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मुल्क में रूसी तर्ज का इंक़लाब चाहते थे -सआदत हसन मंटो

-शकील सिद्दीकी यह तथ्य बहुत से पाठकों को अविश्वसनीय लग सकता है परन्तु है एक दम खांटी यथार्थ कि कुछ ख़ास तरह की कहानियों के लिए चर्चित उर्दू कथाकार सआदत हसन मंटो अपने बहुत प्यारे मुल्क यानी हिन्दुस्तान में रूसी तर्ज़ के इंक़लाब का स्वप्न देख रहे थे। निश्चित ही तब तक एक कथाकार की उनकी पहचान सार्वजनिक नहीं हुई थी, हाँ कथाकार के अंक के नया कानून में मंगू कोचवान एक गोरे द्वारा उसे अपमानित किये जाने पर सघन बेचैनी व संक्रमण का दौर था। बामपंथी सोच तथा उससे उपजी राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियां अपनी उपस्थिति का लगातार सुबूत दे रही थीं। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत से पैदा हुए व्यापक आक्रोश की चिंगारी का ताप अभी शेष था मुल्क के लाखों नौजवानों के समान मंटों ने भी इस शहादत और उनके क्रांतिकारी विचारों का बहुत असर लिया। उन्होंने अपने कमरे में भगत सिंह, का चित्र भी लगाया। महबूब के समान बम और पिस्तौल उन्हें अच्छे लगते थे। उनके एक जीवनीकार के शब्द हैं- ‘‘मंटों अपने इब्तिदाई दौर में बाग़ी थी, इंक़लाबी थे वह हाल (वर्तमान) से ग़ैर मुतमइन थे, एक दरख्शां (चमकीले)मुस्तक़बिल की आग उनके सीने में भड़क रही थी। वर्तमान से मुतमइन होने को वह जुमूद (ठहराव) और बेहिसी की निशानी समझते थे।’’ उनका क़ौल था कि वर्तमान से बग़़ावत करने से ही हम हालात का तख़्ता पलट कर एक पुरउम्मीद और बेहतर मुस्तकबिल की तवक्क़ो कर सकते हैं। अपनी एक कहानी ‘दीवाना शायर’ में वह एक इंक़लाबी की व्याख्या यों करते हैं- ‘‘इंक़लाबी वह है जो हर नाइंसाफी और हर ग़लती पर चिल्ला उठे। इंक़लाबी वह है जो ज़मीनों सब आसमानों सब ज़बानों सब वक़्तों का एक मुजस्सम गीत हो, इंक़लाबी समाज के क़साब खाने का एक मजदूर है, तुनूमन्द जो आहनी हथौड़े की चोट से ही अरज़ीजन्नत के दरवाज़े खोल सकता है’’ इंक़लाबी की व्याख्या भले एकदम खरी न हो फिर भी इससे उनके इंक़लाब के बारे में सोचने की दिशा और हालात से उनके उद्वेलनकारी आक्रोश का संकेत तो मिलता ही है। कहानी इंक़लाब पसंद जिसके वह स्वयं नायक हैं अपने को पागल समझे जाने की स्थिति का बिम्बयों उभारते हैं। ‘‘इसलिए कि मैं उन्हें ग़रीबों के नंगें बच्चे दिखला कर यह पूछता हूॅ कि इस बढ़ती हुई ग़ुरबत का क्या इलाज हो सकता है- वह मुझे कोई जवाब नहीं दे सकते इसलिए मुझे पागल तसव्वुर करते हैं.... वह मुझे पागल कहते हैं- वह जिनकी नब्ज़े हयात दूसरों के ख़ून की मर्हूने मिन्नत (निर्भर) है वह जिनका फ़िरदौस (स्वर्ग) ग़रीबों के जहन्नम की मांगी हुई ईंटों से इस्तवार किया गया है। वह जिनके साज़े इशरत के हर तार के साथ बेवाओं की आहें, यतीमों की उरियानी (नर्वस्त्रता) लावारिस बच्चों की सदा-ए-गिरिया (विलाप के स्वर) लिपटी हुई है- ....