवि सर्वत्र कवि के साथ-साथ उस सामान्य आदमी के रूप में मौजूद है, जिससे पाठक अपना सहज रिश्ता जोड़ सकता है।
काव्य संग्रह – मोक्षधरा
कवि – सुधीर रंजन सिंह
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली
वर्ष – 2014
मूल्य – 300 रूपये
वसुधा 96 से साभार