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बिकसवा की कहानी

चारपाई पर पड़ी बुढ़िया को प्यास लगी। वह उठ नहीं सकती थी। वह काफी दिनों से बीमार चल रही थी। बुढ़िया अपने बेटे और पोते के साथ इस बड़े से घर में रहती थी। मगर बहू उनके साथ नहीं रहती थी। एक दिन बेटे-बहू में कुछ कहा-सुनी हो गई थी और उसी दिन बहू ने घर छोड़ दिया था। घर बड़ा था। समान से ठसा था। तो चिंता की कोई बात न थी। बेटा घर के समान बेचता और उनका गुजारा होता। एक दिन की बात है। बेटा बाजार गया हुआ था, मगर उसका आठ साल का बच्चा घर पर ही था। बुढ़िया ने बच्चे से कहा,'हे बिकास! पानी पिला दे रे!' बच्चे ने अपनी अदाएं दिखाईं। कमर मटकाई। मटके की ओर इशारा किया। खाली गिलास उठाया। उसमें पानी भरने की एक्टिंग की। पास आया फिर भाग गया। बुढ़िया ने एक बार फिर बच्चे से पानी मांगा,'हे बिकास! पानी पिला दे रे!' बच्चे ने वही सब हरकतें कीं,जो उसने पहले की थीं। फिर यही क्रम चलता रहा। बुढ़िया पानी मांगती। बच्चा नाटक करता। बुढ़िया पानी मांगती। बच्चा नाटक करता। बच्चा जब नाटक करता तो बुढ़िया सोचती कि इस बच्चे के लिए कितनी दुआएं मांगी गईं थीं! इसके आने पर कितनी खुशियां मनाईं थीं! तभी संजोग से बुढ़िया की सहेली दूसरे गांव से उसका हाल-चाल लेने आ पहुंची। उसे देखते ही बुढ़िया कातर स्वर में बोली,'पानी पिला दे रे! अरे दादा! ई बिकास तो मार डालिस!'' पानी पिलाते हुए सहेली ने पूछा,'हुआ क्या!' पानी पीने के बाद बुढ़िया बोली,'अब का बताएं! ई बिकसवा हाथ न आता है! बुलाओ तो उल्टा भागता है!!!' मामला जानते ही सहेली गुस्से से बोली,'आज मैं कहीं जाने वाली नहीं हूं...आने दो महेंदर को... उसे सारी बात बताऊंगी!' यह सुनते ही बुढ़िया सहम गई। बोली,'अरी बहन ऐसा न करना! वो मानेगा नहीं! तू तो चली जायेगी,बाद में मेरे सारे सगे-संबंधियों को खरी-खोटी सुनाएगा!' सहेली ने चारपाई पर पड़ी अपनी सहेली को गौर से देखा। बुढ़िया आगे बोली,'कहेगा तू बीमारी की नाटक करती है! मेरे बेटे को सब मिलकर बदनाम करते हैं!' 'ऐसा क्यों करता है!' सहेली ने पूछा। 'अपने फैसले को सही ठहराने के लिए! वह अपने फैसले को सही ठहराने के लिए किसी को भी झूठा सिद्ध कर सकता है!' 'कैसा फैसला!' 'बच्चे को गोद लेने का फैसला उसी का था!' 'ओह! तो ये बात है! मगर गांव वाले कुछ कहते नहीं क्या! महेंदर को समझाते नहीं!' 'जब कोई समझाने आता है, तो वह उन्हें उल्टे दौड़ा लेता है! सेठ के आदमी भी इसमें उसका साथ देते हैं!' 'ऐसा वो क्यों करता है!आखिर है तो वह तुम्हारा ही बेटा!' 'हां है तो!' 'फिर!!!' 'मगर आजकल उसे सबका बाप बनने का भूत सवार है!' 'वैसे है कहां!' 'बाजार गया है!' 'कुछ खरीदने गया है!' 'खरीदने नहीं बेचने!' 'बेचने!' 'हां' बुढिया ने गहरी सांस ली और बोली,' 'हंडा तो बेच ही चुका था,इस बार सेठ के यहां परात भी रखने गया है!' दोनों बातें कर रही थीं कि तभी बुढ़िया का बेटा आ गया। 'जैसे तुम्हें अपने बेटे से उम्मीदें हैं, वैसे तुम्हारी मां को भी तुमसे उम्मीदें हैं!' बुढ़िया की सहेली उसे देखते ही बोली। 'वाह मौसी! हमारे घर में हमीं से शिकायत!' 'ये तो तुम्हारे बाप दादाओं का घर है!' बुढ़िया की सहेली ने बोलना चाहा,मगर कह न सकी। उसने एक टक मौसी को देखा। फिर बोला, 'किसी को किसी से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए! समझी न! सारे दुखों का मूल यही है!' कुछ क्षण को वह रुका फिर बोला,'एक बात बताएं मौसी! हम जानते हैं कि तुम हमारा विश्वास नहीं करोगी,फिर भी बोले देते हैं,क्योंकि हमें चुप रहने की आदत नहीं! उम्मीद तो हम हमारे बिकास से भी नहीं करते! वो क्या है कि उम्मीद के मामले में हम आत्मनिर्भर हैं।' 'आखिर तुम्हारा विकास मेरी सहेली के किस काम का!' बुढ़िया की सहेली हिम्मत जुटाकर बोली। 'किसी के काम का हो न हो,पर मेरे बहुत काम का है। उसी की वजह से पूरे गांव में हमें बाप का दर्जा मिला है।' यह कहते हुए वह अपने कमरे में चला गया। 'क्या वह तुझे प्यार नहीं करता!' उसके जाने के बाद वह धीरे से बोली। 'करता है न! जब कोई मेहमान आता है तो मुझे नई साड़ी पहनवा देता है। ये तो तू बिन बताए चली आई ! अगर बता कर आती तो मुझे सजा-संवरा देखकर तू जान ही न पाती कि मैं बीमार हूं!' बुढ़िया ने धीरे से जवाब दिया। सहेली ने घर पर एक नजर मारी। बरसों से वह यहां आती-जाती रही। मगर घर इतना अनजाना कभी नहीं लगा! अनूप मणि त्रिपाठी


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