मैं पागल नहीं हूॅ- मुझे एक वकील समझो, बग़ैर किसी उम्मीद के जो उस चीज़ की वकालत कर रहा है, जो बिल्कुल गुम हो चुकी है....... इंसिानियत एक मुॅह है और मैं एक चीख’’ (कुल्लियाते मन्टो पृ0 47) अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रसिद्ध प्रगतिशील शायर अलीसरदार जाफ़री से मुलाक़ात होने पर उन्होंने उनसे अपना परिचय देते हुए कहा था ‘‘मैं भी एक इंक़लाबी हूॅ।’’ अली सरदार जाफ़री ने अपने संस्मरण में ख़ास ज़ोर इस बात पर दिया है कि मंटो ने न सिर्फ़ उन्हें आस्कर वाइल्ड और विक्टर ह्यूगो से परिचित कराया बल्कि भगत सिंह का एक आर्टिकिल भी पढ़ने को दिया। उस यूनीवर्सिटी में उन दिनों बामपंथियों का ख़ासा ज़ोर था वहॉ के बामपंथियों ने उनकी सोच पर अपने नक़्श भी छोड़े, क्षयरोग हो जाने के कारण ग्रेजुएशन की पढ़ाई वह पूरी नहीं कर पाये और कश्मीर होते हुए अमृतसर लौट आये। उनके सामाजिक उरियानी (नर्वस्त्रता) लावारिस बच्चों की सदा-ए-गिरिया (विलाप के स्वर) लिपटी हुई है- ....मैं पागल नहीं हूॅ- मुझे एक वकील समझो, बग़ैर किसी उम्मीद के जो उस चीज़ की वकालत कर रहा है, जो बिल्कुल गुम हो चुकी है....... इंसिानियत एक मुॅह है और मैं एक चीख’’ (कुल्लियाते मन्टो पृ0 47) अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रसिद्ध प्रगतिशील शायर अलीसरदार जाफ़री से मुलाक़ात होने पर उन्होंने उनसे अपना परिचय देते हुए कहा था ‘‘मैं भी एक इंक़लाबी हूॅ।’’ अली सरदार जाफ़री ने अपने संस्मरण में ख़ास ज़ोर इस बात पर दिया है कि मंटो ने न सिर्फ़ उन्हें आस्कर वाइल्ड और विक्टर ह्यूगो से परिचित कराया बल्कि भगत सिंह का एक आर्टिकिल भी पढ़ने को दिया। उस यूनीवर्सिटी में उन दिनों वामपंथियों का ख़ासा ज़ोर था वहॉ के वामपंथियों ने उनकी सोच पर अपने नक़्श भी छोड़े, क्षयरोग हो जाने के कारण ग्रेजुएशन की पढ़ाई वह पूरी नहीं कर पाये और कश्मीर होते हुए अमृतसर लौट आये। उनके सामाजिक दृष्टिकोण तथा अध्ययनशीलता को वहॉ एक उत्तेजक मोड़ अवश्य मिला, इस मोड़ को क्रांतिकारी आयाम दिया अलीगढ़ के ही एक पूर्व छात्र बारी अलीग ने जिनसे उनकी मुलाक़ात मशहूर शायर अख़्तर शीरानी के साथ अमृतसर में ही जीजे के चाय खाने में हुई थी। बारी अलीग पक्के कम्युनिस्ट तो थे ही समर्थ पत्रकार भी थे। विश्व साहित्य विशेष रूप से क्रांतिकारी साहित्य की उन्हें विशद जानकारी थी उन्हें। इससे पहले फैज़ उन्हें(मंटो को) दिशा तथा उनकी सोच व मानसिक उठान को देखते हुए उन्हें क्लास में न आने की छूट दे ही चुके थे। बारी अलीग ने मंटों में न केवल अनुवादक पत्रकार फिल्म समीक्षा इससे सम्बन्धित अन्य लेखन तथा बहुत हद तक कथाकार की दक्षता को भी विकसित किया।