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जाति का उन्मूलनः क्रांति और प्रतिक्रांति

उना, गुजरात में हुए भयावह घटनाक्रम से यह साफ है कि देश में दलित-विरोधी मानसिकता अब भी जीवित है। इस तरह की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, यद्यपि पिछले दो वर्षों में इनमें तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। हमें यह समझना होगा कि इस मानसिकता के पीछे वह राजनीतिक विचारधारा है, जो जातिप्रथा को औचित्यपूर्ण बताती है। हमें यह याद रखना होगा कि सन 2002 में गाय की खाल उतारने को लेकर झज्जर, हरियाणा में हुई हिंसा को विहिप के आचार्य गिरीराज किशोर ने उचित ठहराया था।
यूरोप के कई देशों में भी जन्म-आधारित वर्गीय और लैंगिक पदक्रम थे, जिन्हें औद्योगिक क्रांति ने समाप्त कर दिया और वहां सच्चे प्रजातंत्र का आगाज़ किया। भारत में ऐसा इसलिए नहीं हो सका क्योंकि हमारे देश के औपनिवेशिक शासकों ने ऐसा नहीं होने दिया। पष्चिम में र्हुइं औद्योगिक क्रांतियों ने वहां के सामंती वर्ग का खात्मा कर दिया। यह सामंती वर्ग ही जन्म-आधारित पदक्रम का संरक्षक और पैरोकार था। भारत में औपनिवेशिक शासन ने देश के औद्योगिकरण की शुरूआत की और आधुनिक शिक्षा की भी, परंतु इनसे जन्मे आधुनिक समाज में भी जातिगत पदक्रम बना रहा। इसी आधुनिक समाज से भारतीय राष्ट्रवाद उपजा, जो जाति, धर्म और लिंग से परे सभी नागरिकों की समानता का हामी था।
औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ जहां देश  का औद्योगिकरण करना चाहते थे, वहीं वे सामंती ताकतों को भी जीवित रखना चाहते थे। सामंती ताकतों और पुरोहित वर्ग के गठजोड़ ने धार्मिक राष्ट्रवादों - मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद - को जन्म दिया। यूरोपीय देशों के उपनिवेशों में औद्योगिकरण से आए परिवर्तनों की गति उतनी तेज़ नहीं थी जितनी कि यूरोपीय देशों में थी, जहां श्रमिकों और महिलाओं ने मिलकर सामंती और पुरोहित वर्ग के गठबंधन को समूल उखाड़ फेंका। उपनिवेशों  में समाज के धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया धीमी बनी रही और उनके स्वतंत्र हो जाने के बाद भी, इन देशों में समाज के कुछ वर्गों के संरक्षण में सामंती मानसिकता बनी रही। औद्योगिक क्रांति ने उपनिवेशों  में सामाजिक बदलाव नहीं लाया। जहां तक भारत का प्रष्न है, यहां जोतिराव फुले के नेतृत्व में दलितों की समानता हासिल करने की धीमी और लंबी यात्रा शुरू हुई। सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की समानता की लड़ाई शुरू की। इन धाराओं का दकियानूसी धार्मिक तत्वों ने कड़ा विरोध किया। इन्हीं तत्वों ने आगे चलकर हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसी संस्थाओं का रूप ले लिया।
भारतीय राष्ट्रवाद की यात्रा में अंबेडकर ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने कालाराम मंदिर और चावदार तालाब जैसे आंदोलन चलाकर सामाजिक प्रजातंत्र लाने की कोशिश की। उन्होंने मनुस्मृति के दहन को अपना समर्थन देकर सामाजिक समानता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाई। क्रांति हमेशा एक दिन या कुछ महिनों में नहीं होती। कभी-कभी वह कई चरणों में होती है और दशकों तक जारी रहती है। इस अर्थ में जोतिराव, सावित्रीबाई, अंबेडकर और पेरियार क्रांतिकारी थे। इनका भारतीय राष्ट्रवाद ने अनमने ढंग से समर्थन किया और हिन्दू राष्ट्रवाद ने खुलकर विरोध। गांधी, जो कि भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक थे, ने अछूत प्रथा का भरसक विरोध किया, यद्यपि विधानमंडलों के चुनाव में आरक्षण के मुद्दे पर उनकी सोच पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा सकता है। आधुनिक भारत के निर्माता नेहरू ने अंबेडकर के नेतृत्व में एक ऐसे संविधान का निर्माण करवाया जो न केवल सभी को औपचारिक समानता देता है बल्कि दलितों की बेहतरी के लिए आरक्षण जैसे सकारात्मक कदमों का प्रावधान भी करता है। हिन्दू कोड बिल व अन्य तरीकों से भारतीय समाज में सुधार लाने के नेहरू के प्रयासों को उनकी पार्टी के भीतर के दकियानूसी तत्वों और बाहर के हिन्दू राष्ट्रवादियों ने विफल कर दिया।
