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goverment and poor


गरीब  और सरकार


मीडिया सब कुछ दिखाती है , उसे चटपटी खबरे दिखाने में मजा आता है। लेकिन गरीब की जिंदगी में शायद कुछ चटपटा नहीं होता।  जीएसटी का उसकी जिंदगी से कोई वास्ता नहीं होता , धर्म उसका हिन्दू - मुस्लिम ना होकर दो जून की रोटी का इंतजाम करना होता है। साहब लोगो की दया का पात्र होता है , नेताओ की वोट बैंक का वो हिस्सा होता है जो सिर्फ बटन दबाने तक ही सिमट कर रह जाता है।



कई लोग गरीबी को गँवारपना से भी जोड़ कर देखते है लेकिन यह भूल जाते है की यह गँवारपना उसकी गरीबी नहीं उनकी अमीरी है। फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर सिवाय दो वक़्त की रोटी के अतिरिक्त इतना धन नहीं बचा पाता की वह अपने बच्चो को अच्छी तालीम दिलवा सके।  सरकारी स्कूल तो जरूर है लेकिन वहाँ मोटी तनख्वाह लेने वाले शिक्षक  अपना मूल कर्तव्य केवल तनख्वाह बढ़ोत्तरी के लिए होने वाले धरना प्रदर्शनों को ही मानते है। सरकार उनकी तनख्वाह तो बढाती है लेकिन वे अपना काम अच्छे से कर रहे है या नहीं इससे आँखे मूँद लेती है क्योंकि शायद उसमे पढ़ने वाले बच्चे गरीब घरो के जो ठहरे।  उनके अभिभावक शिकायत करे तो किससे , जितना समय वह शिकायत करने और इस व्यवस्था को झेलने में लगाएंगे उतने वक़्त उन्हें भूख भी बर्दाश्त करनी पड़ेगी।

सरकारी स्कूलों के शिक्षक कभी इस बात के लिए धरना नहीं देते की उनके स्कूल के बच्चे टाट - पट्टी पर क्यों बैठते है , उनके स्कूल में शुद्ध जल और कम्प्यूटर की व्यवस्था क्यों नहीं है। क्यों उनके स्कूल के बच्चो का परिधान अंग्रेजो के जमाने की वर्दी की तरह लगता है।

उद्योगपतियों और पेट्रोल - डीजल में होने वाला घाटा तो सरकार को दिखता है लेकिन खेती में होने वाला घाटा सरकार को नहीं दिखता। महँगी गाड़ियों के लिए किसानो की जमीन लेकर  एक्सप्रेस वे का तो निर्माण होता है लेकिन सूखे पड़े खेतो के लिए नहरों का निर्माण नहीं होता। क्या उन एक्सप्रेस वे पर कोई किसान खेती से होने वाले लाभ से  गाडी खरीद कर चल सकता  है।

आपके स्मार्ट शहरो और बुलेट ट्रेन की परिकल्पना तब तक बेकार है जब तक आम इंसान उसमे रहने और चलने लायक नहीं हो जाता।  वह तो शहर में आने के लिए भी सौ बार सोचता है की किराए में लगने वाले पैसो का इंतजाम कहा से करेगा , फिर वह गुजरात जाकर मूर्ति के दर्शन कैसे कर सकता है जिससे आपके राजस्व की वसूली हो।

देश में कंक्रीट के और झोपड़पट्टी दोनों ही प्रकार के मकानों की संख्या बढ़ रही है।  चिंता झोपड़पट्टी वाले मकानों की है जहा गर्मी में एक चिंगारी उनके सर की धुप तेज कर सकता है। सरकार की तरफ से चलाई जाने वाली योजनाओ की जमीनी सच्चाई जमीन पर जाकर बखूबी देखीं जा सकती है। रोज - कमाने और रोज खाने की जद्दोजहद से जूझता यह वर्ग इस बात पर कब जागरूक होगा की चुनावों में मुद्दे उसकी चिंताओं से जुड़े होंगे नाकि उसकी जाति से। 









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