ं यही वजह है कि उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ अनुवाद से हुआ। स्वयं फैज़ ने उनसे चेख़व व गोर्की की कुछ कहानियों के अनुवाद करवाये थे। बारी अलीग की प्रेरणा से उन्होंने न केवल कई रूसी व फ्रांसीसी कृतियों के, बल्कि विक्टर ह्यूगो की प्रसिद्ध ‘‘लास्ट डेस ऑफ कन्डेम्ड’’ पुस्तक आस्कर वाइल्ड के नाटक ‘वीरा’ का भी अनुवाद किया। हसन अब्बास सहयोगी के रूप में उनके साथ थे। पुस्तक छपने पर अमृतसर की सड़कों-गलियों में बड़े-बड़े पोस्टर लगवाये गये। बड़े अक्षरों में उन पर लिखा हुआ था- मुस्तबिद (एकाधिकार वादी) और जाबिर हुक्मरानों का इबरतनाक अंजाम रूस के गली कूचों में सदा-ए-इंतिक़ाम ज़ारियत के ताबूत में अखि़री कील आज वह सब भले बहुत अर्थपूर्ण न लगता हो लेकिन एक ख़ास दौर तक रूसी इंक़लाब का प्रभाव बहुत व्यापक था, प्रगतिशील-बामपंथी विचारकों-लेखकों-कवियों ने इस प्रभाव को अप्रतिम विस्तार दिया था। मंटो की निम्न पंक्तियां उस प्रभाव का ही नतीजा हैं- ‘‘हमने अमृतसर को मास्को तसव्वुर कर लिया था और उसी के गली कूचों में मुस्तबिद और जाबिर हुक्मरानों का अंजाम देखना चाहते थे। कटरा जैमल सिंह, कर्मों ड्योढ़ी या चौक फरीद में ज़ारियत का ताबूत घसीट कर उसमें आखि़री कील ठोकना चाहते थे...... बारी साहब, इशतेराकी (साम्यवादी) अदीब बारी हमारे गुरू थे’’ (मंटो-गंजे फरिश्ते पृ0 86) ‘‘आज मैं जो कुछ भी हूॅ, उसको बनाने में सबसे पहला हाथ बारी साहब का है.......’’ (मंटोनामा-पृ0 43) संम्भव है बारी साहब से उन्होंने द्वन्दात्मक भौतिक वाद व वर्ग विभाजित समाज की विसंगतियों की भी सुन-गुन ली हो। जलियांवाला बाग़ के एक दरख़्त के नीचे बैठकर बम बनाने पिस्तौल जुटाने की जुगाड़ पर चर्चा करते हुए रूसी इंक़लाब को हिन्दुस्तान में घटित करने, समानता पर आधारित समाज के निर्माण का स्वप्न देखने, कामरेड, मुफक्किर व बाग़ी के छद्म नाम से लेखन करने तथा कार्लमार्क्स लेनिन मैक्सिम गोर्की रूसी क्रांति इत्यादि पर लेख लिखने के बावजूद किसी सामूहिक कार्यवाही की पहल में उनकी सक्रियता का उल्लेख मिलना अमृतसर के तत्कालीन हालात का संकेत तो है ही साथ ही इसमें व्यक्तिवाद के कुछ तत्व अवश्य थे। इससे यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि व्यक्तिवादी क्रांतिकारी या विद्रोही नहीं हो सकता या वह क्रांति के सपने नहीं देख सकता। ‘‘सोवियत रूस अब ख़्वाब नहीं ख़्यालेख़ाम नहीं, दीवानापन नहीं एक ठोस हक़ीक़त है। वह हक़ीक़त जो हिटलर के