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इक्कीसवीं सदी का ' बीरबल" शायद ही भूल पाये 'अकबर " का आगरा

 - पत्रकारों और रंगकर्मियों ने भरे मन से अलविदा कहा योगेन्द्र दुबे को

अकबर को बीरबल(योगेन्‍द्र दुबे) ने यमुना नदी
की बदहाली जमकर दी सीखें.


   आगरा,वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात नाट्कर्मी श्री योगेन्‍द्र   दुबे का पार्थव शरीर पंचतत्वों में विलीन हो गया. ताजगंज शमशान घाट पर उनकी अंत्येष्ठी की

आगरा,वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात नाट्कर्मी श्री योगेन्द्र दुबे का पार्थव शरीर पंचतत्वों में विलीन हो गया. ताजगंज शमशान घाट पर उनकी अंत्येष्ठी की गयी . इस अवसर पर बडी संख्या में सांस्कृतिक कर्मी, पत्रकार एवं दुबे परिवार के स्वजन मौजूद थे.उनका हृदय गति रुकजाने से गुरुवार को निधन हो गया था.उनके बेटे प्रज्ञान दुबे ने मुख्यग्नि दी .

वरिष्ठ रंगकर्मी श्री अनिल शुक्ला के अनुसार पत्रकारों ,रंगकर्मियों की शेकसभा का आयोजन रविवार को अपराह्न तीन बजे घटिया आजम खां स्थित हरियाली वाटिका

में किया गया है.

श्री दुबे एक मस्त एवं सहज स्वभाव के व्यक्ति थे, एक पत्रकार के रूप में उन्होंने अपने समय के बेहद चर्चित रहे दैनिक विकास शील भारत से अपनी पारी की शुरूआत की.फिर अमर उजाला से जुडकर कई दशकों तक समाचार पत्र के मेरठ,बरेली संस्करणों में काम किया किया .सेवानिवृति के बाद दिल्ली से आगरा लौट आये तथा रंगकर्मी के रूप में सक्रिय हो गये.हकीकत में दुबे जी अपने छात्र जीवन से ही नाटकों में भाग लेते रहे थे.वर्तमान में थियेटर में भागीदारी के साथ ही आगरा लीक्स न्यूज पोर्टल का संपादन कर रहे थे.

जनधन की बर्बादी पर अकबर को ताकीद करता बीरबल दर्शकों में शामिल
हैं तत्‍कालीन कमिश्‍नर प्रदीप भटनागर एवं उनकी पत्‍नी संगीता भटनागर.

आगरा में उनका सबसे लोकप्रिय नाटक 'हाथीघाट पै अकबर' माना जाता है,जिसमें बीरबल का किरदार उनके द्वारा अभिनीत किया जाता था. इसके माध्यम से उन्होंने यमुना नदी की बदहाली दूर करने में नाकामी के लिये सरकारी तंत्र पर अपने अंदाज में प्राहर किया था. इसी श्रंखला का दूसरा नाटक  'जाम के झाम में अकबर' है.इसके माध्यम से आगरा में बनी रहने वाली ट्रैफिक जाम की स्थिति पर करारा प्राहर किया था.ये दोनों ही नाटक वरिष्ठ रंगकर्मी श्री अनिल शुक्ला के द्वारा लिखे हुए है और इनका मंचन रंगलीला के के तत्वावधान में होता रहा है.

शायद नाट्य कर्मियों में से भी कम को ही मालूम होगा कि यमुना नदी की बदहाली पर मंचित किया गया नाटक जापान से आयी यमुना एक्शन प्लान को पोषित करने वाली जापान बैंकआफ इंटरनेशनल कॉपरेशन (जे बी आई सी) की टीम के सदस्यों ने देखा ही नहीं इसे रिकार्ड कर प्रोजेक्ट के इंपैक्ट लैस होने पर कार्यदायी संस्था जलनिगम के अधिकारियों गहन पूछ ताछ भी की.