दलित यदि आज भी पराधीन बने हुए हैं तो उसका मुख्य कारण हिन्दू राष्ट्रवाद है, जिसने भारतीय संविधान का भी विरोध किया था। हिन्दू राष्ट्रवादी हमेशा से आरक्षण का विरोध करते आए हैं। उनके विरोध के चलते ही अहमदाबाद में सन 1981 में दलित-विरोधी दंगे हुए थे और फिर 1986 में अन्य पिछड़ा वर्गों के खिलाफ हिंसा हुई थी। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद, हिन्दू राष्ट्रवादी भाजपा ने राममंदिर मुद्दे पर देशभर में जुनून खड़ा कर दिया। यह सही है कि जो लोग दलितों के खिलाफ हिंसा करते आए हैं, उन्हें शायद ही कभी उनके कृत्यों की सज़ा मिली हो। इसका कारण भी वह मानसिकता है, जिसकी जड़ें हिन्दुत्व की विचारधारा में हैं। यह विचारधारा केवल उन लोगों तक सीमित नहीं है जो हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए सीधे काम कर रहे हैं। इनके अतिरिक्त भी बड़ी संख्या में ऐसे तत्व, संगठन और दल हैं, जिनकी यही मानसिकता है।
इन हालातों को बदलने के लिए एक क्रांति की आवश्यकता है। परंतु यह क्रांति खूनी क्रांति नहीं होगी और ना ही यह रातों-रात होगी। यह क्रांति हमारी रोज़ाना की जिन्दगी में होगी। हिन्दू राष्ट्रवादी भाजपा की गोद में जा बैठे उदित राज, रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे लोग इस क्रांति की राह में एक बड़ी बाधा हैं। जहां तक सामाजिक परिवर्तन का सवाल है, हिन्दू राष्ट्रवादी, प्रतिक्रांतिकारी ताकतों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भाजपा, आरएसएस की राजनैतिक शाखा है और आरएसएस, हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्रवाद के रास्ते हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करना चाहता है। वे तथाकथित दलित नेता, जो भाजपा के साथ हो लिए हैं, भी जातिगत समानता की राह में रोड़ा हैं। इन कथित दलित नेताओं को यह समझना चाहिए कि भाजपा, राष्ट्रीय स्तर के महत्वपूर्ण संस्थानों में ऐसे मूल्यों के बीज बो रही है जो दलित-विरोधी मानसिकता को बढ़ावा देंगे। उदाहरणार्थ, भाजपा ने सुदर्शनराव नामक एक सज्जन को भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का मुखिया नियुक्त किया है। राव का कहना है कि जाति व्यवस्था से किसी को कभी कोई समस्या नहीं रही है और किसी ने कभी इस व्यवस्था के खिलाफ कोई शिकायत नहीं की। भाजपा के पितृसंगठन आरएसएस का कहना है कि भारत में सभी जातियां समान थीं और समस्या मुसलमानों के हमले से शुरू हुई।
ये सारी झूठी बातें और बेबुनियाद तर्क, समाज की आंखों में धूल झोकने के प्रयास हैं ताकि जातिप्रथा बनी रहे और दलितों को नीची निगाहों से देखा जाता रहे। यही कारण है कि रोहित वेम्युला को आत्महत्या करनी पड़ती है और उना जैसी दिल को दहला देने वाली घटनाएं होती हैं। अगर भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन एक क्रांति था, तो हिन्दू राष्ट्रवाद की आज की राजनीति एक प्रतिक्रांति है जिसे अवसरवादी दलित नेताओं का पूरा समर्थन प्राप्त है। हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि रोहित वेम्युला व उना जैसी घटनाओं के खिलाफ दलित और गैर-दलित युवा उठ खड़े होंगे और अवसरवादी तत्वों को दरकिनार करते हुए जाति के उन्मूलन की दिशा में तेज़ी से कदम बढ़ाएंगे।

-राम पुनियानी
         



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