फौलादी इरादों से कई हज़ार मील लम्बे जंगी मैदानों में टकराई और जिसने फ़ॉसिस्ट आहन पोष के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। वह इशतेराकियत (साम्यवाद) जो कभी सिर फिरे लौंडो का खेल समझ जाता था वही इशतेराकियत जो नंगे-दीन और नंगे-इंसानियत यकीन की जाती थी आज रूस के वसीओ अरीज़ (विराट) मैदानों में बीमारे इंसानियत के लिए उम्मीद की एक किरन बनकर चमक रही है-’’(मंटो-कार्लमार्क्स लेख में) बारी अलीग ने अमृतसर से साप्ताहिक पत्र जारी किया तो उसके सम्पादकीय विभाग मंे मंटो भी थे। उसके प्रवेशांक के मुख पृष्ठ पर बारी साहब का लम्बा लेख ‘‘हीगेल से मार्क्स तक’’ प्रकाशित हुआ था इसी अंक में उनकी पहली कहानी तमाशा भी प्रकाशित हुई। बारी अलीग का लेख मंटो के लिए बहुत काम की चीज़ साबित हुआ। यह हीगेल व मार्क्स के दर्शन की अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने की ओर अग्रसर हुए। उस्ताद के तौर पर बारी साहब तो थे ही। हिन्दी और उर्दू प्रगतिशीलों की बड़ी जमात के बीच वह उन थोड़े प्रगतिशीलों में थे जिन्होंने प्रगतिशीलता के साथ मार्क्सवाद को जानने की कोशिश बराबर जारी रखी। पूंजीवाद की चोटों से वह स्वयं आहत थे। मार्क्सवाद को वह पूंजीवाद के ऐसे ठोस विकल्प के रूप में देख रहे थे, जिससे दुखी इंसानों की मुक्ति संभव है। किशोरावस्था से ही वह तीव्र ज़ेहनी कशमकश का शिकार रहे उम्र बढ़ने के साथ स्वीकार व निषेध की यह प्रक्रिया तेज तर होती गयी। उनका आत्म संघर्ष शदीद होता गया। तब भी शराब ख़ोरी और अभावों की तीव्रता के दौर को छोड़कर अन्तरविरोधों के पार जाने की कोशिशें कभी धूमिल नहीं हुईं। धन्ना सेठों भूपतियों तथा शोषक तबकेके खिलाफ उनका आक्रेश कभी शिथिल नहीं पड़ा ठीक उसी तरह जैसे वंचित वर्गों के प्रति उनकी सहानुभूति व स्त्री पक्ष धरता। उम्र के एक पड़ाव के बाद भले उन्होंने प्रगतिशलों कम्यूनिस्टों पर उपहासात्मक व्यंग्य किये हों उन्हें सुखऱ्ा या दो प्याज़ा कहा हो लेकिन उनके जीवन में ऐसा कोई क्षण नहीं आया जब पूंजीवाद से उनकी नफ़रत धूमिल होती महसूस हुई हो। जिसका सबसे बड़ा प्रमाण चचा साम के नाम लिखे गये उनके पत्र हैं जो प्रायः पाकिस्तान में लिखे गये और जो उनके जीवन के रीतते हुए वर्ष थे। इसी तरह एक बेहतर न्यायपूर्ण समाज का स्वप्न भी उनकी ऑखों में कभी नहीं धुंधलाया वह रूसी तर्ज़ की क्रांति इसी उद्देश्य को पाने के लिए संभव करना चाहते थे। पाकिस्तानी सरकार ने आखि़र उन पर कम्युनिस्ट होने के आरोप में ही प्रतिबन्ध लगाया था इसलिए उनका इंक़लाब पसंद या कम्युनिस्ट होना युवाकाल का वक़्ती जोश भर नहीं था। -मो0 9839123525



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