 समय अंतराल के साथ ही श्री अनिल शुक्ला के द्वारा स्थापित  'रंगलीला' के संयोजक बने। आगे चलकर जब श्री शुक्ला ने  'भगत' के पुनरुद्धार को एक बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन छेड़ा तो योगेंद्रजी की उस आंदोलन अत्यंत सक्रियता रही. 

' अलविदा "
अपने समय के यायावर पत्रकार स्व बलबीर सिंह नार्वी  के एकांकी " बायज होस्टल रुम न०7और भगवती चरण वर्मा कृत सब से
 बड़ा सवाल' का मंचन उनकी आरंभिक मचीय गतविधि थी. रत्नमुनि जैन कालेज में अपनी संस्था वीनस कला मंच के वार्षिक उत्सव  (1976) के मौके पर इसका मंचन किया गया था,यह वह समय था जब आगरा में अच्छे प्रेक्षागार की बेहद कमी थी और सूर सदन बनकर पूर्ण नहीं हुआ था.

श्री अनिल शुक्ला उन बीते हुए दिनों की याद कर बताते है कि आगरा के विभिन्न स्कूलों,चौराहों,पार्कों में हमलोग सांस्कृतिक संध्या के कार्यक्रम किया करते,जिसमें सामाजिक एकांकी इंसान की मूर्ति और हास्य प्रहसन बुलाकी नाई, दांतों का डाक्टर के साथ सामूहिक लोकनृत्य,गीत । साथ ही बालोजी जैसे सितारवादक गायकों के कार्यक्रम भी जरूर होते।

स्मृतियां कुरेदने पर वह कहते हैं कि  इन कार्यक्रमों के लिए समय के साथ हमें आने-जाने मेकअप आदि के लिये लोगों का सहयोग भी मिलना शुरू हो गया था,हालांकि वह हमेशा जरूरत से कही कम ही रहता रहा । लेकिन इस दौरान रंगकर्मियों की इस मंडली की पहुंच हाथरस मथुरा,बाह,होलीपुरा आसपास तक हो गई थी।

1972 - 1978 तक  स्व. दुबे के साथ 15-20 युवाओं की टोली ' इन्सान की मूर्ति, सबसे बड़ा सवाल, चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ' उसने कहा था', मुर्दे, खाट खड़ी और बिस्तर गोल ,बुलाकी नाई के लिये अपनी पहचान बना चुके थे।

इसी दरम्यान  संस्था नाट्य कला निकेतन के नाटक 'मंगल कलश' 'षडयंत्र'   आशु सक्सेना के एकांकी ' काठ का राजा' और आलोक गुप्ता के नाटक "पोस्टर" और बसंत रावत के नाटक " दुखवा में बीतल रतिया' में साथ काम किया।

अध्यात्म के प्रति रुचि जाग्रत होने पर दुबेजी का रुझान ओशो आनि आचार्य रजनीश की ओर फिर जीवन मरण के शाश्वत सवालों से बेचैन होकर वह कई सालों तक ओशो के संपर्क में रहे और विधिवत् संन्यास लिया। लेकिन कर्मयोद्ध के रूप में संसारी दायित्व निर्वाहन करते रहे.अपने पौत्र ओजस से उनका विशेष अनुराग था वैसे अपनी पत्नी श्रीमती ममता दुबे , प्रज्ञान दुबे पुत्र, श्रीमती अनुराधा दुबे, श्रीमती इति पनवार,मोहित पनवर और धेवते कबीर आदि सहित भरापूरा परिवार छोड गये हैं.

साथी सहकर्मी

श्री दुबे मूल रूप से मेरे छोटे भाई श्री दीपक सक्सेना के सहपाठी थे.लेकिन पत्रकारिता मेरे साथ की. छै सात साल  विकासशील भारत में हमने साथ कार्यकिया. श्री अनिल शुक्ला भी साथ में ही थे. बाद में दुबेजी अमर उजाला चले गये , शुक्लाजी ने आनंद बाजार पत्रिका की रविवार पत्रिका  के साथ पारी शुरू की और में दैनिक जागरण से जुड गया.हम सब कभी फिर किसी प्रकाशन में एक साथ तो नहीं रहे किन्तु आपस में हमेशा जुडे रहे. (आलेख- राजीव सक्‍सेना)




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